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चलो बारिश का आंनद लें

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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इस रिमझिम बारिश की हल्की फुहारों, हँसी-मज़ाक व खुशियों के माहौल में धीरे-धीरे आज फिर बादल छाए हुए हैं, और हवा के साथ घनघोर आँधी-तूफान का यह साथ देखकर लगता है कि शुभ बरसात का आगमन हो गया है। इस बीच रंगत शहर-दर-शहर देखते ही बनती है।
बारिश का मौसम है तो ज़रा भीगा जाए। इन बूँदों का वह सुखद अहसास ज़िन्दगी में लिया जाना अच्छा है, यह सोच लाला अपने दोस्त से कहता है-“भाई रविन्द्र बाबू, एक समय होता था, जब हम लोग छोटे थे, तो बारिश के मौसम में गली-मोहल्ले में अपनी नाव चला लेते थे। चाहे वह कागज की ही क्यों ना हो! उसके चलने से हम भी उसके पीछे-पीछे भागते और बारिश के आंनद में उमंगता का संचार कर लेते थे।”
“हाँ लाला, उस वक्त के एहसास रंग-बिरंगे ही हुआ करते थे। आज तो गड्ढों में पानी है, पर ना बचपन बचा है, और ना ही वह पहले जैसी मस्ती। आज सब बच्चे घरों में कैद होकर प्राकृतिक वातावरण व जमीन से दूर हो चुके हैं। तभी तो आज-कल के बच्चों से पूछो कि मिट्टी की सुगंध कैसी होती है, तो वह नहीं बता सकते हैं, जबकि पहली बारिश की बूँदों से उपजी मिट्टी की वह सौंधी-सौंधी महक कभी भी हमारे मन-मस्तिष्क से जुदा नहीं हो सकती है। तभी रविन्द्र बोलता है-“लाला भाई अब तो लोगों की पाँचों उंगलियाँ घी में और सिर तो आप समझ सकते हो ? वर्तमान में व्यक्ति सुखों की गंगा- जमुनी पोटली में बंध कर रह गया है। वह घरों की चारदीवारी में टेलीविजन, कम्प्यूटर व मोबाइल में ही सुखों की तलाश कर रहा है। वह खुशियों की बारिश उसी में ढूंढ रहा होता है। अरे यह भी कोई जीना है ? सुखों की चाहत में हम सभी वक्त के व्यूह में फंसे हुए हैं।
आसमान में घनघोर घटा छाई हुई है, बरसात के इस सुहाने मौसम में चलो अपन भी गरम-गरम पकौड़ी का स्वाद चख लें।

समय के इस रवैए से ऐसा लगता है कि बहुत मुश्किल बनी हुई है आज की नौजवान पीढ़ी की, जो बनावटी चीजों में रूचि रखती है और इसी लिए हम ख़ुशी, उमंग, उत्साह और आंनद भी किश्तों में लेते हैं, क्योंकि समय ने हमें आधुनिकता व पश्चिमी सभ्यता में उलझा रखा है। जब-जब मौसम का रुख़ बदलता है तो कुछ-ना-कुछ करने का मन तो होता ही है। आज इस बूँदाबांदी में भी हम अपनी महात्वाकांक्षाएं क्यों ढूंढ रहे हैं ? इसी कारण से तो खुशियाँ भी हाथों से फिसल रही है। बरसात का पानी गिर रहा हो या मूसलधार हो या फिर बूँदों से भरी खुशनुमा शाम, चाहे वह शोर पानी का हो या बूँदों के बीच-बीच में, मेंढकों की टर्र-टर्र वाली आवाज बहुत अलग होती है। वह पल भी रविन्द्र भैय्या, जब पपीहा भी गुंजायमान हो या फिर कोयल कुहू- कुहू की कूक से सभी को आंनद का रसपान करा रही हो। बहुत सुखद अनुभव होता है। वहीं भैय्या बरसात में मोरों का नाचना मानो प्रकृति खुशनुमा हो गई हो। अरे लाला भाई साहब, आपका चिंतन उत्कृष्ट है, वैचारिक भाव से पूर्ण है, पर मौसम के बदलते रुख़ में चलो हम भी बारिश का आंनद लेते हैं। चलो चौराहे पर चलकर ठेले में भुट्टा सेक रही राधा काकी से भुट्टा लेते हैं और फिर बातचीत भी वहीं करेंगे |