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राजनीति में बढ़ता अपराध का साया

ललित गर्ग
दिल्ली
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दिल्ली नगर निगम चुनाव में जीते पार्षदों के संदर्भ में ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स’ यानी एडीआर और ‘दिल्ली इलेक्शन वॉच’ ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी कर यह बताया गया है कि, २४८ विजेताओं में से ४२ यानी १७ प्रतिशत निर्वाचित पार्षद ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अलावा १९ गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी हैं। इससे पूर्व दिल्ली में २०२० में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी एडीआर ने अपने विश्लेषण में चुने गए कम से कम आधे विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज पाए थे। इसमें मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी के विधायक थे। अब प्रश्न है कि दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भी आप पार्टी ने उम्मीदवार बनाने के लिए स्वच्छ छवि के व्यक्ति को तरजीह देने की जरूरत क्यों नहीं समझी ? दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह है कि साफ-सुथरी एवं अपराधमुक्त राजनीति का दावा करने वाले दल ही सर्वाधिक अपराधी लोगों को उम्मीदवार बना रहे हैं। विडंबना है कि यह प्रवृत्ति कम होने की बजाय हर अगले चुनाव में और बढ़ती ही दिख रही है। आखिर कब तक अपराधी तत्व हमारे भाग्य-विधाता बनते रहेंगे ? कब तक आम आदमी इस त्रासदी को जीने के लिए मजबूर होता रहेेगा। भारत के लोकतंत्र के शुद्धिकरण एवं मजबूती के लिए अपराधिक राजनेताओं एवं राजनीति के अपराधीकरण पर नियंत्रण की एक नई सुबह का इंतजार कब तक करना होगा ?
भारतीय लोकतंत्र की यह दुर्बलता ही रही है कि यहां सांसदों-विधायकों-पार्षदों एवं राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व ने आर्थिक अपराधों, घोटालों एवं भ्रष्टाचार को राजनीति का पर्याय बना दिया है। इन वर्षों में जितने भी चुनाव हुए हैं वे अर्हता, योग्यता एवं गुणवत्ता के आधार पर न होकर, व्यक्ति, दल या धनबल, बाहुबल एवं जनबल के आधार पर होते रहे हैं, जिनको आपराधिक छवि वाले राजनेता बल देते रहे हैं। ‘आआप’ ने भ्रष्टाचार एवं अपराधों पर नियंत्रण की बात करते हुए राजनीति का बिगुल बजाया, पर यह दल तो जल्दी ही अपराधी तत्वों से घिर गया है। आआप के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से अनेक दावे किए कि वे राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिए काम करेंगे, लेकिन मौका मिलते ही वे भी इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझते कि, आरोपी या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से कौन-सी परंपरा मजबूत होगी। चिन्ता भारतीय राजनीति के लगातार दागी होते जाने की है। लगभग हर दल से जुड़े नेताओं पर अपराधी होने के सवाल समय-समय पर खड़े होते रहे हैं, लेकिन आप में अपराधी राजनेताओं का सहारा ज्यादा जोरदार तरीके से लिया जा रहा है, अपने स्वल्प शासनकाल ने इस दृष्टि से उसने सारी सीमाओं को लांघ दिया है। प्रश्न है कि आखिर कब हम राजनीति को भ्रष्टाचार एवं अपराध की लम्बी काली रात से बाहर निकालने में सफल होंगे। कब लोकतंत्र को शुद्ध साँसें दे पाएंगे ? कब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र स्वस्थ बनकर उभरेगा ?
जब-जब राजनीति के अपराधीकरण का मुद्दा बहस का केंद्र बनता है, तो प्रायः सभी दलों की ओर से बढ़-चढ़ कर इसके खिलाफ अभियान चलाने और इसे खत्म करने के दावे किए जाते हैं। आआप ने तो इसी बल पर अपनी राजनीति चमकाई है और आम लोगों के बीच जगह बनाई है, लेकिन उसकी कथनी और करनी के फर्क को जनता समझ गई है, तभी गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता ने ठुकरा दिया है। यही कारण है कि, कई सालों से राजधानी दिल्ली में नई एवं ईमानदार राजनीति की शुरुआत की बाट जोहते लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। दिल्ली की जनता को आआप पर बहुत ज्यादा भरोसा रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि लगभग सभी दलों की तरह आआप ने यह मान लिया है कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के बिना काम नहीं चल सकता। वरना क्या वजह है कि ईमानदार और प्रतिबद्ध आम लोगों से लेकर कार्यकर्ताओं तक की एक लम्बी श्रृंखला होने के बावजूद शीर्ष नेतृत्व को जनता का प्रतिनिधि चुने जाने के लिए स्वच्छ छवि को एक अनिवार्य शर्त बनाना जरूरी नहीं लगता ? क्यों लोकतंत्र को भ्रष्टाचार एवं अपराधमुक्त करने के नजरिए से देखने का साहस वह नहीं कर पा रही है। राजनीतिक शुद्धिकरण का नारा लगाने वाले केजरीवाल को तो इसी के बल पर ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें एक अपराधी सजा पाने या भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त होने के बाद भी नायक बना रहता है ?
सभी राजनीतिक दल अपना नफा-नुकसान देखते हैं, कोई भी दल लोकतंत्र की मजबूती की बात नहीं करता है। भाजपा से निपटने की रणनीति बनाने की सुगबुगाहट सभी विपक्षी दलों में दिखाई देती है, लेकिन राजनीतिक अपराधों को समाप्त करने की तैयारी कहीं नहीं है। यह कैसी राजनीति है ? राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा मत देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर उनके अपराधों से पर्दा उठना, उन पर कानूनी कार्यवाही होना-ऐसी विसंगतिपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जो न केवल दलों को, बल्कि समूची लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को शर्मसार करती हैं। आज कर्तव्य से ऊंचा कद कुर्सी का हो गया। जनता के हितों से ज्यादा वजनी निजी स्वार्थ बन गया। राजनीतिक-मूल्य ऐसे नाजुक मोड़ पर आकर खड़े हो गए कि सभी का पैर फिसल सकता है और कभी लोकतंत्र अपाहिज हो सकता है।
विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य, वहां के मंत्रियों एवं विशेषतः आआप एवं उसके मंत्रियों पर भी गंभीर आपराधिक मामलें हैं, फिर भी वे सत्ता सुख भोग रहे हैं। इस तरह का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।
नैतिकता की मांग है कि अपने राजनीतिक वर्चस्व-ताकत-स्वार्थ अथवा धन के लालच के लिए हकदार का, गुणवंत का, श्रेष्ठता का हक नहीं छीना जाए, अपराधों को जायज नहीं ठहराया जाए। वे नेता क्या जनता को सही न्याय और अधिकार दिलाएंगे जो खुद अपराधों के नए मुखौटे पहने अदालतों के कटघरों में खड़े हैं। वे क्या देश में गरीब जनता की चिंता मिटाएंगे, जिन्हें अपनी सत्ता बनाए रखने की चिंताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है। व्यवस्थाओं का और राष्ट्र संचालन में जो अन्धापन है, वह निश्चित ही गढ्ढे में गिराने की ओर अग्रसर है। अब हमें गढ्ढे में नहीं गिरना है, एक सशक्त लोकतंत्र का निर्माण करना है।

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