अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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गुजरात में भाजपा ने पूरा मंत्रिमंडल तो क्या आईना ही बदल डाला है। इस महाबदलाव में कई खतरे निहित हैं। बड़ी कामयाबी और उससे भी बड़ी नाकामयाबी के भी। भाजपा का गढ़ बन चुके गुजरात में नए और पहली बार मुख्यमंत्री बने भूपेन्द्र पटेल के मंत्रिमंडल में ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ की तर्ज पर सभी २४ मंत्री नए-नकोरे चेहरे हैं। भाजपा इन्हीं बेदाग और गुमनाम से चेहरों पर अगले साल दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में दांव खेलने जा रही है। अब ये भाजपा का जबर्दस्त आत्मविश्वास है,अति आत्मविश्वास है ? बहुत बड़ा जोखिम और दल की भीतरी दरारों को भरने की ‘राजनीतिक पुट्टी’ है, इसका पता तो विधानसभा चुनाव नतीजों से ही चलेगा।
फिलहाल इतना तो मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गुजरात सरकार के नख-शिख परिवर्तन का फैसला बहुत सोच-समझ कर और पुराने चावलों की नाराजी का भारी जोखिम उठाकर ही लिया होगा। इसका सीधा अर्थ है कि विजय रूपाणी के नेतृत्व में जो सरकार चल रही थी,वो खारिज करने लायक ही थी। इसमें कई तात्कालिक कारण भी जुड़ गए थे। सार यही था कि इस सरकार के बल-बूते फिर से सत्ता में नहीं आया जा सकता। लिहाजा पूरी टीम को ही टूर्नामेंट से बाहर कर दिया गया। जो लोग घर बिठा दिए गए, उनमें पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल जैसे नेता भी हैं,जो कल तक मुख्यमंत्री बनने के ख्वाब देख रहे थे। और अब इस बात की खैर मना रहे हैं कि कम से कम विधायक का टिकट ही फिर मिल जाए।
जाहिर है कि,भूपेन्द्र पटेल की नई कैबिनेट के आईने पर धूल जमने में भी वक्त लगेगा। स्वयं मुख्यमंत्री और नए मंत्रियों में प्रशासन का कोई पूर्वानुभव भले न हो,लेकिन वो उत्साह से लबरेज हैं। ये अपनी जिम्मेदारियों को किस तरह से निभाएंगे,कितना निभा पाएंगे,नई सरकार कुशल होगी या नहीं, सुशासन दे पाएगी या नहीं,इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए उन्हें वक्त देना होगा। जनता भी नई सरकार को ‘शुरूआती ओवर’ की तरह मौका देगी ही। नवेली सरकार से उम्मीदें भी काफी होंगी। विपक्ष भी इस सरकार पर आरंभ में ज्यादा से ज्यादा इतना ही हमला कर पाएगा कि भूपेन्द्र पटेल मंत्रिमंडल के सभी मंत्री ‘नौसिखिया’ हैं। यानी मामला ‘पचास-पचास’ का है।
यह बिलकुल साफ है कि,मंत्रिमंडल का गठन आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है। सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व (८) उस सौराष्ट्र अंचल को मिला है,जहां पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कमजोर था। उत्तर गुजरात से ३,दक्षिण से ७ व मध्य गुजरात से ६ लोगों को मंत्री बनाया गया है। जातिय आधार पर देखें तो मुख्यमंत्री के अलावा सर्वाधिक ८ मंत्री पटेल (पाटीदार) समुदाय से हैं। यानी भाजपा मुख्य दांव पटेलों और अन्य पिछड़ा वर्ग पर ही खेलने जा रही है।
वैसे,चुनाव के मद्देनजर ‘संपूर्ण परिवर्तन’ का यह निर्णायक दांव भाजपा २०१७ में दिल्ली के ३ नगर निगमों के चुनाव में सफलता से खेल चुकी है,जब उसने सभी १३८ पार्षदों के टिकट एक झटके में काट दिए थे और राजनीतिक दृष्टि से ‘कुंवारे’ चेहरों पर दांव खेला था। नतीजतन २ साल पहले ही दिल्ली प्रदेश के विधानसभा चुनाव में करारी हार की कसक १८१ सीटों पर जबर्दस्त जीत में तब्दील हो गई। निष्कर्ष निकला कि चेहरे बदलने से लोगों की नाराजी काफी हद तक दूर होकर समर्थन में बदल जाती है। यानी यह एक तरह की सियासी कीमियागरी है,लेकिन क्या यह हमेशा वरदान साबित होगी ? खासकर गुजरात जैसे राज्य में,जिसे भाजपा ने कभी कम्युनिस्टों के गढ़ बंगाल (अब वह भी ढह चुका है) की तर्ज पर सिरजने का सोचा था। गुजरात में कांग्रेस की रणनीतिक गलतियों और २००२ के साम्प्रदायिक दंगों के बाद से ऐसा सघन ध्रुवीकरण हो चुका है कि वहां सत्ता में लौटना आसान नहीं है। पाटीदार आरक्षण आंदोलन की छाया में हुए २०१७ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर जरूर दी थी,लेकिन सत्ता से दूर ही रही,जबकि भाजपा सीटों की घट-बढ़ के साथ बीते २६ साल से निरंतर सत्ता में है। संघ के लिए वह ‘हिंदुत्व की आदर्श प्रयोगशाला’ है, पर निरंतर सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम होते हैं। यदि उन्हें समय रहते नहीं समझा गया और रोकने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो सत्ता का यह महल धीरे-धीरे भीतर से इतना खोखला होता जाता है कि बुलडोजर के एक धक्के के बाद फिर खड़ा हो ही नहीं पाता। बंगाल में वामपंथियों के निरंतर सत्ता में रहने और अपने भीतर जरूरी सुधार और राजनीतिक शल्य चिकित्सा नहीं करने से सत्ता प्रासाद बुरी तरह ढह गया और अब तो वहां प्रतिपक्ष का स्थान भी भाजपा ने हथिया लिया है। गुजरात में भी पूरी सरकार का चेहरा बदलना एक फौरी उपाय जरूर है,पर समस्या का स्थायी निदान नहीं है।
यूँ भाजपा,उसके नेतृत्व और संघ की आलोचना कई मुद्दों पर हो सकती है,लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि अनुभव से जल्दी सबक वो लेते हैं और तदनुसार कठोर फैसले करने की जोखिम भी उठाते हैं। गुजरात में रूपाणी सरकार की जड़-मूल सहित विदाई का यह निर्णय इसी श्रेणी का है,क्योंकि कोई भी शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व अपने आजमाए हुए पुराने,घाघ,त्यागी,तपस्वी,आड़े वक्त के साथी आदि विरूदों से विभूषित नेताओं को इस तरह किनारे लगाने का साहस शायद ही जुटा पाता है,क्योंकि इसमें जहाज के पार लगने के साथ डूबने का खतरा भी निहित है। यानी जो ताकत है,वो कमजोरी भी है। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल की देहभाषा सौम्य प्रशासक की लगती है। आगे इसमें बदलाव हो सकता है,लेकिन उन्हें करना वही है,जो मोदी-शाह कहें और संघ चाहे। यानी उनकी कसौटी दिशा-निर्देशों का कुशल क्रियान्वयन ही है। यही स्थिति नए मंत्रियों की भी है, लेकिन अगर ये मंत्री प्रदर्शन नहीं कर पाए और खुद भूपेन्द्र पटेल भी जनता और दल की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो यह दांव उलटा भी पड़ सकता है। ‘पुरानों को कबाड़खाने में डालने’ का तगड़ा खमियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। देश में भाजपा की उल्टी गिनती भी शुरू हो सकती है।
अब सवाल यह है कि सभी पूर्व मंत्रियों का पत्ता साफ करने के बाद क्या गुजरात भाजपा में और घमासान होगा,या फिर अनुशासन का डंडा असंतुष्टों के मुँह पर ताले डालने में सफल हो जाएगा। जो लोग सत्ता से बाहर कर दिए गए हैं,आगामी विधानसभा चुनाव में कितना भीतरघात करेंगे ? नगर निगम और विधानसभा चुनाव की तासीर और तेवरों में जमीन आसमान का फर्क है। बदलाव का दांव उलटा पड़ा तो इसका असर दिल्ली तक होगा। और फिर ‘पूरे घर के बदल डालने’ का यह प्रयोग गुजरात मंत्रिमंडल तक ही सीमित नहीं रहेगा। मुमकिन है कि विस चुनाव में सभी नहीं तो ९० फीसदी वर्तमान विधायकों के टिकट काटे जा सकते हैं। यही कहानी लोकसभा चुनाव में भी दोहराई जा सकती है।
गुजरात के प्रयोग में भाजपाशासित मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों के लिए भी साफ संदेश छिपा है। अगले साल जिन ७ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं,उनमें से पंजाब को छोड़कर शेष राज्य भाजपा शासित ही हैं। इनमें से ४ में ५ मुख्यमंत्री चुनाव से पहले अपनी कुर्सी गंवा चुके हैं और छठे यानी हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी आलाकमान की राडार पर हैं।
कुल मिलाकर भाजपा गुजरात सहित सभी आसन्न चुनाव वाले राज्यों में नई चालें चल रही है,लेकिन इतना जोखिम वही पार्टी उठा सकती है,जिसके नेतृत्व को भरोसा हो कि वो जो कर रहे हैं,राज्यों में दल की सत्ता के स्थायीकरण के लिए है। कुशासन के सायों को बेदखल करने के लिए है। हालांकि,चेहरा बदलने का अर्थ ‘सुशासन’ नहीं होता और न ही वह जीत की राजनीतिक गारंटी है। अलबत्ता एक भीतरी दिलासा जरूर है। चूंकि भाजपा हर चुनाव में अपनी सारी ताकत के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को भी दांव पर लगाती है,इसलिए भाजपाशासित राज्यों में हार का जोखिम किसी कीमत पर नहीं लेना चाहती। यह जानते हुए भी कि राष्ट्रीय नेतृत्व और क्षेत्रीय नेतृत्व के तकाजे अलग अलग होते हैं।
गुजरात के ‘क्रांतिकारी’ प्रयोग से यही लगता है कि तमाम खतरों के बाद भी मोदी-शाह और संघ को शायद पूरा विश्वास है कि बदलाव के ये पांसे जीतने के लिए फेंके जा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि भूपेन्द्र सरकार के खिलाफ विपक्ष जब तक आक्रामक होगा,तब तक चुनाव का बिगुल बज चुका होगा। मोदी को मालूम है कि समाज के एक बड़े वर्ग पर उनकी पकड़ अभी भी मजबूत है। सफलता के आकाश में अगर मोदी की छवि राफेल की तरह है और भूपेन्द्र पटेल जैसे कई ड्रोन उसमें चक्कर लगाते रहेंगे। लिहाजा,गुजरात के विस चुनाव स्वयं नरेन्द्र मोदी की शख्सियत,आभामंडल और कार्य शैली पर नए सिरे से मुहर लगाने की कवायद ज्यादा है। यही मुहर २०२४ के लोकसभा चुनावों की दिशा तय करेगी। खुदा न खास्ता अगर नतीजा विपरीत आया तो देश को बड़ी उथल-पुथल भी देखने को मिल सकती है,पर इसकी संभावना बहुत कम है। यह मानना गलत नहीं होगा कि गुजरातियों में मोदी का जादू बरकरार है। मुखौटा भले किसी का हो।