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विदेशी शिक्षण संस्थानों को न्यौतना खतरा न बने

ललित गर्ग
दिल्ली
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नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता धीरे-धीरे सामने आने लगी है। आखिरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत करतेे हुए डिजिटल विश्वविद्यालय के शुरू होने और विदेशों के उच्च स्तरीय लगभग ५०० श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के भारत में परिसर खुलने शुरु हो जाएंगे। अब भारत के छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा स्वदेश में ही मिलेगी और कम खर्चीली एवं सुविधाजनक होगी। इसका एक लाभ होगा कि, कुछ सालों में भारतीय शिक्षा एवं उसके उच्च मूल्य मानक विश्वव्यापी होंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की यह अनूठी एवं दूरगामी सोच से जुड़ी सराहनीय पहल है। यह शिक्षा के क्षेत्र में नई संभावनाओं का अभ्युदय है। भारत में दम तोड़ रही उच्च शिक्षा को इससे नई ऊर्जा मिलेगी। बुझा दीया जले दीए के करीब आ जाए तो जले दीए की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। खुद को विश्वगुरु बताने वाले भारत का एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के २०० विवि में शामिल नहीं है। इन त्रासद उच्च स्तरीय शिक्षा के परिदृश्यों में बदलाव लाने में यदि नई पहल की भूमिका बनती है तो यह स्वागत योग्य कदम है, पर अनेक संभावनाओं एवं नई दिशाओं के उद्घाटित होने के साथ-साथ यह भी देखना होगा कि कहीं यह पहल भारत के लिए खतरा न जाए ?
विदेशी विवि के भारत में अपने परिसर खोलने के मसौदे को विवि अनुदान आयोग ने भले ही अभी अमली जामा पहनाया हो, हालांकि यह प्रस्ताव पुराना है। कई शंकाओं के चलते यह टलता आ रहा था। निस्संदेह इस नीति से उच्च शिक्षा में भारतीय विद्यार्थियों के लिए नए अवसर पैदा होंगे। आयोग ने फिलहाल विदेशी विवि को १० साल के लिए मंजूरी देने का प्रावधान रखा है, पर इससे यह सुविधा तो होगी कि, अब भारतीय छात्रों को बहुआयामी पाठ्यक्रमों को चुनने का अवसर मिल सकेगा। बहुत सारे विद्यार्थी इसलिए बाहर में दाखिला लेने जाते हैं कि यहां के विवि में वैसे पाठ्यक्रम नहीं हैं। इससे स्वाभाविक ही अपने यहां के सरकारी और निजी विवि भी उनकी प्रतिस्पर्धा में ऐसे पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रयास करेंगे। इस तरह की प्रतिस्पर्धा से भारत की उच्च शिक्षा को उन्नत होने की दिशाएं उद्घाटित होंगी, इसमें संदेह नहीं है। छात्रों को अध्ययन में लचीलापन, पाठ्यक्रमों तक आसानी से पहुंच, उच्च गुणवत्ता, कम लागत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेटवर्किंग की सुविधा मिल पाएगी। इन विवि के माध्यम से ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रम से कई छात्र आगे की पढ़ाई पूरी कर पाएंगे। निश्चित ही यह पहल नया भारत, सशक्त भारत के संकल्प को आकार देने में सहायक होगी। एक महाशक्ति बनना एवं एक आदर्श शक्ति बनना-दोनों में फर्क है। भारत को इन दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। उच्च शिक्षा एवं विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के दरवाजे खोलने का अर्थ हमारे मूल शिक्षा के आदर्शों को जीवंत बनाए रखना होना चाहिए । धीरे-धीरे पढ़ाई के बदलते स्वरूप में अच्छा नागरिक या बेहतर मनुष्य बनने का उपक्रम गुम नहीं होना चाहिए। यदि वह अच्छी नौकरी पाने का ज़रिया है, और अच्छी नौकरी का मतलब अच्छा काम नहीं, अच्छे पैसे देने वाला काम है तो इससे हम आगे बढ़ने की बजाय पीछे ही जाएंगे।
वैसे ही उच्च शिक्षा भटकी हुई प्रतीक होती है, हमारा मूल उद्देश्य ही कहीं भटकाव एवं गुमराह का शिकार न हो जाए। आज देश में बहुत चमचमाते एवं भव्यतम विवि परिसरों की बाढ़ आ गई है, लेकिन ज्यादातर भारी फीस वसूलने एवं शिक्षा के व्यावसायिक होने का उदाहरण बन रहे हैं, जो राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक विष पैदा करने सहित हिंसा- अराजकता के केन्द्र बनेे हुए हैं। विदेशी संस्थानों के आने से ये चुनौतियाँ ज्यादा न बढ़ जाए, यह एक चुनौती है।

विदेशी विवि को न्यौता देना सूझ-बूझ भरा तभी है, जब हम अपनी विवशता के चलते ऐसा नहीं करें, क्योंकि हमारे यहां एक बड़ी समस्या यह भी है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में विद्यालय-महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खोलना सरकार की क्षमता से बाहर होता गया है। शिक्षा पर अपेक्षित बजट न होने के चलते सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना चुनौती बना हुआ है। सरकार अपने विद्यालयों-महाविद्यालयों को पीपी मॉडल पर देने के लिए निजी संस्थानों को आमंत्रित कर रही है। देश में आमजन को उन्नत शिक्षा उपलब्ध न करा पाना सरकार की बड़ी नाकामी रही है। एक और बात अखर रही है कि नई शिक्षा नीति में एक वादा यह भी किया गया है कि निजी शालाओं में शुल्क आदि के निर्धारण का व्यावहारिक पैमाना तय किया जाएगा, पर निजी और विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों को इस मामले में छूट क्यों है ? ऐसी विडम्बना एवं विसंगतियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है, तभी विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत आना सार्थक होगा।

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