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वक्त के बदलाव पर हस्ताक्षर करते जाना ही अमिताभ होना है…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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जब(बीसवीं)‘ सदी के महानायक’ ७७ वर्षीय अमिताभ बच्चन को देश के सर्वोच्च फिल्म पुरस्कार का ऐलान हुआ तो देश की गान सरस्वती लता मंगेशकर की सहज प्रतिक्रिया थी-‘उन्हें (अमितजी) को यह पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। अर्थात इस अवाॅर्ड के लिए पाच दशकों की साधना और इंतजार जरा लंबा है। अमिताभ जैसी अजीम शख्सियत के बारे में यह सवाल कतई गैर मौजूं नहीं था कि अरे,दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड उन्हें अब तक क्यों नहीं मिला ? ऐसा सवाल उसी हस्ती के बारे में किया जा सकता है जो जीवित किंवदंती बन जाए,लेकिन इतिहास का ‘स्थाई जमा’ बनने से बची रहे। जिसके पास ‘मौजूदा पूंजी’ हमेशा हो,‘बिग बी’ उन्हीं बिरली शख्सियतों में से हैं, जिन्होंने वक्त के साथ दौड़ते और बदलते रहने में ही अपनी सार्थकता देखी और समझी है।

आखिर अमिताभ बच्चन होने का मतलब क्या है ? क्या एक महान अभिनेता,क्या एक एंग्रीमैन,क्या एक विनम्र अनुशासित और लाजवाब इंसान,क्या एक जज्बातों का शहंशाह,क्या एक निर्मम प्रोफेशनल या फिर एक करोड़पति बनाने वाला कुबेर प्रश्नकर्ता ? हकीकत में इन तमाम प्रश्नों के उत्तरों का मिश्रण ही अमिताभ को गढ़ता है। अमिताभ की खूबी यह है कि उनके कई चेहरे,किरदार और चैनल हैं,जिनके बीच से आपको अपने रिमोट का सबसे पसंदीदा बटन दबाना है। काम मुश्किल है,लेकिन ‘दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड’ से नवाजे जाने का मतलब ही उस राह पर चलकर कामयाबी के झंडे गाड़ना है,जिस पर चलना दूसरों के लिए लगभग नामुमकिन है।

फिर इतिहास में लौटें। दरअसल ‘अमिताभ बच्चन’ नाम के उच्चारण से ही मन पिछली सदी में सत्तर के दशक में लौटने लगता है,जब समाजवादी सपनों की सिलाई उधड़ने लगी थी। आजादी के आसपास जन्मी पीढ़ी अरमानों और कर्तव्यों के बीच अपनी जगह तलाश रही थी। जिम्मेदारियों का बोझ था तो अपने मनमाफिक कुछ न कर पाने की गहरी कसक भी थी। रोज के राशन,हाथों को काम और साइकिल से स्कूटर तक पहुंचने का रास्ता लंबा था। ये वो पढ़ी-लिखी पीढ़ी थी,जो नैतिक मूल्यों और अनैतिक सांसारिकता के द्वंद्व में फंसी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपना वजूद दिखाने के लिए वह क्या करे,कैसे करे, किससे टकराए,कैसे टकराए।

इस संघर्ष का पहला फंडा हमें फिल्म ‘जंजीर’ के अमिताभ ने दिया। यह समझाया कि ईमानदारी की राह भी कितनी कठिन होती है। इसके बाद तो अमिताभ ने बुराई से अच्छाई के ले जाने वाले कई किरदार किए। यह भी बताया कि ‘जहां हक न मिले,वहां लूट सही।‘ यानी कुछ पाना है तो लड़ना होगा। अपने दमदार संवाद और उसकी दिल छू लेने वाली अदायगी ‍अमिताभ की ऐसी खासियत बन गए ‍कि उन्हें एक ‘स्थायी एंग्री यंगमैन’ कहा जाने लगा। हालांकि, अमिताभ ने और दूसरी भूमिका,जैसे-प्रेमी,पिता,भाई दोस्त आदि भी उसी दमदारी से किए,लेकिन ‘एंग्री यंगमैन’ के भाव और तल्खी में उनकी आत्मा प्रतिबिम्बित होती लगती थी। इस मायने में अमिताभ की वह छवि सचमुच कालजयी है। किरदारों की विविधता और उसकी लाजवाब अदायगी की दौड़ में तो और भी बड़े मूर्धन्य अभिनेता रहे हैं,जैसे-दिलीप कुमार,लेकिन दिलीप कुमार स्तम्भ-इतिहास बनकर इसी जिंदगी में मुख्‍य धारा से हाशिए पर चले गए,क्योंकि वक्त और उसके बदलते मिजाज के आगे ‘समर्पण’ करने से उन्होंने इंकार कर दिया। ‘समर्पण’ इसलिए कि इसी सिक्के का दूसरा पहलू ‘वक्त से कदमताल’ कहलाता है। अमिताभ ने हमेशा दूसरा और कभी खत्म न होने वाला रास्ता चुना। समय के साथ उन्होंने रंग,रूप और चाल बदली। नब्बे के दशक में आई उनकी फिल्म ‘शहंशाह’ ने एंग्री यंगमैन’ अमिताभ की फाइल को बन्द कर दिया। इस बीच उन्होंने थोड़े समय के लिए सियासत और कारोबार में भी हाथ आजमाया। हादसों ने भी अमिताभ के भविष्य पर ब्रेक लगाने की कोशिश की, पर नई सदी की शुरूआत में अमिताभ अपनी नई छवि और तासीर में नजर आए। ये नई दुनिया पैसों की, उपभोगवाद को श्रेष्ठ मित्र मानने वाली और जल्द अमीरी के नुस्खे बताने वाली दुनिया थी। याद कीजिए कभी ‘खून-पसीने की मिलेगी तो खाएंगे’ का जुझारू और उसूलों पर अडिग रहने का संदेश देने वाले अमिताभ और अब ‘करोड़पति’ बनने की स्पर्धा का संचालन करते हुए करोड़ों के चैक काटने वाले अमिताभ। कल का ‘एंग्री यंग मैन’ अमिताभ आज का काॅरपोरेट मार्केटिंग गुरू अमिताभ है। आज की पीढ़ी उन्हें अभिनय के मानदंड रचने वाले बेमिसाल अभिनेता के साथ-साथ नवरतन तेल की मार्केटिंग करने वाले ‘बिग बी’ के रूप में जानती है। संक्षेप में कहें तो समय के बदलाव से समझौता कर उस पर अपने हस्ताक्षर करना ही असल में अमिताभ होना है।

यह अमिताभ ही हैं,जिन्होने अपने‍ पिता और हिंदी के जाने-माने कवि स्व. हरिवंशराय द्वारा अपने नाम के आगे ‘बच्चन’ तखल्लुस लगाने को एक ब्रांड में तब्दील किया। इस मायने में अमिताभ दो सदियों के बीच के सेतुबंध कहे जा सकते हैं,जिससे नई पीढ़ी सबक ले सकती है। कुछ लोग इस पुरस्कार को उनकी सत्ता से नजदीकी का नतीजा मान रहे हैं,तो ज्यादातर की निगाह में अमिताभ इसके जायज हकदार हैं। कुछ ने उन्हें ‍हिंदी फिल्म जगत का आधार स्तम्भ माना तो कुछ उन्हें फिल्म उद्योग का अनथक साधक मानते हैं। सबकी अपनी-अपनी राय है,लेकिन इतनी राय होना ही व्यक्ति की बहुमान्यता का प्रतीक है। अमिताभ बच्चन को प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के अवाॅर्ड दिए जाने की घोषणा से पुलकित ‘भारत रत्न’ और महान‍ क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर ने बधाई देते हुए कहा-‘किरदार अनेक,शहंशाह बस एक।’ वो सचिन, जिनका जन्म ही उस साल हुआ था, जब अमिताभ का ‘एंग्री यंग मैन’ आग उगलने लगा था। भारतीय फिल्म जगत के पितामह दादा साहब फाल्के को खुद जीते-जी कोई पुरस्कार किसी ने नहीं दिया। उल्टे बोलती फिल्मों के उदय ने दादा साहब की मूक फिल्मों को ही खामोश कर दिया। इसके बाद भी दादा साहब ने हार नहीं मानी। कभी हार न मानना ही इस पुरस्कार की आत्मा है। यही अमिताभ होने का भावार्थ भी है। इस पर बधाई तो बनती ही है। है न..!

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