डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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मौसम का मिजाज बदल रहा था। एक तरफ चिलचिलाती गर्मी, तो दूसरी तरफ बारिश ने अपना कब्जा जमा रखा था। रोज कमाने, रोज खाने वालों के लिए पेट पर बन आई थी। दो वक्त भोजन की जगह एक वक्त ही नशीब हो पा रहा था।
५० दिन की छुट्टियाँ खत्म हो रही थी। सुबह उठते ही “पापा आज फीस नहीं दोगे, तो मैं स्कूल नहीं जाऊंगा।”
रसोईघर से पत्नी सोनी-“ऐ जी, कल तक तो थोड़ा सरकारी चावल था, तो बन रहा था। आज तो वह भी नहीं है। नाश्ते में क्या बनाऊं! कुछ राशन पानी लाओगे भी!
(बुदबुदाते स्वर में) पता नहीं, ब्याह ही क्यों किया ? जब खिलाने तक के पैसे नहीं थे। ३ दिन हो गए, घर पर कोलगेट तक नहीं, कैसे दिन बीतेगे आखिर…!”
लंबी लिस्ट थमाते हुए,”लाइए, वरना मैं जा रही सोने।” सोनी ने कहा।
“अरे सोनी, तुम तो देख ही रही हो, काम मिल नहीं रहा है। मैं कोशिश तो कर ही रहा हूँ।”
“हाँ, मैं भी तो आपकी २ वर्ष से केवल कोशिश ही देख रही हूँ। पता नहीं, मेरी किस्मत ही फूटी है। माँ-बाप ने क्या देखकर ब्याह कर दिया!”
दादाजी पिंटू को बुलाकर “बेटा, तुम्हें कितनी फीस देनी है ?”
“दादाजी, साढ़े ४सौ रुपए, पर मुझे २०₹ ज्यादा दीजिएगा। कितने दिनों से मैंने चिप्स नहीं खाए।” पिंटू ने कहा।
“लो मास्टर जी को देना और ख्याल कर रसीद लेते आना।” दादा जी ने समझाते हुए कहा।
शंभू कमरे में बैठ सब कुछ सुनता रहा। यह सुनते ही सोनी-“बाबूजी ने फीस तो दे दी, अब आप राशन-वाशन तो लाओ कुछ! भूखे ही मारोगे क्या…?
शंभू उदास मन से थैला लिए निकल पड़ा। कुछ आगे बढ़कर दुकान पर पहुँचा ही था कि-“अरे शंभू, पुराना बकाया दे दो भाई। महाजन को देना है, कितने महीने हो गए आखिर!”
“हाँ, हाँ दूंगा, अगले महीने तक पक्का।”
दो-चार कदम आगे बढ़ दूसरी दुकान पर पहुँचते ही पुरानी लिस्ट थमाते हुए दुकानदार ने कहा-“अरे शंभू, आजकल दिखते ही नहीं! पहले की लिस्ट क्लियर कर दो।नया साल आ रहा है, खाता-बही बदलना है।”
“हाँ, हाँ… शंभू उदास मन से वहीं खड़ा रहा। अपने हाथों को गंभीर नजरों से निहारता रहा। (नम आँखों से) “ये अंगूठी १ महीने के लिए गिरवी रख लीजिए और मुझे अभी २ हजार ₹ दे दीजिए।” दुकानदार गौर से देखता रहा। फिर वह मौन हो रख ली और पैसे थमा दिए।
शंभू ने लिस्ट आगे करते हुए, “यह राशन नाप दीजिए।”
सूरज सिर पर चढ़ने ही वाला था। सोनी पड़ोसी चाचा के पास जाकर -“चाचा जी, चाची दिख नहीं रही है, कहीं गई है क्या ?”
इतने में सोनी की नजर चाचा के अखबार पर पड़ी, जिसमें ‘कुटीर उद्योग के लिए सहायता’ लिखा था, यह पढ़ते ही वह सोच में पड़ गई। “पढ़ने के बाद ये अखबार मुझे दीजिएगा चाचा जी ?” सोनी ने गुजारिश की।
“हाँ, हाँ, जरूर बेटा।”
“चाची जी, मुझे थोड़ी सी नमक दीजिएगा ?”
“ले जाओ बेटा, लेकिन नमक कभी किसी को देते नहीं, और ना ही लेते हैं।”
सोनी ने शंभू के घर आते ही उस खबर का जिक्र किया।
“लेकिन सोनी, यह सब इतना आसान नहीं। न जाने कितने ही सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने होंगे। मेरे से तो यह नहीं होने वाला, मगर तुम निकल कर करोगी क्यों! शंभू ने जानने की इच्छा जाहिर की।
“पता है, मैंने अपने स्कूल के दिनों में ही मोमबत्ती बनाने का कोर्स किया था, और उसमें ज्यादा कुछ लगता भी नहीं।” शंभू मौन हो सुनता रहा।
“मैं यदि वह कर पाई तो…! कल बैंक जाकर सारा सिस्टम पता करती हूँ।”
“सोनी, वैसे यह सब इतना आसान नहीं!” शंभू ने कहा।
“ऐ जी, वैसे कोशिश करने से क्या हर्ज है। “
“करो, फिर जो तुम्हारी मर्जी…।”
इतना कहते ही शंभू बाहर की ओर निकल पड़ा। सोनी ने मैनेजर से बात कर सारे कागजात तैयार कर लिए और उसी पैसे से मोमबत्ती बनाने का सारा इंतजाम किया। अब वह अपना सारा समय कामकाज में ही बिताती। धीरे-धीरे परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरती गई। धीरे-धीरे वह सबकी प्यारी बहू बन गई, वहीं शंभू के साथ रिश्ता भी प्रतिदिन सुधरता ही गया।
एक दिन सोनी बाजार से अपनी पसंद की एक कमीज ले आई। शम्भू को अकेले कमरे में देख सज-संवर कर हाथों में वह पैकेट लिए-“ये आपके लिए, जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं।”
“क्या! हाँ, आज मेरा जन्मदिन है तुम्हें कैसे पता ? अरे मुझे तो याद ही नहीं था। मैंने तुम्हें शायद कभी बताया भी नहीं!” शंभू ने खुशी जाहिर की।
“हाँ, लेकिन मुझे पता है। यह अलग बात है कि पारिवारिक स्थितियों ने मुझे इस तरह जकड़ रखा था कि मैं कुछ कर नहीं पाती थी।”
“मगर, इसकी क्या जरूरत थी! मैं तो वैसे भी कम ही बाहर जाता हूँ।” शंभू ने कहा।
“जानते हैं, मुझे बहुत शौक है इन चीजों का। आज भी मुझे वो दिन याद आता है, जब बाबूजी माँ के हर जन्मदिन पर, करवा चौथ प, दीपावली पर उनकी पसंद के तोहफे दिया करते थे और माँ उसे बड़े प्यार से अगली सुबह पहनती। आज भी मुझे वो सब कुछ याद है। “
शंभू, सोनी के चेहरे को ध्यान से देखता रहा -“सॉरी सोनी, मेरे कारण तुमने जीवन में इतनी बड़ी कुर्बानी दी है। मुझे क्षमा करना!”
“शम्भू, यह क्या कह रहे हो तुम!”
“मैंने तुम्हारे साथ ७ फेरे तो लिए, लेकिन कभी तुम्हारे अरमानों को पूरा न कर पाया।”
“जानते हो, इस सबका असली श्रेय मेरे पिताजी को जाता है।बचपन से ही उन्होंने मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए प्रेरित किया। जानते हैं जब मैं कोर्स के लिए जाती, तो ठिठुरती सर्दी में कंबल लपेटे वहाँ पहुँच जाते।” शंभू उसकी सारी भावनाओं को समझ रहा था।
“सोनी, अगले सप्ताह पिंटू का जन्मदिन है, क्यों ना उसमें तुम्हारे मम्मी-पापा को भी बुला लें! इसी बहाने उनसे मिलना भी हो जाएगा।”
“सच्ची!”
“क्यों नहीं!”
यह खबर सुनते ही दोनों बड़े खुश हुए। उधर, चिंटू की खुशी का भी ठिकाना ना था। जन्मदिन का समारोह हुआ। सोनी का घर और उनके रिश्ते में मिठास देख उनकी खुशी सातवें आसमान पर नाच रही थी। सब काम समाप्त कर घर लौटने के लिए बाहर निकल ही रहे थे, कि उनके लिए कुछ कपड़े लाए-“पापा जी, ये लीजिए, माँ ये आपके लिए…। जीवन में पहली बार कुछ आप लोगों को अपने हाथों से देने का सौभाग्य हो पाया।” सोनी ने कहा।
“बेटा, लेकिन इसकी क्या जरूरत थी। तुम्हारी खुशी देख आज मैं चैन की नींद सो पाऊँगा।”
इतने में, “सासू माँ ले लीजिए, बहू बड़े प्यार से लाई है। सचमुच बहू ने खोई लक्ष्मी को पुनः अपनी मेहनत से गृहलक्ष्मी बना दिया। सचमुच आज सोनी के कारण ही हम जीते-जी यह सब कुछ देख पाए।”
सासू माँ की खुशी उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
“कोई बात नहीं, वह भी तो आपकी बेटी है। अब शम्भू करे या सोनी, क्या फर्क पड़ता है, दोनों तो आप ही के बच्चे हैं!” पिता के मुख से यह आश्वासन भरे शब्द सुन एक तरफ शंभू को बहुत खुशी हुई, सास-ससुर को तसल्ली तो वहीं सोनी का सीना चौड़ा हो उठा। सभी की छलछलाई आँखों में मुस्कुराहट ने अपना कब्जा जमा लिया था…।