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समझ नहीं आता… सोच को क्या हो गया!

राधा गोयल
नई दिल्ली
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एक तरफ हम कहते हैं कि लड़कियों को पढ़ाओ,और पढ़ाना भी चाहिए क्योंकि एक लड़की को पढ़ाने का मतलब है,पूरे परिवार को पढ़ाना, मगर जो हालात बने हुए हैं,वो देखते हुए हर माँ-बाप बुरी तरह से डर के साए में जीता है। जब तक बिटिया घर न आ जाए,दिल अनगिनत आशंकाओं से भरा रहता है।
समझ नहीं आता,लोगों की सोच को क्या हो गया है ? न बड़ी बच्चियाँ सुरक्षित हैं,न छोटी। कई बार तो वाकई मन करता है कि बच्चियों को कोख में ही मार दिया जाए,किंतु यह समस्या का हल नहीं है। इससे तो लड़के-लड़की की जन्म दर में बहुत अंतर हो जाएगा। यह दर समानुपात होनी चाहिए। इसका सबसे अच्छा हल है कि लड़कियों को सशक्त बनाया जाए। उनको बचाव के तरीकों
का प्रशिक्षण दिया जाए। पुलिस ऐसा प्रशिक्षण मुफ्त में देती है। मैंने स्वयं देखा कि किस तरह से बच्चियों ने सीखा कि कोई गलत छुए करे तो उस व्यक्ति के किस अंग पर वार करना चाहिए कि वह छटपटाता रह जाए। ऐसे ही अश्लील साइट्स पर बिल्कुल प्रतिबंध होना चाहिए। अश्लील कृत्य देखकर मन में न जाने कितने कुत्सित विचार आते हैं कि,कामातुर लोग अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते। उस समय उनकी गिरफ्त में चाहे वह १ साल की लड़की हो या २० साल की युवती…या फिर वृद्धा…कोई नहीं बच पाती। ऐसे दरिंदों का चेहरा सार्वजनिक किया जाना चाहिए। उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए और ऐसे दरिंदों को सरेआम कानून द्वारा फाँसी पर लटकाया जाना चाहिए,तभी माता-पिता के दिल में भी खौफ बैठेगा,क्योंकि किसी को भी अपने लड़के में कोई ऐब नजर नहीं आता। वैसे भी जिसके साथ बलात्कार किया जाता है,उसका परिवार तो बिल्कुल टूट जाता है। उस लड़की को समाज द्वारा दोषी न होते हुए भी दोषी ठहरा दिया जाता है,पर लड़का छुट्टे साँड की तरह घूमता रहता है। अमीर होता है,तो पैसे देकर जमानत पर रिहा हो जाता है।
क्यों नहीं जाँच होने के बाद जब यह निश्चित हो जाता है कि,उसने दुष्कर्म किया है तो उसे फौरन कानून द्वारा सरेआम फाँसी की सजा दी जाती है ? क्यों आज तक ऐसा कानून नहीं बना! कभी निर्भया तो कभी प्रियंका या कोई और बच्ची। क्या केवल मोमबत्ती जला देने से हमारे कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी ?
सारे मानवाधिकार संगठन कहाँ गए जो अफजल की फाँसी पर रोए थे,कन्हैया के लिए रोए थे। पुरस्कार वापसी वालों ने सम्मान वापस किए थे। कहाँ गए वो सभी ? क्यों नहीं इस बात के लिए अपनी आवाज उठाते ? क्यों नहीं यथार्थ के धरातल पर कुछ काम करते ? क्यों नहीं जगह-जगह हर मोहल्ले में ऐसे प्रशिक्षण शिविर लगवाते,जहाँ लड़कियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाए ?
यह भी ध्यान रहे कि यह ८ वर्ष से ऊपर की बच्चियाँ और लड़कियाँ तो सीख सकती हैं,किन्तु उन छोटी बच्चियों का क्या,जो ऐसे हैवानों की कामुकता का शिकार होती हैं। अतः इसके लिये ठोस कानून बनाने और अश्लील साइट्स पर रोक लगाने की बहुत जरूरत है।
बलात्कारियों के माथे पर बलात्कारी शब्द खुदवाया जाए और हाथ-पैर कटवा दिए जाएं,
लेकिन फिर इन्हें जेल में नहीं…इनके घर वालों को ही सौंप दिया जाए। अपने-आप ही सामाजिक बहिष्कार हो जाएगा और अन्य कुमार्गी भी सही मार्ग पर आ जाएंगे। बस,बहुत हो चुका कैण्डल मार्च..उससे कुछ नहीं होने वाला है।