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मातृभाषा में शिक्षा के बड़े लाभ

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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नई शिक्षा नीति…

स्थानीय से वैश्विक की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए नौनिहालों को आँगनवाड़ी से मातृभाषा में शिक्षित और दीक्षित करने की पहल नई शिक्षा नीति में की गई है. इसे लेकर अभी लोगों के मन में अनेक तरह की दुष्चिंताओं के साथ-साथ लोगों का यह भी विचार है, कि इससे बच्चों को मातृभाषा से जोड़ने से उनको मजबूती ही मिलेगी।
नई शिक्षा नीति में शालेय पाठ्यक्रम के १०+२ वर्णमाला के स्थान पर ५+३+३+४ का नया पाठ्यक्रम लागू किया गया है, जिसमें मातृभाषा और स्थानीय भाषा को प्रमुखता दी गई है। सरकार ने पाँचवीं कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम बनाए रखने की योजना बनाई है। इसे कक्षा ८ तक आगे बढ़ाया जा सकता है।
जब मातृभाषा की बात आती है तो भारतेंदु हरिश्चंद्र का कथन “निज भाषा उन्नति अहै…” कोई कैसे भूल सकता है। गाँधी जी ने भी वही बात दोहराई थी कि हमें अपनी भाषा को चमकाना चाहिए। हर भारतीय को अपनी भाषा का हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का ज्ञान देना चाहिए और साथ में हिंदी के ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए।
🔹कक्षा स्तर के लिए मातृभाषा-
स्थानीय भाषा का प्रयोग जोर- शोर से किया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य बच्चों को अपनी मातृभाषा और संस्कृति से जोड़ना है, ताकि उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाया जा सके। अपनी मातृ भाषा या स्थानीय भाषा में बच्चे के लिए पढ़ना और सीखना आसान होगा एवं वह जल्दी चीजों को सीख और समझ सकेगें। छोटे बच्चे घर में बोलने वाली मातृभाषा या स्थानीय भाषा में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हैं। यदि विद्यालय में भी मातृभाषा का प्रयोग होगा, तो वह जल्दी सीख पाएंगें और उनका ज्ञान विकसित होगा।
🔹स्थानीय भाषा से लुप्त प्राय को नया जीवन-
विश्व के सभी विकसित देशों ने अपनी मातृभाषा को सर्वोच्च महत्व दिया है और उसी को देश की शिक्षा का माध्यम बनाया। रूस, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस ने अपनी मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया, परंतु भारत में अँग्रेजी को बनाए रखने के लिए स्थानीय भाषा का महत्व कम हो गया। अँग्रेजी सीखना ठीक है, लेकिन उसे मातृभाषा से ऊपर रखना सही नहीं है। नई नीति में इस कमी को दूर करने का प्रयास किया गया है।
भारत में भाषाई समस्या समय के साथ बहुत जटिल होती जा रही है। संविधान सभा में भी इस पर होने वाली बहस का कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया। अब तो भारत की मुख्य धारा के विचारों में भाषा का विचार पूरी तरह से लुप्त हो ही गया है। राजनीति और संविधान के घोषित पन्नों में भी इस पर कोई स्थान नहीं है, जिस प्रकार का स्पष्ट विचार विमर्श और और भविष्योन्मुख प्रयास होने चाहिए थे, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ, कि अधिकांश रोजगार के अवसर अँग्रेजी में ही होने के कारण माता- पिता ने अपने बच्चों को अँग्रेजी स्कूलों में ही पढ़ाना जरूरी समझा, परंतु विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने पर बच्चों के मस्तिष्क पर जो अनावश्यक भार पड़ता है, वह असाध्य होता है। यह वजन हमारे बच्चे उठा तो लेते हैं, लेकिन कीमत पालकों को चुकानी पड़ती है। हमारे स्नातक अधिकतर निरुत्साही और कोरे नकलची बन कर रह जाते हैं। उनकी खोजने की शक्ति, विचार करने की शक्ति और दूसरे गुण दब कर रह जाते हैं।
जापान में मातृभाषा में शिक्षा के कारण जनजीवन में विकास हिलोरे ले रहा है। सारी दुनिया की आँखें जापान के विकास को देख कर चौंधिया उठीं हैं।
भारत में ज्ञान-विज्ञान और रोजगार के अवसरों को लुभाने के लिए एक विशेष भाषा को आवश्यक बना लिया गया है। यही कारण है युवाओं में मौलिकता के स्थान पर नकल करके भारत का समाज मनोविज्ञान की धारणा से बीमार होकर अपने ही असंख्य प्रतिभाशाली युवाओं को पंगु बना देने वाला आत्मघाती समाज बन गया है। परिणाम यह है कि देश के ३-४ प्रतिशत अँग्रेजीभाषी लोगों ने भारत की ९६-९७ प्रतिशत जनता पर हर तरह से एक अन्यायपूर्वक बढत बनाई हुई है।
इंग्लिश या दुनिया की दूसरी भाषाएं अच्छी हैं, सीखना भी अच्छा है, परंतु उसका आधार बनाने के कारण एक निराशाजनक माहौल भारत के युवाओं को अराजकता की ओर ले जा रहा है।
सच तो यह है, कि यहाँ का युवा न ठीक से अपनी भाषा सीख सकता है, न ही अँग्रेजी ही। मूल बात तो यह है कि मौलिकता के स्थान पर नकल करने वाला समाज तैयार हो रहा है।
नई नीति के अनुसार पूर्व-प्राथमिक से पाँचवीं तक मातृभाषा या घर की भाषा में बच्चों की शिक्षा का माध्यम हो, क्योंकि छोटे बच्चे मातृभाषा या बोलचाल की भाषा में जल्दी समझते हैं और इससे उनकी समझ अच्छी विकसित होती है।
दूसरी भाषा आर २ को महज मौखिक रूप से बच्चों को परिचित कराना है। बोर्ड के अनुसार इस मॉड्यूल से बच्चों में बौद्धिक और भाषाई क्षमता बेहतर तरीके से विकसित करने में सहायता मिलेगी।
व्यवहारिकता का ध्यान रखते हुए जहाँ मातृभाषा का प्रयोग संभव ना हो, या फिर भाषाई विविधता हो, वहाँ राज्य विशेष की आधिकारिक भाषा को आर १ के रूप में अपनाया जा सकता है। बोर्ड ने प्रारंभिक चरण में तीसरी से पाँचवीं तक देखें तो ११ वर्ष तक में आर १ को ही पढ़ाई का माध्यम बनाए रखने को कहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार शिक्षा नीति का ये कदम बच्चों को उनकी जड़ों से जोड़ेगा। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद बच्चों में आत्मविश्वास, सकारात्मकता और रचनात्मकता का समावेश हो जाएगा। यद्यपि, हमारा देश भाषाई विविधता वाला है और बोलियाँ भी अनेक है, इसलिए क्रियान्वयन में कठिनाई आ सकती है।
नई नीति में नए भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ विश्वविद्यालयों में चिकित्सा और अभियांत्रिकी जैसे तकनीकी विषयों को भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पढ़ाना शुरू किया गया है। पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं के अनुरूप मातृभाषा या अन्य स्थानीय भाषाओं में सामग्री उपलब्ध कराना चुनौती होगी, किंतु संकल्प से उसमें भी सफलता मिलेगी।
मातृभाषा में वह शक्ति है, जिसके सहारे बालक नैसर्गिक रूप सो ज्ञानात्मक और विकासात्मक अवस्थाओं तक आसानी से पहुँच सकता है। विभिन्न देशों में उनकी शिक्षा व्यवस्था, उनका व्यवहार उनकी अपनी भाषा में ही होता है।
नई नीति में भी यह प्रावधान किया गया है, कि हम सभी अपनी मातृभाषाओं के व्यवहार में सम्मान महसूस करें।

देशी-विदेशी सभी भाषाओं में ज्ञान का भंडार है। उन्हें सीखने में कोई बुराई नहीं है, परंतु पहला सम्मान अपनी मातृभूमि और मातृभाषा के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में बालक की सहज प्रकृति का निर्माण करने की क्षमता है, यह समरसता का सेतु है।