सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश)
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इक ‘ज़रा-सी देर ‘को हँसने-हँसाने के लिए।
मयकदे में आ गए हम ‘ग़म भुलाने के लिए।
क्या करूँगा ग़ैर के दरबार में जा कर भला,
तेरा दर काफ़ी है मुझको सर झुकाने के लिए।
आसमाँ छूने की यारों और भी तरक़ीब ‘है,
ऐड़ियों को क्या उठाना क़द ‘बढ़ाने के लिए।
तीर मारे संग फैंके फेर दी दिल पर छुरी,
अब रहा क्या ? और ज़ालिम आज़माने के लिए।
एक मुद्दत से अँधेरा है हमारी ‘ज़ीस्त में,
फिर से आ जाओ सनम दिल को जलाने के लिए।
हम कमर बस्ता हैं मेह़नत के लिए तो क्या हुआ,
लोग क्या-क्या करते हैं अब ज़र कमाने के लिए।
क्या ज़ुरूरी ‘हारना है कारज़ारे इश्क़ ‘में।
खेल अब खेलूँगा मैं भी जीत जाने के लिए।
हाथ ‘जोड़े,पाँव पकड़े मिन्नतें भी कीं ‘फ़राज़’,
हमने कब छोड़ी कसर उनको मनाने ‘के लिए॥