दिल्ली
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दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी विरोध की राजनीति अब महाराष्ट्र में भी उग्र से उग्रत्तर हो गई, इसी कारण त्रिभाषा नीति को महाराष्ट्र में लगा झटका दुखद और अफसोसजनक है। आखिरकार राजनीतिक दबाव, लम्बी रस्साकशी और कशमकश के बाद महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई से जुड़े मुद्दे पर अपने कदम पीछे खींच लिए। केंद्र सरकार की नीति के तहत महाराष्ट्र के विद्यालयों में पहली कक्षा से हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना था। राजनीतिक आग्रहों एवं दुराग्रहों के चलते अब ऐसा नहीं हो पाएगा। मतलब, महाराष्ट्र को तीसरी भाषा के रूप में भी हिंदी मंजूर नहीं है। महाराष्ट्र में हिंदी का संकट वास्तव में एक गहरे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का हिस्सा है। यह केवल भाषाई नहीं, बल्कि अस्मिता, पहचान और सह-अस्तित्व से जुड़ा हुआ है, जबकि भाषा को संघर्ष का नहीं, सेतु का माध्यम बनाना चाहिए, क्योंकि जब मराठी और हिंदी एक-दूसरे की सहयोगी बनेंगी, तभी महाराष्ट्र और भारत दोनों का भविष्य उज्ज्वल होगा तथा महाराष्ट्र राष्ट्रीयता से जुड़ते हुए समग्र विकास की ओर अग्रसर हो सकेगा।
हिन्दी को हथियार बनाकर उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने मराठी समर्थक राजनीति को इस तरह से गरमा दिया था कि सरकारी प्रयासों के हाथ-पाँव फूलने लगे और अपने फैसलों पर पुनर्विचार करना पड़ा। ठाकरे बंधुओं का हिन्दी विरोधी आंदोलन दिनों-दिन उग्र होता जा रहा था। यह सच है कि हर राज्य के लिए भाषा की राजनीति मायने रखती है और कोई भी दल स्थानीय स्तर पर अपनी क्षेत्रीय भाषा से मुँह नहीं मोड़ सकता। यह सर्वविदित है कि महाराष्ट्र में पूर्व में एक समिति ने जब हिंदी पढ़ाने की सिफारिश की थी, तब उद्धव ठाकरे ही राज्य के मुख्यमंत्री थे। तब हिंदी का मामला बड़ा नहीं था, पर आज जब उद्धव ठाकरे विपक्ष में हैं, तब यही मुद्दा सबसे अहम हो गया है। शायद यह शर्म की बात है कि जिस राज्य की राजधानी में पूरा हिंदी फिल्म उद्योग बसता है, समूचे देश की आर्थिक राजधानी होने का गौरव जिसे मिला हुआ है, जहां समूचे देश के लोग बसे हैं, जिसे सांझा-संस्कृति का गौरव प्राप्त है, उस राज्य की राजनीति अब हिंदी से परहेज करती दिख रही है। आज उद्धव ठाकरे बोल रहे हैं कि देवेंद्र फडणवीस सरकार मराठी मानुष की शक्ति से हार गई, पर वे इस बात को छिपा रहे हैं कि हारी सरकार नहीं, बल्कि राष्ट्र-भाषा हिंदी हारी है, जिसने मुम्बई को सपनों का शहर बनाए रखा है।
भारत विविधताओं का देश है, यहाँ भाषाएं न केवल संवाद का माध्यम हैं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी हैं, परंतु जब भाषाएं टकराव का विषय बन जाएं, तो यह बल्कि एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दा बन जाता है। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में है, जहां हिंदी को लेकर एक अनकहा-अनचाहा-सा संघर्ष चल रहा है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा केवल एक भाषा नहीं, बल्कि मराठी अस्मिता का प्रतीक है। कई मराठी संगठनों और राजनीतिक दलों का यह मानना है कि हिंदी भाषा का बढ़ता वर्चस्व मराठी संस्कृति के लिए खतरा बन सकता है।
फडणवीस सरकार की ताजा घोषणा यह दर्शा रही है कि हिंदी का मुद्दा राज्य में विपक्षी दलों के हाथों का एक ताकतवर राजनीतिक हथियार बनता जा रहा था, क्योंकि शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के शुरूआती दौर में पार्टी खास तौर पर हिंदीभाषियों के विरोध के लिए जानी जाती थी। हालांकि, बाद के दौर में खासकर नब्बे के दशक से भाजपा के गठबंधन में शिवसेना की राजनीति भी हिंदी से हिंदू की ओर मुड़ती गई। ऐसे में निश्चित ही मराठा राजनीति से हिन्दी विरोध की उम्मीद नहीं थी। अब तक तमिलनाडु को ही हिंदी विरोध के लिए जाना जाता था, पर इधर तीखे हिंदी विरोध में कर्नाटक के साथ ही, महाराष्ट्र भी शामिल हो गया है। दुनिया की सर्वाधिक तीसरी बोली जाने वाली हिन्दी भाषा अपने ही देश में उपेक्षा एवं राजनीति की शिकार है। अब केन्द्र सरकार के साथ-साथ हिंदी समाज को ज्यादा सजग होना पड़ेगा। हिन्दी भाषी प्रांतों को अपनी राजनीतिक व आर्थिक शक्ति को इतना बल देना पड़ेगा कि कम से कम तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अहिंदीभाषी राज्यों में स्वीकार किया जाए। क्या हिंदी प्रदेश के नेता इससे सबक लेंगे ? जिस तरह की त्रासद भाषा राजनीति महाराष्ट्र में हो रही है, उससे यही लगता है कि इसके लिए बनी समितियों में बैठने वाले विशेषज्ञों की राय को किनारे कर दिया जाएग और राष्ट्रीयता पर क्षेत्रीयता की जीत हासिल हो जाएगी।
महाराष्ट्र में बढ़ते हिन्दीभाषियों के अनुपात को देखते हुए देर-सबेर हिन्दी को अपनाना ही लोकतांत्रिक दृष्टिकोण है। चाहे मुम्बई हो या महाराष्ट्र, कुल आबादी में हिंदीभाषियों का बढ़ता अनुपात हिन्दी के पक्ष में है। २००१ की जनगणना के मुताबिक हिंदीभाषियों की संख्या मुंबई में २५.९ प्रतिशत और मराठीभाषियों की ४२.९ प्रतिशत थी, जो २०११ में ३०.२ और ४१ प्रतिशत हो गई। महाराष्ट्र में इसी अवधि में जहां मराठीभाषी आबादी ७६ से ७३.४ प्रतिशत पर आ गई, वहीं हिंदीभाषियों का अनुपात ७.३ प्रतिशत से बढ़कर ९.५ प्रतिशत हो गया। इसी लिए हिंदी लादने के इस फैसले ने न केवल उद्धव और राज ठाकरे को आक्रामक रूप में सामने ले आई, बल्कि २० साल बाद उद्धव और राज ठाकरे के एक मंच पर आने की खबर ने महाराष्ट्र की सियासत में हलचल मचा दी।
हिंदी बनाम मराठी विवाद को कई बार राजनीतिक रंग भी दिया गया है। कुछ स्थानीय दलों ने हिंदी भाषी प्रवासियों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार से आए लोगों को निशाने पर लेकर हिंदी भाषा पर परोक्ष रूप से प्रहार किया है। इससे न केवल भाषा के नाम पर लोगों में दूरी बढ़ी है, बल्कि महाराष्ट्र की समावेशी छवि को भी आघात पहुंचा है। यह संविधान की आत्मा ‘एकता में अनेकता’ के विपरीत है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी और मराठी दोनों को मान्यता प्राप्त है। हिंदी भारत की राजभाषा है और मराठी महाराष्ट्र की राजभाषा। किसी भी राज्य में भाषा का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इसके नाम पर दूसरी भाषाओं को अपमानित करना न तो संवैधानिक है और न ही नैतिक। भाषायी सह-अस्तित्व के लिए महाराष्ट्र में मराठी को सर्वाेच्च स्थान मिले, लेकिन हिंदी भाषा को भी सम्मान मिले, यह संतुलन ही स्वस्थ लोकतंत्र का आधार है। शालाओं में मराठी, हिंदी और अंग्रेजी-तीनों भाषाओं को समुचित महत्व देकर बच्चों में बहुभाषिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। विभिन्न राजनीतिक दल भाजपा एवं केन्द्र सरकार को घेरने के लिए जिस तरह भाषा, धर्म एवं जातियता को लेकर आक्रामक रवैया अपनाते हुए देश में अशांति, अराजकता एवं नफरत को फैला रहे हैं, यह चिन्ताजनक है। महाराष्ट्र में हिन्दी का विरोध आश्चर्यकारी है। आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलना विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण है।