कुल पृष्ठ दर्शन : 26

You are currently viewing लोक कला से ईश्वर भक्ति

लोक कला से ईश्वर भक्ति

संजय वर्मा ‘दृष्टि’ 
मनावर(मध्यप्रदेश)
****************************************

मेघ, सावन और ईश्वर…

पारम्परिक लोक गीत के गायन का चलन विशेष पर्वों पर कम होता जा रहा है। सीधे फिल्मी गाने बजाने का चलन हो गया है। पहले के ज़माने में जिन्हें लोक गीत गाने आते हो, उनको बुलावा दिया जाकर गीत गवाए जाते थे। ईश्वर भक्ति लिए जैसे राती जोगा, शादी, संजा, गणगौर, धार्मिक पर्वों आदि पर गाए जाते रहे।
कई स्थानों पर शादी में महिला संगीत कार्यक्रम में फिल्मी नृत्यों ने मंच पर जगह ले ली है। पारम्परिक लोक गीत जो गाए जाते और बताशे बाँटे जाते थे, वो विलुप्त होते जा रहे हैं। इस कार्यक्रम में बुजुर्ग महिलाओं को मान-सम्मान मिलता और उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने एवं नई पीढ़ी को सिखाने का मौका मिलता था।
बीते समय संक्रमणकाल के दौरान सभी शुभ कार्य में जाने पर सीमित संख्या निर्धारित की गई थी, जो उचित भी थी। अब संक्रमण काल कम हुआ है, साथ ही शुभ कार्य में सम्मिलित होने की संख्या में इजाफा हुआ है। अतः, लोक गीतों की प्रथा को बनाए रखें, ताकि लोक गीतों में शुभ कार्य सम्पन्न हो, क्योंकि लोक गीतों में ईश्वर के प्रति प्रार्थना होती है।
मधुर लोक गीतों की स्वर लहरियाँ घर-घर में गुंजायमान होती है। गणगौर त्यौहार पर मालवी-निमाड़ी लोक गीतों की स्वर लहरियाँ, रात्रि में लोक गीत गाने के उपरांत तम्बोल (धानी, चने आदि) प्रसाद के रूप में बाँटें जाते हैं।
वर्तमान में ‘संजा’ का रूप फूल- पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है। संजा का पर्व आते ही लड़कियाँ प्रसन्न हो जाती हैं। संजा को कैसे मनाना है और संजा माता के लोक गीत कैसे गाना है, ये बातें छोटी को बड़ी लड़कियाँ बताती हैं। शहरों में सीमेंट की इमारतें और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव, लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह, टी.वी., इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म-सा हो गया है, लेकिन गाँवों-देहातों में पेड़ों की पत्तियाँ, तरह-तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है। परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पड़ा है।

‘संजा-सोलही गीत को देखें तो मालवी मिठास लिए लोक परम्पराओं को समेटे लोक संस्कृति को विलुप्त होने से तो बचाता है, साथ ही लोक कला के मायनों के दर्शन भी कराता है। रिश्तों के ताने-बाने बुनते व हास्य रस को समेटे लोक गीत वाकई अपनी ईश्वरीय भक्ति को दर्शाते हैं। इन गीतों में ईश्वर से विनती समाहित रहती है, साथ ही लोक गीतों की गरिमा बनी रहती है और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं।

परिचय-संजय वर्मा का साहित्यिक नाम ‘दॄष्टि’ है। २ मई १९६२ को उज्जैन में जन्में श्री वर्मा का स्थाई बसेरा मनावर जिला-धार (म.प्र.)है। भाषा ज्ञान हिंदी और अंग्रेजी का रखते हैं। आपकी शिक्षा हायर सेकंडरी और आयटीआय है। कार्यक्षेत्र-नौकरी( मानचित्रकार के पद पर सरकारी सेवा)है। सामाजिक गतिविधि के तहत समाज की गतिविधियों में सक्रिय हैं। लेखन विधा-गीत,दोहा,हायकु,लघुकथा कहानी,उपन्यास, पिरामिड, कविता, अतुकांत,लेख,पत्र लेखन आदि है। काव्य संग्रह-दरवाजे पर दस्तक,साँझा उपन्यास-खट्टे-मीठे रिश्ते(कनाडा),साझा कहानी संग्रह-सुनो,तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो और लगभग २०० साँझा काव्य संग्रह में आपकी रचनाएँ हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में भी निरंतर ३८ साल से रचनाएँ छप रहीं हैं। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में देश-प्रदेश-विदेश (कनाडा)की विभिन्न संस्थाओं से करीब ५० सम्मान मिले हैं। ब्लॉग पर भी लिखने वाले संजय वर्मा की विशेष उपलब्धि-राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-मातृभाषा हिन्दी के संग साहित्य को बढ़ावा देना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद,तो प्रेरणा पुंज-कबीर दास हैंL विशेषज्ञता-पत्र लेखन में हैL देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-देश में बेरोजगारी की समस्या दूर हो,महंगाई भी कम हो,महिलाओं पर बलात्कार,उत्पीड़न ,शोषण आदि पर अंकुश लगे और महिलाओं का सम्मान होL