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रचना का हस्ताक्षर

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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साहित्य के क्षेत्र में किसी भी रचना का हस्ताक्षर लेखक के दस्तखत न होकर उसके द्दवारा लिखी गई प्रस्तावना या भूमिका होती है। आजकल प्रस्तावना या भूमिका शीर्षक से अभिहित न होकर नए स्वरुप में शीर्षक रचते हैं। लेखक द्वारा रचना प्रकाशन के समय प्रस्तावना व भूमिका लिखने से रचना को प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है। समीक्षक के लिए लेखक के व्यक्तित्व को परखने और रचना की समीक्षा की दिशा निर्धारण में सहायक तत्व के रूप में अवतरित होती है। पाठक के लिए भी आसान हो जाता है लेखक के स्वभाव व रचना के उद्देश्य को समझना। प्रस्तावित और भूमिका से लेखक के लेखन प्रक्रिया संबंधी तथ्यों व रचना में प्रचलित विषय-वस्तु या भाषा शैली संबंधी तथ्यों की रूपरेखा का विवेचन व विश्लेषण करने के लिए संसाधन के रुप में प्रयोग का अवसर भी आलोचक को प्राप्त होता है। इसके महत्व को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है-
हिंदी साहित्य में प्रथम याथार्थवादी उपन्यास का बीजारोपण लाला श्रीनिवासदास ने ‘परीक्षा गुरु’ से २५ नवबंर १८८५ को किया। तत्कालीन लेखक ऐतिहासिक,सामाजिक, तिलस्म-ऐयारी,जासूसी व रोमानी रचने में व्यस्त थे,जबकि श्रीनिवासदास व्यक्ति व समाज के आंतरिक-बाह्य संघर्ष व समस्या को चरितार्थ करने में प्रयासरत थे। उनका यह उपन्यास भाषा शैली में पारंपरिक शैली को तज नई भाषा विविधता का आवरण ओढ़ कर प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास आधुनिकता के क़रीब नवीनता के साथ उपस्थित हुआ था। श्रीनिवासदास का हिंदी,उर्दू,अंग्रेज़ी,संस्कृत व फ़ारसी पर समान अधिकार था। इस उपन्यास की भाषा में इन समस्त भाषाओं के शब्दों का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। सामाजिक सुधार को महत्व देने के कारण यह उपन्यास अपनी सोद्देश्यता पर खरा उतरता है।
इस उपन्यास ने अपने समय की प्रचलित विषय-वस्तु त्यागकर,नई विषय-वस्तु को ग्रहण करने के कारण श्रीनिवासदास को भूमिका में स्पष्टीकरण व आग्रह करना पड़ा, ‘अब तक नागरी और उर्दू भाषा में अनेक तरह की अच्छी-अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं,परंतु मेरे जान इस रीति से कोई नहीं लिखी गई। इसलिए अपनी भाषा में यह नई ताल की पुस्तक होगी,परन्तु नई चाल होने से ही कोई चीज़ अच्छी नहीं हो सकती, बल्कि साधारण रीति से तो नई चाल में तरह,तरक़्क़ी भूल होने की संभावना रहती है और मुझको अपनी मंद बुद्धि से और भी अधिक भूल होने का भरोसा है। इसलिए मैं अपनी अनेक तरह की भूलों से क्षमा मिलने का आधार केवल सज्जनों की कृपा दृष्टि पर रखता हूँ।’
पेशे से महाजन व व्यापारी लेखक श्रीनिवासदास द्वारा रचित उक्त वक्तव्य उनकी आत्मशक्ति व आत्म-निरीक्षण का परिचायक है।समय के अनुरूप विशेष परिवर्तन व रचना के महत्व को दर्शाने का एकमात्र हस्ताक्षर है-प्रस्तावना या भूमिका।

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