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सम्मानपूर्ण जीवन का अवसर दें हर कल्याणी को

ललित गर्ग
दिल्ली

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किसी भी समाज में वैवाहिक जीवन साथी विशेषतः पति की मृत्यु हो जाने के बाद पत्नी की हालत काफी चिंताजनक हो जाती हैं। एक शादीशुदा महिला ने जो सपने शादी से पहले अपनी आने वाली जिंदगी के लिए देखे होते हैं, वो सब टूट जाते हैं। यही नहीं, आज भी हमारा समाज कल्याणी (विधवा) को उस नजर से नहीं देखता है, जिसकी वो असल में हकदार है। इससे उत्पन्न पारिवारिक, सामाजिक, वित्तीय और आर्थिक समस्याएं तो कई बार इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उनका समाधान बहुत मुश्किल नजर आता है। ऐसे में समाज की जिम्मेदारी बनती है कि विधवाओं को भी बाकी सामान्य लोगों की तरह सम्मानजनक जीवन जीने का दर्जा मिले।
दरअसल, ब्रिटेन की लूंबा फाउंडेशन पूरे विश्व की विधवा महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार पर विगत ७ साल से संयुक्त राष्ट्र संघ में अभियान चला रही है। इसका उद्देश्य यही है कि पूरी दुनिया में विधवा महिलाएं वैधव्य की त्रासदी एवं विडम्बना से मुक्त जीवन जीते हुए आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास एवं उन्नतिपूर्ण जीवन जी सके।
भारत में विधवा महिलाओं का जीवन एक त्रासदी से कम नहीं है। हमारे यहां सदियों से विधवा महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने की परंपरा रही है। कई बार तो उन्हें पारिवारिक संपत्ति में अधिकारों से वंचित कर मायके भेज दिया जाता है। विधवाओं के अधिकार, उनके धर्म, क्लास, जाति और क्षेत्र पर निर्भर करते हैं। विधवाओं के जीवन सुधार के लिए समय-समय पर देश में कानून बनाए गए, लेकिन आज भी हमारे देश में विधवाओं के सामान्य जीवन से जुड़े तमाम मसले हैं, जिनका हल किया जाना अनिवार्य है।
दुनिया की लाखों विधवाओं को गरीबी, अभाव, भेदभाव, बेघर, बीमारी, स्वास्थ्य आदि जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है और कानूनी व सामाजिक भेदभाव सहना पड़ता है।
एक अनुमान के मुताबिक कहा जाता है कि, लगभग ११५ मिलियन विधवाएं गरीबी में रहने को मजबूर हैं, जबकि ८१ मिलियन महिलाएं ऐसी हैं जो शारीरिक शोषण का सामना करती हैं। ज्यादातर समाज में महिलाओं के मुकाबले सभी प्रकार के धन और संपत्तियों पर गैर अनुपातिक ढंग से मालिकाना हक पुरुषों का होता है। लैंगिक स्तर पर यह विषमता सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि आमदनी और कमाई में भी होती है। खानदानी जमीन-जायदाद में मालिकाना हक जैसे मामलों में महिलाओं की स्थिति हमेशा कमतर होती है। विधवा होने की स्थिति में इसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है, जो असहनीय स्तर तक पहुंच जाता है। सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर नकारात्मक दृष्टिकोण की वजह से विधवाओं को कई कठिनाइयों और अभावों का सामना करना पड़ता है। समाज द्वारा उन पर और उनके क्रियाकलापों पर कई प्रकार की पाबंदियां लगा दी जाती हैं।
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। विधवा स्त्री घर के एक कोने में घुट-घुट कर जीने को विवश कर दी जाती है, उसे घर के समस्त मांगलिक कार्यों से दूर रखा जाता है, इतना ही नहीं उसे अपशकुन माना जाता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के वियोग में ऐसा जीवन जीता है ? यदि नहीं, तो स्त्री ने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जो उसे ऐसी हृृदय-विदारक वेदना भोगनी पड़े। समाज का दायित्व है कि ऐसी वियोगिनी योगिनियों के प्रति सहानुभूति, संवेदनात्मक एवं समानतापूर्ण वातावरण का निर्माण करें और सम्मानपूर्ण जीवन का अवसर दें।
विश्व अब एक परिवार है, हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। ऐसा हुआ तो यकीनन यह यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी।
विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। देश में उम्रदराज विधवाओं की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, साल २०० से २०११ के बीच विधवा महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, इसका एक कारण पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की जीवन प्रत्याशा का अधिक होना भी है। उम्रदराज विधवा महिलाओं की गैर समानुपातिक ढंग से संख्या बढ़ने का प्रमुख कारण ज्यादातर विधुर पुरुषों का पुनर्विवाह होना भी है।
विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा, तथाकथित आधुनिकता एवं भोगवादी जीवनशैली एक बड़ी वजह है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी केन्द्र एवं राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है। हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। तमाम सांस्कृतिक बंधनों में दबी ऐसी औरतों को अक्सर समाज और स्थानीय समुदाय नजरअंदाज कर देता है।
आइए, सभी विधवाओं को सहयोग देने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराएं-भले ही उनकी उम्र कोई भी हो, वे किसी भी जाति, धर्म, वर्ग एवं स्थान से संबंधित हों या किसी भी कानूनी प्रणाली के दायरे में आती हों। यह सुनिश्चित करें कि वे सम्मानजनक जीवन जीएं।

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