डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल
इन्दौर (मध्यप्रदेश)
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वृद्धाश्रम में अम्मा को खड़ा कर उसने उनका सूटकेस वहाँ रखा और औपचारिकताएँ पूरी करने के लिए कार्यालय की ओर चला गया।
लौटकर आया तो अम्मा को आँसू पोंछते देख कर वह द्रवित हो गया।
“क्या करूं अम्मा…? घर में शांति के लिए मजबूरीवश मुझे यह करना पड़ रहा है। तुम तो जानती ही हो रेखा को…!”
“जा बेटा… घर जा… बहू इंतजार कर रही होगी। चलते समय बच्चों के सिर पर हाथ भी नहीं फेर सकी… वह सो रहे थे, मैं चुपचाप चली आई।”
“अम्मा… मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा !”
“बेटा, यदि ३० बरस पहले मैं तुझे अनाथालय में छोड़ आती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता !… लेकिन मैं माँ हूँ! तू खुश रह… मेरा आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ है।” अम्मा सिसक पड़ी।
यह सुनकर बेटा कांप उठा। अनाथालय… वृद्धाश्रम…. उफ ! “चल अम्मा, घर चलें… अब जो भी हो, लेकिन मैं तुझे वृद्धाश्रम मैं नहीं रखूंगा।”