दिल्ली
**************************************
जन्मदिन (१८ अगस्त) विशेष…
गुलजार भारतीय गीतकार, कवि, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक तथा नाटककार हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से कागजों पर लफ्जों को एक नयी शक्ल, एक नयी जिन्दगी, एक नयी संवेदना एवं एक नयी जिजीविषा को रचते हुए न केवल भारत, बल्कि दुनिया के लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त की है। वे हिन्दी गीतों एवं संवादों के ऐसे राजकुमार हैं, जिन्होंने ८८ साल के होकर भी युवा-सी ताजगी के साथ श्रोताओं के दिलों पर राज किया है। उन्होंने बोलचाल की भाषा में शायरी करते हुए, गीत एवं संवाद लिखते हुए अपने सृजन से यौवन की दहलीज वालों के लिए प्रेम को जीवंतता दी है, तो जवानी पार कर चुके बुजुर्गों के लिए जीने का नया अंदाज देकर प्रभावित किया है। उनके गीतों में श्रृंगार रस, लेखनी में संवेदनाएं एवं आत्मा में अध्यात्म-रस बसा हुआ है। वे ऐसे गीतकार हैं, जिनके जीवन की चादर पर सकारात्मकता, संवेदना एवं प्रेम के रंग बिखरे हुए हैं। गुलजार दार्शनिक कवि-गीतकार हैं तो सनातन सत्य एवं जीवन मूल्यों को सहजता से उद्घाटित करने वाले जादूगर भी हैं।
सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ ‘गुलजार’ का जन्म १८ अगस्त को १९३६ में दीना (झेलम जिला, पंजाब) में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। देश के विभाजन के वक्त इनका परिवार पंजाब के अमृतसर में आकर बस गया, वहीं से गुलजार मुम्बई चले आए। मुम्बई आकर खाली समय में शौकिया तौर पर कविताएं लिखने लगे। इसके बाद गैरेज का काम छोड़ हिंदी सिनेमा के मशहूर निर्देशक बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में काम करने लगे।
अपनी सोच एवं कलम की जादूगरी से गुलजार सिनेमा की दुनिया और सिनेमा प्रेमियों के जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन गए हैं। गुनगुनाते गीतों एवं संवादों में जीवन एवं संवेदनशील किरदारों में अपना अक्स देखनेवाले दर्शक न गुलजार की फिल्मों को भूल सकते हैं, न ही गीतों को। वे प्रेम भरे गाने लिखते हैं तो भक्तिमय भी। ‘मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दे दई…’ सिनेमा की चमक-दमक में वे श्याम रंग की चाहत को भी उकेर देते हैं। पटकथा लिखते हैं तो ‘आनंद’, ‘आंधी’ और ‘मौसम’ की शक्ल में सामने आते हैं, जहां संवेदनाओं का ज्वार अपने चरम पर नजर आता है। टी.वी. धारावाहिक की बात होती है तो मिर्जा गालिब को जीवंत कर देते हैं। बच्चों के लिए लिखा तो ‘जंगल-जंगल बात चली है, पता चला है, चड्डी पहनकर फूल खिला है’, बच्चों की जिन्दगी का अहम हिस्सा बन गया।
गुलजार बंटवारे के दौर की हिंसा को सालों तक नहीं भूल पाए। अपनी आँखों के सामने उन्होंने सैकड़ों लोगों का कत्ल होते देखा था। कच्ची उम्र के जख्म जिंदगी भर नहीं जाते। गुलजार के अंदर भी यह पूरा हादसा किसी खतरनाक मंजर की तरह उबलता रहता है, सालता रहता है। तभी तो गुलजार लिखते हैं-‘आँखों को वीजा नहीं लगता, सपनों की सरहद होती नहीं, बंद आँखों से रोज मैं सरहद पार चला जाता हूँ।’ ‘माचिस’ फिल्म में उनका दर्द कुछ यूँ छलक आता है-‘छोड़ आए हम वो गलियाँ, छोड़ आए हम वो गलियाँ’, लेकिन गुलजार इसी दर्द से सिमटे भर नहीं रहे। वे कहते हैं, वक्त के साथ समझ में आया कि कम कहने में ज्यादा अर्थवत्ता है। ज्यादा कहने से अर्थ ही निस्तेज हो जाते हैं। इसलिए यही गुलजार जब मस्ती में आते हैं तो बखूबी लिख डालते हैं-‘गोली मार भेजे में, भेजा साला शोर करता है।’ यही गुलजार जब प्रेम कविता लिखते हैं-‘तुम्हारे गम की डली उठा कर, जुबां पर रख ली है देखो मैंने। वह कतरा-कतरा पिघल रही है, मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ।’
खूबसूरती एवं जीवन के रंगों को हम प्रतीकों में पहचानते आए हैं और प्रतीक देश-काल, समाज-संस्कृति, जीवन एवं सोच, राजनीतिक माहौल के साथ बदलते रहते हैं, लेकिन गुलजार जैसे प्रेम और सौन्दर्य के महान् गीतकार अपनी काबिलियत से जब नए रंग भरने लगता है तो जनमानस में व्याप्त खूबसूरती के पैमाने खुद-ब-खुद बदलने लगते हैं। गुलजार के पूरे जीवन में ये साफ नजर आता है कि समय के साथ वे खुद को बदलते रहे। दरअसल, गुलजार के जीवन के पन्नों पर टंके हैं जीवन के, जिजीविषा के, सृजन के, संघर्ष के मंजर। जो हर कोण एवं हर मोड़ से कुछ नया एवं विलक्षण करते रहे हैं। उनका हिंदी सिनेमा में करियर बतौर गीत लेखक एस.डी. बर्मन की फिल्म ‘बंधिनी’ से शुरू हुआ। साल १९६८ में उन्होंने फिल्म ‘आशीर्वाद’ का संवाद लेखन किया। इसके बाद उन्होंने कई बेहतरीन फिल्मों के गाने लिखे, जिसके लिए उन्हें हमेशा आलोचकों और दर्शकों की तारीफें मिली। उन्होंने हॉलीवुड फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ का गाना ‘जय हो’ लिखा। उन्हें इस फिल्म के ग्रैमी अवार्ड एवं सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है। उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण से भी नवाजा जा चुका है। गुलजार अनेक पुरस्कार और सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।
बतौर निर्देशक भी हिंदी सिनेमा में आपने अपना बहुत योगदान दिया हैं। उनकी प्रमुख फिल्में हैं-मेरे अपने, परिचय, कोशिश, अचानक, खुशबू, माचिस, हु तू तू। उन्होंने अपने निर्देशन में कई बेहतरीन फिल्में दर्शकों को दी हैं, जो भीड़ से हटकर होने के कारण दर्शकों द्वारा सराही गयी और दिलों में बस गयी है। ख्याति के ऊँचे शिखरों पर आरूढ़ गुलजार का जीवन प्रेरक, सहज एवं सादगीमय है। मुम्बई में रहने के बाद भी गुलजार तड़के ५ बजे उठ जाते हैं। कहते हैं सूर्य उन्हें जगाए, उससे पहले वे सूर्य को जगाना चाहते हैं। टीवी पर टेनिस और क्रिकेट का मैच आ रहा हो तो गुलजार कोई दूसरा काम नहीं करते। इन खासियतों के अलावा सार्वजनिक जीवन में गुलजार के व्यक्तित्व के २ अहम पहलू और भी हैं। शांत और सौम्य नजर आने वाले गुलजार हमेशा सफेद कपड़ों में ही दिखाई देते हैं, जिसने उन्हें एक स्वतंत्र पहचान दे दी है। गुलजार हम सबके चहेते हैं तो अपने गीतों के लिए, अपनी फिल्मों के लिए, अपनी शायरी और कविताओं के लिए। अपनी कहानियों के लिए एवं अपनी जिंदादिली के लिए।