डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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कोहं से सोहं तक-भाग २…
हिन्दू धर्म में इस प्रथम रुदन को बहुत अद्भुत माना गया है। अर्थात इसका कारण है, उसके चारों ओर छाया हुआ अध्यात्म का तेजोमण्डल! अब इस अद्भुत संकल्पना को जानने का प्रयत्न करेंगे।
नवजात शिशु अपने रुदन द्वारा एक मूलभूत प्रश्न पूछता रहता है- ‘कोहं’ अर्थात “मैं कौन ?” ऐसा क्यों ? जिस बालक का मन अत्यंत निर्मल है, जिसे जगत में प्रचलित पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, यहाँ तक कि, किसी भी अमंगल चीज़ का तनिक भी स्पर्श हुआ नहीं है, वही निष्पाप शिशु ऐसा प्रश्न पूछ सकता है। थोड़ी समझ आने के उपरांत भी उसकी उत्सुकता उसे शांत बैठने नहीं देती, उसके प्रश्न अत्यंत विचारणीय होते हैं। (हर अभिभावक (माता-पिता) को थोड़े-बहुत संकट में डालने वाले ये प्रश्न अगर अतिथिगण के सामने पूछे जाएँ, तब यह संकट और भी गहरा हो जाता है।) अगर उदाहरण ही देना हो तो “मैं यहाँ कहाँ से/कैसे आया ? या फिर माता-पिता के विवाह का एल्बम देख कर “मैं यहाँ एक भी फोटो में क्यों नहीं हूँ ?” वग़ैराह, वग़ैरह।
परिहास को छोड़ें, तो इससे एक ही चीज़ समझ में आती है, अपनी उत्पत्ति कहाँ से हुई, इस विषय के बारे में इस बालक की प्रगाढ़ जिज्ञासा!, परन्तु आगे चलकर ये प्रश्न या तो अनुत्तरित रहते हैं या उनसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न मनुष्य को जकड लेते हैं। या यूँ समझिए ऐसे कोई प्रश्न हमारे मन में पहले कभी उपजे थे, यही हम लोग भूल जाते हैं। अज्ञान की परतें एक के ऊपर एक करते हुए चढ़ते जाती हैं। माता, पिता, पत्नी, रिश्तेदार, मित्रमंडली, समाज, परिस्थिति जैसे अनेक घटकों का प्रभाव भी हमारे मत प्रवाह की दिशा-दर्शाने का कारण बन जाता है। जो जीवन-प्रवाह कोहं (मैं कौन ?) से सोहं (मैं वहीं!) इस तरह होने की अपेक्षा थी, वह अचानक रुक जाता है। जिस तरह वायु किसी पुष्प में से धीरे से उसकी महक निचोड़ लेती है, ठीक उसी तरह अपने प्राण-पखेरू भी शरीर के पिंजरे से बाहर निकल कर उड़ जाते हैं। फिर तो बस बाकी रह जाती है निष्प्राण काया! सोहं की खोज में फिर जन्म-मृत्यु के फेरे का आरम्भ होता है।
ऐसे ही कुछ प्रेरणादायी विचार देखिए और ‘मैं ही’ किस प्रकार स्वयं-प्रकाशमान, स्वयंपूर्ण और सब कुछ है, इस बात पर आपको विश्वास होगा।
अद्वैतवाद के प्रणेता आदि शंकराचार्य कहते हैं “तत् त्वं असि”, अर्थात तुम वहीं हो, यानी तुम ही साक्षात् ईश्वर हो! उपनिषद में कहा गया है “अयम् आत्मा ब्रह्म” अर्थात मैं ही ब्रह्म और “अहं ब्रह्मास्मि” का अर्थ भी मैं ही ब्रह्म! हम अगर इस बात को गहराई तक जान लें, तब अपनी आत्मशक्ति कितनी विशाल है, इसका आभास हमें हो जाएगा। मित्रों, अगर इसी जन्म में “मैं ही वह सर्वशक्तिमान” यह समझ में आ जाए, तब मेरे लिए इस जगत में कुछ भी असंभव नहीं, यह अदम्य आत्मविश्वास निर्माण होगा।
जाते-जाते हनुमान द्वारा सीता की खोज से सम्बंधित कथा का स्मरण हुआ। सीता की तलाश करने हेतु समुद्र लांघना आवश्यक था। दक्षिण दिशा में भेजी गई समग्र वानर सेना समुद्र किनारे इकट्ठी हुई थी। इनमें परम शक्ति का वरदान केवल हनुमान को ही था। उसमें सौ योजन उड़ान भरने की शक्ति थी, परन्तु हनुमंत को बालकपन का एक शाप था। इस शक्ति के प्रति किसी के द्वारा उसे जागरूक करना आवश्यक था। अन्यथा वह इस शक्ति का उपयोग कर नहीं सकता था! उस समय अत्यंत बुद्धिमान और अनुभवी जामवंत ने हनुमान की प्रशंसा की तथा उसे उसकी अपार ऊर्जा, पराक्रम और शक्ति से अवगत कराया। फिर स्वयं:शक्ति को जानने के बाद हनुमान ने अपने बलबूते पर समुद्र को पार किया और सीता की खोज की। नियोजित समय के चलते वह सकुशल वापस लौटा, यह सब जानते हैं।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं- “तुममें ही सारी शक्ति है, तुम कुछ भी और सब कुछ कर सकते हो! मित्रों, हमें भी कई बार ऐसा अनुभव होता है। हम किसी से यह कहते हैं “तुम सिर्फ कहो लड़ने के लिए, फिर देखना मैं क्या-क्या कर सकता हूँ!” यहाँ ‘तुम’ कोई भी हो सकता है, माता, पिता, पत्नी, मित्र, गुरु इत्यादि, परन्तु कोहं से सोहं की निर्मल आध्यात्मिक यात्रा इसी जन्म में सफल तथा संपूर्ण रूप से करनी हो तो मैं कहूँगी-“किसी और ने मुझे यह बताने की आवश्यकता ही नहीं है, बस मुझे ही अपने-आपसे स्वाभिमान तथा संपूर्ण आत्मविश्वास से भर कर यह कहना होगा-अहं ब्रह्मास्मि!”
प्रिय मित्रों,आइए इस आत्म-ऊर्जा के ज्योतिर्मय प्रकाश में आत्मानंद की अनुभूति करें!
(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)