राधा गोयल
नई दिल्ली
******************************************
मेघ, सावन और ईश्वर…
सावन के मौसम में भी, प्यासी धरती रोती है,
पीने को नहीं है पानी, जनता जल बिन रोती है।
बूँद-बूँद पानी की खातिर, जब जनता तरसी थी,
दया आ गई इन्द्रदेव को, और बरखा बरसी थी
लेकिन इतनी ज्यादा बरसी, त्राहि-त्राहि मची थी,
गाँव, नगर, घर, खेत, और खलिहान बहा कर ले गई।
पहले सूखे ने मारा, अब बाढ़ आक्रमण कर गई,
पाई-पाई करके जो जोड़ा, बैरन बाढ़ निगल गई
शायद यह सब मानव की ही करनी का फल है,
कहीं भयंकर सूखा है, तो कहीं बाढ़ विप्लव है
मनुज देह तो धारण की, हित सीख नहीं पाए,
प्रकृति प्रदत्त साधनों का दोहन करते आए।
सावन के मौसम में मन आनंद विभोर होता,
पृथ्वी पर जोबन छाता, हर मन हर्षित होता
पेड़ों पर झूले डाल के सब गाते थे मेघ मल्हार,
वीर बहूटी सजती थीं करके सोलह सिंगार
पेड़ कहीं पर बचे नहीं हैं, झूला कहाँ पर डालें ?
सावन के गीतों पर भी, मानो लग गए हैं ताले।
सावन के मौसम में, मेरा दिल भरता सिसकारी,
किस डाली पर झूला डालें, सोच-सोच कर हारी
अपनी ही बातों से फिर, अपने दिल को समझाया,
पेड़ लगाएंगे सब मिलकर, कह दिल को बहलाया
इस सावन में यह संकल्प बने हितकारी,
लेनी होगी सबको मिलकर जिम्मेदारी।
मिलकर पेड़ लगाएंगे सब, इस सावन में,
मन का सब वैमनस्य धोएंगे, इस सावन में
मानवता हित काम करेंगे, सब हितकारी,
क्योंकि ‘मन का पावस होता है सुखकारी॥’