पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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संसद देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था है, जिसे जनता के हितों की रक्षा और देश की प्रगति के लिए कार्य करना होता है। यह वह स्थान है, जहाँ नीति निर्माण और राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर चर्चा करके निर्णय लिए जाते हैं, परंतु पिछले कुछ वर्षों से संसद में होने वाले अमर्यादित आचरण, अशोभनीय भाषा एवं असंसदीय गतिविधियों ने देश की गरिमा को ठेस पहुँचाई है। देश की जनता बड़ी उम्मीदों के साथ मत देकर अपने प्रतिनिधियों को चुन कर विधान सभा और लोकसभा में भेजती है, कि हमारे प्रतिनिधि हमारी समस्याओं पर चर्चा करके उसका निदान करेंगें, परंतु जब वह उनका अभद्र व्यवहार टी.वी. या मोबाइल पर देखती है तो स्वयं को ठगा-सा महसूस करती है।
एक प्रभावशाली प्रतिनिधि के लिए यह आवश्यक है, कि वह उपलब्ध संसदीय अवसरों का उपयोग करने, साथी सांसदों के साथ सौहार्द्रपूर्ण व्यक्तिगत संबंध विकसित करने और भाषा पर नियंत्रण रखने की अपनी क्षमता को समझे। सांसदों को यह समझना चाहिए कि संसद में बोलना निश्चित रूप से सार्वजनिक रूप से बोलने से सर्वथा अलग है।
संसद में बोलने के लिए सटीक तथ्य और आँकड़े, रचनात्मक तर्क की शक्ति, कभी-कभार बुद्धिपूर्वक हास्य के साथ-साथ कटाक्ष जब संसदीय भाषण में उचित रूप से उपयोग किए जाते हैं, तो सदन के सदस्यों पर गहरा प्रभाव डालते हैं, परंतु आजकल लोकतंत्र के इन प्रहरियों में आम तौर से यह कमी महसूस की जा रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार बुद्धि और हास्य की शक्ति को परिभाषित करते हुए कहा था, “किसी भी व्यक्ति को बुद्धि और हास्य का उपयोग इस तरह से करना चाहिए कि वह आक्रामक न लगे एवं हास्य गुदगुदाने वाला होना चाहिए, क्रोध पैदा करने वाला नहीं… जिससे उन्हें ठेस न पहुँचे। मैं अपने प्रतिद्वंदी को अपना दुश्मन नहीं मानता और न ही चाहता हूँ, कि वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करें।”
यानी सदन में बोलते समय गरिमा का ध्यान ऱख कर उसको बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
दशकों से सदन में हास-परिहास व कटाक्ष होता रहा है, परंतु आवश्यकता इस बात की है कि ‘माननीयों’ को धैर्यपूर्वक शालीन भाषा में सहजता के साथ उत्तर देना चाहिए।
एक बार की बात है कि फखरुद्दीन अली अहमद (केंद्रीय मंत्री) संसद की कार्यवाही में भाग ले रहे थे, तब एक संसद सदस्य ने आक्षेप लगाते हुए कहा कि अहमद जी ने एक १८ वर्ष की लड़की के साथ निकाह किया है…। सदन में सन्नाटा छा गया था…. सबकी निगाहें श्री फखरुद्दीन पर टिकी हुईं थीं। वह खड़े होकर बोले, माननीय मंत्री जी बिल्कुल सच बात कह रहे हैं। मैंने २० वर्ष पहले १८ साल की लड़की के साथ शादी की थी, एक लंबे अंतराल के बाद…।
इससे पता चलता है कि स्वाभाविक और मानसिक रूप से सतर्क रह कर सदन में चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।
संसद में अपनी बात को प्रभावी ढंग से कहना भी एक कला होती है…। लम्बे-लम्बे, वाचाल बयान और चिल्ला-चिल्ला कर बोलने से काम ज्यादा देर नहीं चलता है। किसी विषय पर अपना गुस्सा या क्रोध जाहिर करने के समय शब्दों का चयन व दिमागी रचनात्मकता बहुत मायने रखती है।
पुराने समय में संसदीय कार्यवाही में सदस्य कूटनीतिक और अनौपचारिक तरीके से संवाद करते हुए एक-दूसरे के साथ संबंध स्थापित करते थे। वाक्यंशों को पकड़ कर हँसी-मजाक वाली बातचीत, कविता, अच्छे स्तर की छेड़छाड़ से आनंदमय वातावरण बन जाता था। राष्ट्रपति के अभिभाषण २०२३ के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काका हाथरसी की कविता को उद्धृत किया था,-
‘आगा-पीछा देख कर क्यों होते गमगीन
जैसी जिसकी भावना, वैसा दिखे सीन।’
संसद में बहस के दौरान व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप, अशोभनीय शब्दों का प्रयोग, दस्तावेजों को फाड़ना, हंगामा करना और माइक तोड़ने जैसी घटना दिनों-दिन बढती जा रही है।अब तो आपस में धक्कामुक्की में घायल होकर और अस्पताल भी माननीय पहुँचाये जाने लगे हैं।
गाँधी जी हमारी प्रेरणा के केंद्र हैं। उन्होंने १९२९ में ही कहा था कि “अनुशासन को न मानना सबसे बड़ी हिंसा है।” यह बात आज के परिप्रेक्ष्य में सबसे बेहद प्रासंगिक है, विशेष रूप से जब विधायिका और संसद के अंदर अनुशासनहीनता देखने को मिलती है। यदि यह अनुशासन नहीं होगा, तो पूरे देश में लोकतंत्र की संस्कृति बिगड़ेगी। यदि सदस्य स्वयं अनुशासित नहीं हैं, तो अध्यक्ष की कार्यवाही भी विवाद का मुद्दा बन जाती है। गाँधी जी की बात आज अक्षरश: सच साबित हो रही है।
आज सबको सोचने की आवश्यकता है, कि हर सांसद अपने देश के प्रति कैसे सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाए ? भविष्य हमारे सामने है, जिसे सभी को मिल कर गढ़ना होगा। हमारी प्राथमिकता आर्थिक समृद्धि होनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना देश की समस्याओं का समाधान संभव नहीं है।
देश की आर्थिक शक्ति को लेकर एक स्पष्ट दृष्टिकोण हर दल में होना चाहिए, चाहे सरकार कोई भी हो…। आर्थिक रूप से मजबूत बनना देश का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
आज भारत दुनिया में सबसे बड़े देश के रूप में खड़ा है। हमारी आबादी १४५ करोड़ पर है, क्षेत्रफल में हम सातवें क्रम पर हैं। यह संख्या किसी और देश की आबादी से कहीं अधिक है। इतने बड़े देश में हम किस तरह से आने वाले वर्षों में नौकरियाँ उत्पन्न करें, आर्थिक समृद्धि लाएँ, इस पर ध्यान देने की जरूरत है. ऐसे विषयों पर सभी दलों में आपसी सहमति होनी चाहिए।
अमर्यादित आचरण के दुष्प्रभाव
देखें तो जनता का विश्वास कम हो रहा है। जब संसद सदस्य अमर्यादित आचरण करते हैं तो यह संदेश जाता है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही तरह से नहीं कर रहे हैं। इस अमर्यादित आचरण के कारण संसद की कार्यवाही बाधित होती है, जिससे जनता के पैसे और संसाधनों की बर्बादी होती है।
इस प्रकार के व्यवहार से राजनीतिक माहौल में कटुता और गिरावट आती है। इस समस्या के समाधान के लिए कड़े कदम आवश्यक हैं, जिसमें सदस्यों को सख्ती से आचार संहिता का पालन करने के लिए बाध्य किया जाए, अमर्यादित आचरण करने वाले सदस्यों पर भारी अर्थ दंड और निलंबन जैसी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए और जनता को भी अपने जनप्रतिनिधियों पर निगरानी रखनी चाहिए। उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाते रहना चाहिए।
यह समझना होगा कि संसद देश का दर्पण है, उसके सदस्यों के आचरण से देश और सदन की गरिमा तय होती है। जन प्रतिनिधियों के अमर्यादित आचरण से न केवल देश शर्मसार होता है, वरन् लोकतंत्र की नींव भी कमजोर होती है। आवश्यकता है कि सदस्य अपनी जिम्मेदारियों को समझें और अनुशासन का पालन करें, ताकि संसद की गरिमा बनी रहे और देश प्रगति कर सके।