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कौन-कौन मराठी, कौन पर-प्रांतीय ?

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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महाराष्ट्र में भाषा विवाद…

भारत की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इतिहास गवाह है कि विश्व में अलग-अलग देशों से लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत में पहुंचे, बसे और भारत में ही रच – बस गए। बहुत बार शक, हूण तथा इस्लामिक आक्रमणकारियों आदि की अन्य देशों से आई सेनाओं के सैनिक भी हमारे बीच बस गए और भारत का हिस्सा बन गए। मुगलों की सेना के साथ आए सैनिकों के वंशज भी तो यहीं हैं। औरंगजेब की सेना के साथ सालों तक मराठों की सेना से लड़े महाराष्ट्र में आए अनेक मुगल सैनिक भी तो वहाँ बसे हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘सक्सेना’ उपनाम वाले लोग शक या कुषाण वंश से जुड़े हो सकते हैं, जो प्राचीन काल में भारत में शासन करते थे। हालांकि, इस संबंध में सभी इतिहासकार एक मत नहीं है। अगर इतिहास में जाकर झांकेंगे तो पता लगेगा कि जो आज किसी क्षेत्र के मूल निवासी माने जाते हैं, अतीत में वे देश-विदेश से, कहीं और से आकर वहाँ बसे थे। देश-विदेश से आकर किसी राज्य के मूल निवासी बनने वालों समुदायों की बड़ी संख्या है।
अगर भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें तो कब, कौन, कहाँ से आकर कहाँ बसा यदि इस पर अनुसंधान किया जाए तो सूची बहुत लम्बी हो जाएगी। जिन्हें हम जहां का मूल निवासी मानते हैं, पता लगेगा उनके पूर्वज तो कुछ पीढ़ी पहले या कई सौ साल पहले कहीं और से आकर वहाँ बसे थे। इस समय, क्योंकि महाराष्ट्र में राजनीतिक ध्रुवीकरण के रूप में फिर से मराठीवाद या मराठी भाषा का मुद्दा उठा है, तो जान लेते हैं कि कौन मराठी और कौन पर-प्रांतीय ? इस दृष्टि से यदि रामायण काल को देखें तो भगवान श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का नाम सामने आता है। मान्यता के अनुसार राम भक्त हनुमान जी का जन्मस्थान है। अंजनवेली-अंजनरी। यह स्थान महाराष्ट्र के नाशिक जिले के त्र्यंबकेश्वर के पास स्थित है। यहाँ एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसे ‘अंजनरी पर्वत’ कहा जाता है। मान्यता है कि यहीं माता अंजनी ने हनुमान जी को जन्म दिया था, इसलिए इसका नाम अंजनेरी पड़ा। तब तो सुग्रीव भी वहीं कहीं पर रहे होंगे, जिन्होंने सीता माता की खोज में और लंका विजय में भगवान श्री राम की मदद की। तब तो हिंदी-मराठी का कोई मुद्दा नहीं बना, क्योंकि ऐसे मुद्दे जनता के नहीं;राजनीतिक तौर पर समाज को बांटकर ‘वोट बैंक’ बनाने के होते हैं, जो देश में अक्सर चुनाव के समय उछाले जाते हैं।
मध्यप्रदेश के ग्वालियर का सिंधिया घराना मूलतः महाराष्ट्र से हैं। यह वंश मराठा साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। राणोजी एक मराठा सरदार थे, जो पेशवा बाजीराव प्रथम के अधीन कार्य करते थे। राणोजी सिंधिया को उत्तर भारत के मालवा और ग्वालियर क्षेत्र की जिम्मेदारी दी गई थी। यहीं से उन्होंने धीरे-धीरे ग्वालियर को अपना मुख्यालय बनाया और एक स्वतंत्र रियासत की नींव रखी। बाद में महादजी सिंधिया और दौलत राव सिंधिया जैसे शासकों ने ग्वालियर राज्य को एक शक्तिशाली मराठा रियासत में बदल दिया, लेकिन आज वे हिंदी भाषी हैं और उनकी पहचान मराठी के तौर पर नहीं होती।
मालवा, जो वर्तमान में मध्यप्रदेश में है, की शासिका महारानी अहिल्याबाई होल्कर, होल्कर वंश की एक महान और न्यायप्रिय रानी थीं, जिन्होंने इंदौर को अपनी राजधानी बनाया और १८वीं शताब्दी में शासन किया। उनका जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी नामक गाँव में मराठा कुनबी परिवार में हुआ था। पति और पुत्र की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर संभाली। उनके द्वारा काशी, गया, सोमनाथ, द्वारिका, बद्रीनाथ, रामेश्वरम के जीर्णोद्धार, पुनर्निमाण और निर्माण के कार्य आज भी मौजूद हैं। ये सब स्थान देश के अलग-अलग राज्यों में हैं। मुझे लगता है कि समाज को बांटने वाले महाराष्ट्र के नेताओं को महारानी अहिल्याबाई होल्कर से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
दक्षिण भारतीय फिल्मों के सफल सितारे रजनीकांत मूलतः मराठी हैं, लेकिन दक्षिण भारत के लोगों से उन्हें जितना प्रेम मिला, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमें कभी नहीं पता था कि हरियाणा में भी मराठियों के वंशज रहते हैं। पिछले वर्ष खबर आई थी कि महाराष्ट्र के कुछ लोग हरियाणा के गाँव में अपने मराठी भाइयों से मिलने के लिए गए थे। पता लगा कि पानीपत के युद्ध में लड़ने आई सेना के कुछ सैनिक हरियाणा में ही रह गए थे। उनके वंशज आज भी यहाँ के समाज के साथ घुल-मिलकर रहते हैं। कहना न होगा कि शिक्षा, व्यापार-व्यवसाय आदि के चलते बड़ी संख्या में देश के विभिन्न भागों में बसे हैं और अब वहीं के होकर रह गए हैं। कौन-सा ऐसा प्रदेश है, जहाँ पर-प्रान्तीय नहीं रहते, यह भारत के संविधान की व्यवस्था का अंग है, लेकिन वहाँ इस तरह की राजनीति नहीं है। जहाँ भाषा, क्षेत्रवाद या ऐसा कोई उत्पात होगा, उसका नीचे जाना तय है।
दूसरी ओर देखें तो इतिहासकारों का मानना है कि राष्ट्र और महाराष्ट्र गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज के पूर्वज राजस्थान के मेवाड़ या उदयपुर क्षेत्र से आए थे। वे राजपूतों की सिसोदिया शाखा के माने जाते हैं। हालांकि इस पर कुछ ऐतिहासिक बहस भी है। वे पहले देवगिरी आए, बाद में उनके वंशज महाराष्ट्र के पुणे क्षेत्र में बस गए।छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक रायगढ़ किले में अत्यंत भव्य रूप से काशी के प्रसिद्ध ब्राह्मण पंडित गागा भट्ट (गंगाभट्ट) ने वैदिक विधि से किया था। गागा भट्ट ने शिवाजी को ‘क्षत्रिय’ घोषित किया और ‘छत्रपति’ की उपाधि दी। इस राज्याभिषेक ने शिवाजी को सेनानायक या सरदार से ऊपर उठाकर स्वतंत्र हिंदू राजा के रूप में स्थापित कर दिया, जो उस समय के मुग़ल व आदिलशाही प्रभाव के विरुद्ध एक क्रांतिकारी घटना थी। शिवाजी महाराज का दरबार बहुभाषीय विद्वानों से भरा था। उनमें एक प्रमुख हिंदी कवि थे, भूषण। भूषण, एक प्रसिद्ध ब्रजभाषा के कवि थे। वे मूल रूप से उत्तर भारत (उत्तर प्रदेश) से थे और बुंदेलखंड के ओरछा दरबार में भी रह चुके थे। उन्होंने शिवाजी की वीरता, धर्मरक्षा और राष्ट्रभक्ति की अनेक रचनाएँ कीं।
सबसे बढ़कर बात यह है कि जो अब मराठियों और मराठी भाषा के ठेकेदार बने हुए हैं, खुद उनके पूर्वज भी तो मूलतः मराठी नहीं हैं। माना जाता है, कि उद्धव और राज ठाकरे के परदादा कृष्णाजी ठाकरे मूल रूप से बिहार के मगध क्षेत्र से संबंध रखते थे। वे एक कायस्थ परिवार से थे, और बाद में काम-धंधे की तलाश में उत्तर भारत से मध्यप्रदेश और फिर महाराष्ट्र की ओर आए। इनके दादा केशव सीताराम ठाकरे (प्रबोधनकार ठाकरे) का जन्म १९०३ में हुआ था। वे मुम्बई में बस गए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ठाकरे परिवार १९वीं शताब्दी के अंत या २०वीं शताब्दी की शुरूआत में महाराष्ट्र आया। उन्होंने दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरोध में मराठी अस्मिता को लेकर आवाज़ उठाई थी, जो आगे चलकर बाल ठाकरे की राजनीति की नींव बनी। महाराष्ट्र में अनेक ऐसी जातियाँ व वर्ग मिलेंगे, जो मराठी समाज का अभिन्न अंग है, लेकिन थोड़ा पीछे जाएंगे तो पता लगेगा कि वे १००-२०० वर्ष पूर्व कहीं ओर से यहाँ आकर बसे थे।
सत्ता की राजनीति और देश-प्रेम में सबसे बड़ा अंतर यह है कि देश-प्रेम देशवासियों को जोड़ने की कोशिश करता है, लेकिन राजनीति अपना वोट बैंक बनाने एवं मतों का ध्रुवीकरण करने के लिए देशवासियों को बांटने की कोशिश करती है। इसके लिए जाति, क्षेत्र, भाषा और मजहब आदि उपकरणों का सहारा लिया जाता है। इसका एक बड़ा उदाहरण हम महाराष्ट्र में भी देख सकते हैं। यदि हम देशप्रेमियों की सूची देखें, तो महाराष्ट्र के सभी स्वतंत्रता सेनानी, चाहे वे क्रांतिकारी विचारधारा के रहे हों या अहिंसावादी के, दोनों ने ही राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिंदी को न केवल अपनाया; बल्कि उसका प्रचार-प्रसार भी किया। इस मामले में महाराष्ट्र सदा अग्रणी रहा है।
सबसे पहले हम वीर विनायक दामोदर सावरकर की ही बात कर लेते हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया था। वीर सावरकर ने काला पानी (अंडमान) में कैद के दौरान कैदियों को हिंदी सिखाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उन्होंने भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से हिंदी के प्रचार में भी महान योगदान दिया। जेल में उन्हें कठोर यातनाएँ दी गईं, फिर भी उन्होंने आत्मबल को बनाए रखते हुए कैदियों को हिंदी सिखाने का कार्य किया। उनका उद्देश्य हिंदी भाषा को एकता का माध्यम बनाना था। सावरकर ने महसूस किया कि जेल में उत्तर भारत, दक्षिण भारत, बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि से आए कैदियों की भाषाएँ अलग थीं। उन्होंने कहा कि यदि हम राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें एक ऐसी संपर्क भाषा चाहिए, और वह हिंदी हो सकती है। इसलिए उन्होंने देशभक्ति, समाज सुधार व इतिहास से जुड़े विषयों पर बातचीत और अध्ययन के लिए हिंदी को माध्यम बनाया। वे प्रतिदिन कुछ समय निकालकर कैदियों को हिंदी वर्णमाला, शब्द, वाक्य रचना आदि सिखाते थे। उन्होंने छिपकर जेल की दीवारों पर कोयले और पत्थरों से हिंदी और मराठी में कविताएँ एवं लेख आदि भी लिखे।
सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और गणेशोत्सव का प्रारंभ करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हिंदी के प्रबल समर्थक थे। वे मुख्य रूप से मराठी और संस्कृत में लिखते थे, परंतु राष्ट्रीय एकता के लिए वे हिंदी को भारत की साझा भाषा मानते थे। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के विचार का समर्थन किया। विनोबा भावे (गांधी जी के अनुयायी) ने हिंदी को जनभाषा माना और देशभर में अपने प्रवचनों में हिंदी का उपयोग किया। उन्होंने ‘गीता के प्रवचन’ हिंदी में भी दिए। महात्मा ज्योतिबा फुले (विख्यात समाज सुधारक) ने अपनी रचनाएँ मुख्यतः मराठी में लिखीं, लेकिन हिंदी क्षेत्र के लोगों में भी उनकी शिक्षा और समानता की बातें प्रसिद्ध हुईं। उनके विचारों को हिंदी में अनुवादित कर प्रचारित किया गया।
बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे समाज सुधारक थे, उन्होंने उत्तर भारतीयों और मराठियों के बीच सामंजस्य का समर्थन किया तथा हिंदी भाषी समाज की ताकत को समझा और संवाद की आवश्यकता को स्वीकार किया।
साने गुरुजी (पांडुरंग सदाशिव साने) बहुत ही लोकप्रिय मराठी लेखक, शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी ने ‘शामची आई’ जैसी कालजयी रचना लिखी, जिसे हिंदी में भी अनुदित किया गया, जो बहुत लोकप्रिय हुई। वे हिंदी प्रचार सभा से भी जुड़े रहे और दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कोल्हापुर के राजा राजर्षि शाहू जी महाराज ने शिक्षा और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया। उन्होंने हिंदी को दलितों और पिछड़े वर्गों तक पहुँचाने में योगदान दिया, ताकि वे राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
हिंदी और मराठी का सैकड़ों-हजारों वर्ष पुराना नाता है और दोनों की भाषा-संस्कृति आपस में मिली जुली है। अगर हम यह कहें कि हिंदीतर भाषी राज्यों में महाराष्ट्र हिंदी के सर्वाधिक अनुकूल है, तो यह अनुचित न होगा। इसी के चलते महाराष्ट्र में हिंदी के प्रचार-प्रसार की अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं। यहाँ तक कि ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय’ की स्थापना किसी हिंदीभाषी राज्य में नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के वर्धा में की गई। हिंदी सिनेमा का केंद्र किसी हिंदी-भाषी राज्य में नहीं, बल्कि महाराष्ट्र में है, जिसे हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं।

महाराष्ट्र के गौरव, शौर्य और इतिहास का हिंदी भाषी क्षेत्र से अटूट संबंध है, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी दोनों के बीच अतीत के गहरे संबंध हैं। इसे नफरत की राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसा करना न केवल अपने इतिहास को नकारना है, बल्कि यह राष्ट्रहित और महाराष्ट्र हित के भी प्रतिकूल है। इसलिए यह आवश्यक है कि राजनीति की दुकान चलाने के लिए कुछ नेताओं द्वारा समाज में क्षेत्र और भाषा के नाम पर अलगाव को नकारा जाए और राष्ट्र के साथ-साथ महाराष्ट्र को सशक्त किया जाए।