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मनुष्य जाति के लिए एक ही धर्म प्रतिस्थापित ‘मानव धर्म’

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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हिंदुस्तान में हिन्दू और हिन्दुत्व की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। आज पूरी दुनिया में भारत एक ऐसा देश है, जिसमें हिन्दू और हिन्दुत्व के ऊपर एक जंग-सी छिड़ गई है।सोशल हो या प्रिंट-इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या सामान्य जनवार्ता, राजनीतिक दल हो या फिर सामाजिक-धार्मिक संगठन। सभी की टिप्पणियां और मुहिम हिन्दू और हिन्दुत्व के पक्ष और विपक्ष में निरन्तर चलती रहती है।ऐसा नहीं है कि हिन्दू और हिन्दुत्व के विपक्ष में मात्र गैर हिन्दू समुदाय ही खड़े नजर आते हैं, बल्कि खुद को कट्टर हिन्दू कहने वाले लोग भी हिन्दू और हिन्दुत्व के खिलाफ मुक्त स्वर में बोलते हुए नजर आते हैं। खैर, विचारधारा अपनी-अपनी, पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं कि जो ये लोग हिन्दू और हिन्दुत्व के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं और जो पक्ष में आंदोलित लोग नजर आ रहे हैं; ये सभी असल में हिन्दू और हिन्दुत्व के अर्थ को जानते भी है या नहीं ! या फिर मात्र पक्ष के लिए पक्ष और विरोध के लिए विरोध करते रहते हैं। कहीं ये राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, संगठनात्मक विचारधारा से बंध कर तो यह सब करते हुए नजर नहीं आ रहे हैं ? कहीं ये सामाजिक सरोकारों को ठोकर मारकर अपने संगठनात्मक सरोकारों को साधने की कोशिश करते हुए तो ऐसी हरकत करने की जरूरत नहीं कर रहे हैं, जो समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
हमें हिन्दू शब्द के अर्थ को समझना जरूरी है। यूँ तो भारत में हिन्दू कहलाने वाले लोग स्वयं को सनातनी कहते हैं, जो सनातन धर्म की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा के धरातल पर खड़ी एक मानवीय सरोकारों की इमारत है, पर फिर भी अर्थ को समझना जरूरी है। यदि हिन्दू शब्द को भाषिक संरचना के आधार पर परिभाषित किया जाए तो हिन्दू शब्द ‘हिं + दू’ के मेल से बना है।इसमें ‘हिं’ का अर्थ हिंसा और ‘दू’ का अर्थ दूर होता है। अर्थात ऐसा व्यक्ति या समुदाय या समाज जो हिंसा से दूर रहता हो, वह हिन्दू है। हिंसा मानसिक या फिर कोई भी हो सकती है। इसी प्रकार अहिंसात्मक भावना से ओत-प्रोत मानस ही हिन्दुत्व है। इस सन्दर्भ में यह भी समझने की कोशिश करनी चाहिए कि सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है, वह चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो। वह हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या इसाई या फिर पारसी। जो सत्य और अहिंसा परमो धर्म का मार्ग नहीं अपनाता, वह हिन्दू धर्म का होकर भी हिन्दू नहीं है। वाल्मिकी और तुलसी कृत रामायण में महा पण्डित रावण को राक्षस और कविलाई समाज के नायक गुह को तथा पशु समुदाय यानी वानर तथा रीछ समुदाय के हनुमान, सुग्रीव, अंगद तथा जामवंत आदि को साधु व सज्जन सिद्ध करना इसी हिंदूवादी सोच का उदाहरण है।शबरी जैसी निम्न जाति की वृद्ध औरत के जूठे बेर प्रभु राम द्वारा खाना तथा केवट जैसे सामान्य जन के गले लगना आदि सभी प्रमाण हिंदूवादी सोच को पुष्ट करते हैं। न जाने कितने-कितने प्रमाण कई शास्त्रों में भरे पड़े हैं, पर आज ये बात किसी को न ही सुननी है, न ही समझनी है। आज तो बस एक ही भूत सबके सिर पर सवार है कि मैं हिन्दू माता-पिता की संतान हूँ तो मैं हिन्दू हूँ।
फिर इस मुद्दे पर इतनी जुबानी जंग क्यों ? विशेष तौर पर इस मुद्दे पर तो इतना-सा ही कहना है कि वह चाहे किसी भी दल या विचारधारा से जुड़ा हुआ व्यक्ति क्यों न हो।यदि वह किसी जीव की बलि चढ़ाता है, मांस खाता है, मदिरा पीता है, नशा करता है, अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर के दूसरे के मन को ठेस पहुंचाता है, भ्रष्टाचार, अनाचार, कोई अन्य असामाजिक कृत्य करता है तो वह हिन्दू हो ही नहीं सकता।
आज जातिवाद के नाम पर हिन्दू धर्म को मानने वाले वर्गों में ही संघर्ष है। इधर जातिगत आधार पर आरक्षण पाने वाले समुदायों के लोग अपना आरक्षण छोड़ने को किसी भी हद तक मंजूर नहीं है। ऐसे में भारतीय समाज से जातिगत भावना को दूर किए बिना संपूर्ण हिंदुत्व को प्रतिस्थापित करना कहीं से भी संभव होता हुआ नजर नहीं आता।
आजादी के ७५ वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और छुआछूत उतना ही मजबूत और दृढ़ है, जितना स्वतंत्रता से पहले था। इसमें जातियों का आपस में एकसाथ उठना बैठना और एक-दूसरे के साथ मिलकर के खाना-पीना तथा आपस में अपने बेटे-बेटियों के रिश्ते तय करना लगभग शुरू हो चुका है, जो सामाजिक उत्थान की दिशा में अच्छा कदम है, परंतु दूसरी ओर आरक्षण का लाभ लेने वाले निम्न वर्गीय कहलाने वाली जातियों के लोग आपस में करते हुए नजर नहीं आते।सबसे पहले हिंदू और हिंदूवादी संगठनों को भारत से इस जातिवाद के भूत को बाहर फेंकना होगा।
रही बात धर्मवाद की तो उसमें तो भारत में असंख्य चुनौतियां हैं। यह ठीक है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, परंतु फिर भी हिंदुत्व की भावना सभी धर्मों से ऊपर उठकर धर्मनिरपेक्ष ही है।
उपरोक्त सभी कारण इस बात की पुष्टि करते हैं कि कुछ लोग मात्र विरोध के लिए विरोध और मात्र पक्ष के लिए पक्ष करते हुए नजर आते हैं, जबकि उन्हें हिंदू और हिंदुत्व की सही-सही समझ है ही नहीं।
आज भारत के लिए सचमुच एक बहुत बड़ी विडंबना है कि जिन पूर्वजों ने हिंदुत्व की भावना को पुष्ट करने के लिए अपनी अस्थियां तक गला दी, उनको आज यह कहकर श्रद्धांजलि दी जा रही है कि हमने हिंदुस्तान में हिंदू बहुल क्षेत्र में हिंदुत्व को परास्त कर दिया है। शारीरिक संरचना के आधार पर देखें तो समूचे विश्व के लोग एक जैसी संरचना के आधार पर बने हुए हैं। उनके रंग जरूर अलग-अलग हो सकते हैं परंतु शरीर की बनावट एक जैसी है। उनके जन्मने और मरने का तरीका एक जैसा है।भले ही अंत्येष्टि की क्रिया अलग-अलग हो। उनके रक्त का रंग सबका एक जैसा है, भले ही उनके समूह अलग-अलग हों। इस आधार पर अगर धर्म को परिभाषित करने की कोशिश करें तो कहना न होगा कि कुदरत ने मनुष्य जाति के लिए धरती पर एक ही धर्म प्रतिस्थापित किया है जिसका नाम है मानव धर्म। संरचनात्मक ढांचे के अनुसार कुदरत ने जातियां भी २ ही बनाई हैं, जिनका नाम है नर और नारी। फिर ये बाकी के विवाद क्यों और किसलिए ? संसार को सुंदर बनाने के लिए और अधिक सुखदाई बनाने के लिए हमें अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके दूसरे की सुख-शांति में कभी बाधा नहीं पहुंचानी चाहिए। यही हिंदुत्व का मूल मंत्र है, पर न जाने आज समाज के हर बुद्धिजीवी वर्ग और हर प्रतिष्ठित व्यक्ति को कौन सा नशा लग गया है कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला दे रहे हैं और जनमानस के एक बड़े भाग की भावना को अपनी आर्थिक समृद्धि या सांस्कृतिक उठापटक के चलते आहत कर रहे हैं।
हर नेता-अभिनेता को बड़ी जिम्मेवारी के साथ अपना बयान देना चाहिए। हिंदुस्तान में हिंदुत्व की भावना को हराने की बात करना अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। इसका सीधा सा अर्थ है हिंदुस्तान में अहिंसात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देना और असामाजिक व्यवस्थाओं को बढ़ावा देना।
यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि धीरे- धीरे देश के लोगों की मानसिक भावनाएं व संवेदनाएं निरन्तर पतन की ओर जा रही है। ‘निर्भया’ के दौर का जन भाव आज श्रद्धा के मामले तक फीका पड़ गया। ऐसा नहीं है कि सब कुछ खत्म ही हो गया है, पर यह सत्य है कि लोग व्यवस्था की चक्की में पिस कर ज्यादा चिकने हो गए हैं।

हाल ही में विवादों में घिरी ‘पठान’ फिल्म के गाने को ही ले लो। एक पक्ष उसे ठीक ठहरा रहा है और दूसरा गलत, जबकि दोनों पक्षों में वाद-विवाद करने वाले अधिकतर हिन्दू ही हैं।असलियत तो यह है कि इस तरह के अश्लील चलचित्रों को प्रदर्शित करने से रोकने के लिए तो सभी धर्मों के लोगों को एकजुट हो कर सामने आना चाहिए। यह पाश्विकता न ही तो हिन्दू धर्म वालों की सामाजिकता के लिए ठीक है, न ही तो मुस्लिम धर्म के लोगों की सामाजिकता के लिए। किसी भी धर्म की सामाजिकता के लिए ऐसी पाश्विकता बिल्कुल भी सुसभ्य नहीं है।

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