सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
********************************************
हमारी स्वतंत्रता की कहानी एक दिन की घटना नहीं है। इस सिर्फ अहिंसा नहीं, अपितु रक्तरंजित सच्ची कहानी को लिखने में अनेक महान क्रांतिकारियों का योगदान रहा। उन क्रांतिकारियों में ३ विशिष्ट नाम-सरदार भगत सिंह,
सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु के थे। आजादी के लिए इनके किए गए बलिदान को हम भुलाए नहीं भूल सकते। इसलिए, प्रतिवर्ष उनकी शहादत को हम बलिदान दिवस के रूप में याद करते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को आहुत करने वाले बलिदानियों के अगाध देशप्रेम, अदम्य साहस, अनोखे समर्पण, अप्रतिम बलिदान की आधारशिला १९२० से १९३० के दशक में रखी गई। इस उल्लेखनीय अवधि में क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद आदि जैसे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सक्रिय सदस्यों के कारण देश में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आक्रोश ने तेज गति पकड़ ली। भगत सिंह व उनके क्रांतिकारी साथी मानते थे, कि आजादी सिर्फ अहिंसा और शांतिपूर्ण तरीके से नहीं मिल सकेगी। वे सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध शांति से अपनी बात मनवाने के विचार को त्याग दिया और असहयोग आंदोलन में भी भाग नहीं लिया।
३० अक्टूबर (१९२८) को जब गरम दल के नेता लाला लाजपत राय लाहौर में शांतिपूर्ण ढंग से साइमन कमीशन का विरोध कर रहे थे, तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिससे उनकी असमय मृत्यु हो गई। इस घटना ने भगत सिंह और उनके साथियों को उद्वेलित कर दिया और तब १७ दिसम्बर (१९२८) को भगत सिंह और राजगुरु ने जेपी सांडर्स की हत्या कर दी। इस हत्याकांड में चंद्रशेखर आजाद और सुखदेव थापर ने भी उनकी मदद की थी। इस कृत्य को करकर उन्होंने अंग्रेजों को तो सबक सिखाया ही, साथ ही देश को संदेश दिया कि अब भारतीय उनके अत्याचारों को सहन नहीं करेंगे।
इसके पश्चात भी वे यही नहीं रूके बल्कि, अंग्रेजों से अपनी मांगों को मनवाने के लिए १९२९ में दिल्ली की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों के साथ बम फेंका, ताकि ब्रिटिश हुकूमत भयभीत होने के साथ उनकी मांगों पर ध्यानाकर्षण करे।
जेपी सांडर्स की हत्या और बम धमाके के बाद दिल्ली में ही भगत सिंह ने अपने एक साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ ८ अप्रैल को अपनी गिरफ्तारी स्वइच्छा से दे दी, जबकि उनके साथ सम्मिलित साथी राजगुरु को पुणे और सुखदेव को लाहौर से गिरफ्तार किया गया था।
इन तीनों वीरों ने मुकदमे के दौरान अपनी मांगों को बहुत निडरता और स्पष्ट रूप से सबके सामने रखा एवं पूरे देश को बतला दिया कि ब्रिटिश शासन की नीतियाँ अन्यायपूर्ण और भेदभाव से भरी थी। भारतीय जन यह बात समझ गए थे, लेकिन ये तीनों क्रांतिकारी अंग्रेजी हुकूमत से अपना मुकदमा हार गए और तब सजा के रूप में २४ मार्च १९३१ का दिन इनकी फाँसी के लिए मुकर्रर किया गया, परन्तु २३ मार्च के निराशामय दिन को ब्रिटिश हुकूमत ने इन माँ भारती के सच्चे सपूतों को तय तारीख से १ दिन पहले ही फाँसी दे दी थी, क्योंकि उन्होंने इन तीनों के वर्चस्व को भाँप लिया था। उस समय भगत सिंह व सुखदेव की उम्र मात्र २३ वर्ष थी और राजगुरु केवल २२ वर्ष के थे, लेकिन इनकी राष्ट्रप्रेम की सोच और साहस किसी प्रौढ़ क्रांतिकारी से कम नहीं था। इनके बलिदान ने भारत में आजादी के लिए जुनून को बढ़ा दिया था।
इन वीरों का बलिदान निष्फल नहीं हुआ। इनकी शहादत ने युवाओं में स्वतंत्रता की मशाल जला दी। इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ऐसी गति दी थी, कि अंततः १६ साल ४ महीने और २३ दिन के बाद अंग्रेज भारत से लौट गए।
महान क्रांति नायक भगत सिंह के लेख, पत्र और विचार हमारे लिए आज भी प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने कहा था, “जो लोग जीवन में बलिदान देने के लिए तैयार नहीं हैं, वे कभी भी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकते।” इन तीनों युवा स्वतंत्रता संग्राम बलिदानियों का जीवन हमें सिखाता है, कि मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने की भावना आयु और परिस्थितियों से परे है।
२३ मार्च ‘बलिदान दिवस’ मात्र एक ऐतिहासिक तारीख नहीं है, बल्कि राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का बोध भी है। आज सोचना जरूरी हो गया है कि जिस स्वतंत्रता के लिए वीरों ने हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूम लिया, तो क्या आज हम उनकी भेंट की अनमोल स्वतंत्रता की रक्षा कर पा रहे हैं ? यह दिन हमें, हमारी नई पीढ़ी को उनके बलिदान की गाथा सुनाने और देश के प्रति समर्पण भाव जगाने का अवसर देता है।
स्वतंत्रता का स्वर्णिम पाठ लिख देने वाले भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान अमर बनाने के लिए हम संकल्प लें, कि उनके सपनों का भारत बनाने में हम उनकी दिखाई परिपाटी पर चलेंगे और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ सार्थक करेंगे।