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यह मनोरंजक हास्य नहीं, मानसिक दिवालियापन…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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कहते हैं, “मनोरंजन समाज का आईना होता है”, लेकिन अगर आईना ही धुंधला हो जाए, तो सच को कैसे देखा जाए ? हाल ही में ‘इंडिया गॉट लेटेन्ट’ जैसे शो में एक प्रसिद्ध यूट्यूबर ने अभद्रता, गालियों और अश्लीलता की सारी सीमाएं लांघ दीं। मंच पर खुलेआम माँ-बाप के अन्तरंग संबंधों से लेकर नग्नता, व्यस्क जोक्स और स्तर हीन हास्य परोसा गया, और दर्शकों ने ठहाकों के साथ इसे सिर-आँखों पर बिठा लिया। यह वही यू-ट्यूबर और प्रभावक (इन्फ़्लुएन्सर) है, जो एक तरफ़ स्वयं को देश की संस्कृति संस्कार, आध्यात्म के ज्ञान का प्रचारक बताता है… प्रधानमंत्री से ‘एचीवर अवार्ड’ प्राप्त करता है…।
मनोरंजन के नाम पर यह नया नवउदारीकरण है-जहाँ न संस्कार बचे हैं, न भाषा की मर्यादा, और न ही किसी प्रकार की सामाजिक ज़िम्मेदारी। स्टैंड-अप कॉमेडी, रियलिटी शो और ओपन माइक के नाम पर सार्वजनिक मंच अब गालीबाजों का अड्डा बन चुके हैं। पहले हास्य बुद्धि का प्रतीक हुआ करता था, अब अश्लीलता का। जो जितनी गंदी भाषा बोले, वह उतना ही ‘सुपरहिट कॉमेडियन’ कहलाता है। रोस्ट शो पर पहले भी कई तीसरे पृष्ठ की हस्तियाँ अपनी विकृत मानसिकता को खुले मंच पर दिखा चुकी हैं…।
विडम्बना यह है कि इस भद्देपन में दर्शक भी पूरी सक्रियता से भागीदार बनते हैं। अपने-आपको उत्तर आधुनिक काल की खुली पीढ़ी का तमगा लगाए ये लोग कहते फिरेंगे.. “भैया, इसमें गलत क्या है ? अब यही तो ट्रेंड है!”-यह वही तर्क है, जो सड़कों पर गड्ढे देखकर दिया जाता है-“सब चलता है!”, लेकिन यह वाला रवैया ही हमें एक ऐसे समाज की ओर धकेल रहा है, जहाँ हँसी का स्तर गटर में बह चुका है।
मनोरंजन अब तर्क, विचार और व्यंग्य से नहीं, भेजे को गोली से नहीं;गालियों से तला जा रहा है…। पहले नयनों से तीर चलने तक सीमित थे, अब जुबान से गालियाँ चलायी जा रही हैं..। जिन शब्दों को कभी सार्वजनिक रूप से कहना भी अपराध समझा जाता था, वे अब ठहाकों की गूँज में जायज बना दिए गए हैं। सवाल यह है कि यह हास्य है या मानसिक दिवालियापन…?
आजकल रियलिटी-शो और स्टैंड-अप मंच एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं-“कौन सबसे ज्यादा भौंडा और फूहड़ बन सकता है ?” अफसोस कि इस दौड़ में जीत उन्हीं की हो रही है, जो भाषा और संस्कृति को सबसे निचले स्तर तक गिरा रहे हैं। क्या यही वह ‘न्यू इंडिया’ है, जिसे हम बनाना चाहते हैं ?
समाज को तय करना होगा कि वह हँसी के नाम पर गंदगी को अपना मनोरंजन मानता रहेगा, या किसी स्तर पर “बस, अब और नहीं!” कहेगा। वरना, जिस मनोरंजन को हमने अपना आईना बनाया है, वह हमें धीरे-धीरे नैतिक रूप से नंगा कर देगा।