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सावरकर साम्प्रदायिक थे या शुद्ध बुद्धिवादी ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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स्वातंत्र्यवीर सावरकर का स्वतंत्र भारत में क्या स्थान है ? न तो उन्हें भारत रत्न दिया गया,न संसद के केन्द्रीय कक्ष में उनका चित्र लगाया गया,न संसद के अंदर या बाहर उनकी मूर्ति स्थापित की गई,न उन पर अभी तक कोई बढ़िया फिल्म बनाई गई,न उनकी जन्म-शताब्दी मनाई गई और न ही उनकी जन्म-तिथि और पुण्य-तिथि पर उनको याद किया जाता है। इसका कारण क्या है ? क्या हमें पता नहीं कि भारत के लिए पूर्ण स्वराज्य की माँग सबसे पहले सावरकर ने की थी। ५० साल की सज़ा पानेवाले वे पहले और अकेले क्रांतिकारी थे। वे पहले ऐसे नेता थे,जिन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। वे ऐसे पहले भारतीय वकील थे,जिन्हें ब्रिटेन ने उनके उग्र राजनीतिक विचारों के कारण उपाधि नहीं दी थी। वे ऐसे पहले भारतीय लेखक थे,जिनकी पुस्तकों पर छपने से पहले ही दो देशों की सरकारों ने पाबन्दी लगा दी थी। वे दुनिया के पहले ऐसे कवि थे,जिन्होंने जेल की दीवारों पर कील से कविताएँ लिखी थीं। वे ऐसे पहले कैदी थे,जिनकी रिहाई का मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में चला था। वे एकमात्र ऐसे क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने उच्च कोटि के काव्य,नाटक, उपन्यास,कहानी,निबंध आदि के अलावा इतिहास और राजनीति पर पांडित्यपूर्ण मौलिक ग्रन्थों की रचना की थी। वे ऐसे पहले भारतीय नेता थे,जिन्होंने भारत की आज़ादी के सवाल को अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था। हमने सावरकर के अलावा क्या किसी ऐसे क्रान्तिकारी का नाम सुना है, जिसकी पुस्तकें मदाम भीकाजीकामा,सरदार भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस जैसे महापुरूषों ने अपने सिर-माथे पर रखी हों और उन्हें छपवाकर चोरी-छिपे बंटवाया हो ? २७ साल तक अण्डमान-निकोबार और रत्नागिरी की जेलों में अपना सर्वस्व होम देनेवाला सावरकर जैसा कोई दूसरा क्रांतिकारी क्या दुनिया में कहीं और हुआ है ? फिर भी क्या बात है कि सावरकर का नाम लेने में आजकल के तथाकथित राष्ट्रवादियों का भी कलेजा काँपता है ? इसका कारण स्पष्ट है। विनायक दामोदर सावरकर के माथे पर साम्प्रदायिकता और हिंसा का बिल्ला चिपका दिया गया है। यह माना जाता है कि भारत की सशस्त्र क्रांति और हिन्दू साम्प्रदायिकता के जन्मदाता सावरकर ही थे। इसमें शक नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दोनों आद्य निर्माता डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार और गुरू गोलवलकर सावरकर के अनुयायी थे, लेकिन क्या वजह है कि सावरकर के प्रति संघ में भी कोई उत्साह नहीं है ? सावरकर की तरह सशस्त्र क्रांतिकारी तो और भी कई हुए,लेकिन उनकी अवहेलना वैसी नहीं हुई,जैसी सावरकर की होती रही है। सावरकर की अवहेलना का मुख्य कारण यह था कि गाँधी और नेहरू को सबसे कड़ी चुनौती सावरकर ने ही दी थी। गाँधी के असली वैचारिक प्रतिद्वंद्वी जिन्ना,सुभाष और आम्बेडकर नहीं,सावरकर ही थे। उक्त तीनों नेताओं ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान कभी न कभी गाँधी के साथ मिलकर काम किया था,लेकिन सावरकर एक मात्र ऐसे बड़े नेता थे, जिन्होंने अपने लन्दन-प्रवास के दिनों से ही गाँधी को नकार दिया था। श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा लंदन में स्थापित ‘इंडिया हाउस’ का संचालन सावरकर किया करते थे। ‘इंडिया हाउस’ में दो बार सावरकर और गाँधी की भेंट भी हुई। गाँधी की तथाकथित ‘अंग्रेज-भक्ति’ और अहिंसा को सावरकर ने पहले दिन से ही गलत बताया था। यद्यपि गाँधी,सावरकर से १४ साल बड़े थे और सावरकर के लंदन पहुँचने (१९०६) के पहले ही वे अपने साउथ अफ्रीकी आंदोलन के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन अगले चार साल में ही सावरकर विश्व-विख्यात क्रांतिकारी का दर्जा पा गए थे। २७ साल की आयु में उन्हें पचास साल की सज़ा मिली थी। ब्रिटेन से भारत लाए जाते वक्त उन्होंने जहाज से समुद्र में छलांग क्या लगाई,वे सारी दुनिया के क्रांतिकारियों के कण्ठहार बन गए। दुश्मन के चंगुल से पलायन तो नेपोलियन,लेनिन और सुभाष बोस ने भी किया था,लेकिन सावरकर के पलायन में जो रोमांच और नाटकीयता थी,उसने उसे अद्वितीय बना दिया था। कल्पना कीजिए कि जैसे गाँधी १९१५ में दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भारत आए,वैसे ही १९१० में सावरकर अपनी वकालात पढ़कर भारत लौट आते तो क्या होता ? भारत का राष्ट्रपिता कौन कहलाता ? गाँधी या सावरकर ? भारत की जनता पर किसकी पकड़ ज्यादा होती,किसका असर ज्यादा होता ? गाँधी का या सावरकर का ? सावरकर को बाल गंगाधर तिलक,स्वामी श्रद्धानंद,लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय,विपिनचन्द्र पाल जैसे सबसे प्रभावशाली नेताओं का उत्तराधिकार मिलता और गाँधी को दादाभाई नौरोजी और गोपालकृष्ण गोखले जैसे नरम नेताओं का ! कौन जानता है कि खिलाफत का आंदोलन भारत में उठता या न उठता। जिस खिलाफत ने पहले जिन्ना को भड़काया,काँग्रेस से अलग किया और कट्टर मुस्लिम लीगी बनाया,उसी खिलाफत ने सावरकर को कट्टर हिन्दुत्ववादी बनाया। यदि मुस्लिम सांप्रदायिकता का भूचाल न आया होता,तो हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा सावरकर लगाते या न लगाते,कुछ पता नहीं। सावरकर के पास जैसा मौलिक पांडित्य,विलक्षण वक्तृत्व और अपार साहस था,वैसा काँग्रेस के किसी भी नेता के पास न था। इसमें शक नहीं कि गाँधी के पास जो जादू की छड़ी थी,वह सावरकर क्या,२० वीं सदी की दुनिया में किसी भी नेता के पास न थी लेकिन अगर सावरकर जेल से बाहर होते तो भारत की जनता काफी चक्कर में पड़ जाती। उसे समझ में नहीं आता कि वह सावरकर के हिन्दुत्व को तिलक करे या गाँधी के! उसे तय करना पड़ता कि सावरकर का हिन्दुत्व प्रामाणिक है या गाँधी का! यह भी संभव था कि सावरकर के हिन्दू राष्ट्रवाद और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद में सीधी टक्कर होती और १९४७ की बजाय भारत विभाजन १९३७ या १९२७ में ही हो जाता और गाँधी इतिहास के हाशिए में चले जाते! सावरकर के जेल में और गाँधी के मैदान में रहने के कारण जमीन-आसमान का अन्तर पड़ गया। १९३७ में सावरकर जब रिहा हुए,तब तक गाँधी और नेहरू भारत-हृदय सम्राट बन चुके थे। वे खिलाफत,असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन चला चुके थे। उन्होंने काँग्रेस को भारत की मुख्यधारा बना दिया था। जिन्ना, आम्बेडकर और मानवेंद्रनाथ राय अपनी अलग धाराएँ काटने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन गाँधी को उन्हीं के पाले में पहुँचकर चुनौती देनेवाला कोई नहीं था। यह बीड़ा उठाया सावरकर ने। सावरकर को काँग्रेस में आने के लिए किस-किसने नहीं मनाया, लेकिन वे ‘मुस्लिम ब्लैकमेल’ के आगे घुटने टेकनेवाली पार्टी में कैसे शामिल होते ? वे १९३७ में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बन गए। हिन्दू महासभा ने गाँधी के हिन्दूवाद और अहिंसा,दोनों को चुनौती दी।
सावरकर और गाँधी दोनों हिन्दुत्व के प्रवक्ता थे और दोनों अखंड भारत के समर्थक थे। गाँधी का हिन्दुत्व पारम्परिक,सनातनी, अहिंसक प्रतिकार और जन्मना वर्णाश्रम का समर्थक एवं अ-हिन्दुओं के प्रति उदार था, जबकि सावरकर का हिन्दुत्व अ-हिन्दुओं के प्रति ‘उचित’ रवैए का पोषक,परम्परा- भंजक,हिंसक प्रतिकार और बुद्धिवादी दृष्टिकोण का पक्षधर था। सावरकर ने हिन्दुत्व के २ आवश्यक तत्व बताए। जो व्यक्ति भारत भूमि (अखंड भारत) को अपना पितृभू और पुण्यभू मानता है,वह हिन्दू है। यह परिभाषा समस्त सनातनी,आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, देवसमाजी,सिख,बौद्ध,जैन तथा ब्राह्मणों से दलितों तक को हिन्दुत्व की विशाल परिधि में लाती है और उन्हें एक सूत्र में बाँधने और उनके सैनिकीकरण का आग्रह करती है। वह ईसाइयों और पारसियों को भी सहन करने के लिए तैयार है,लेकिन मुसलमानों को वह किसी भी कीमत पर ‘हिन्दू’ मानने को तैयार नहीं है,क्योंकि भारत चाहे मुसलमानों का पितृभू (बाप-दादों का देश)हो सकता है,लेकिन उनका पुण्यभू तो मक्का-मदीना ही है। उनका सुल्तान तो तुर्की का खलीफा ही है। यह एक तात्कालिक तथ्य था,चिरंतन सत्य नहीं, लेकिन इस तथ्य को हिन्दूवादियों ने एक तर्क में ढाल लिया और तत्कालीन मुस्लिम पृथकतावाद की खाई को पहले से अधिक गहरा कर दिया। सावरकर के इस तर्क की कमियों पर कभी अलग से चर्चा करेंगे,लेकिन यह मान भी लें कि सावरकर का तर्क सही है और मुसलमान हिन्दुत्व की परिधि के बाहर हैं तो भी सावरकर के हिन्दू राष्ट्र में मुसलमानों की स्थिति क्या होगी,यह कसौटी यह तय करेगी कि सावरकर साम्प्रदायिक थे या नहीं। सावरकर को जाँचने की दूसरी कसौटी यह हो सकती है कि यदि उन्होंने मुस्लिम पृथकतावाद और परराष्ट्र निष्ठा पर आक्रमण किया तो उन्होेंने हिन्दुओं की गंभीर बीमारियों पर भी हमला किया या नहीं ? दूसरे शब्दों में सावरकर के विचारों के मूल में हिन्दू साम्प्रदायिकता थी या शुद्ध बुद्धिवाद था, जिसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में उनकी क्रमशः व्यापक और सीमित स्वीकृति भी नहीं हो सकी। न हिन्दुओं ने उनका साथ दिया और न मुसलमानों ने उनकी सुनी। ‘न खुदा ही मिला और न ही विसाले-सनम!’
इन दोनों कसौटियों पर यदि सावरकर के विचारों को कसा जाए तो यह कहना कठिन जो जाएगा कि वे साम्प्रदायिक थे,बल्कि यह मानना सरल हो जाएगा कि वे उग्र बुद्धिवादी थे और इसीलिए राष्ट्रवादी भी थे। अगर वे साम्प्रदायिक होते तो १९०९ में लिखे गए अपने ग्रन्थ ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ में वे बहादुरशाह जफ़र,अवध की बेगमों,अनेक मौलाना तथा फौज के मुस्लिम अफसरों की बहादुरी का मार्मिक वर्णन नहीं करते। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ की भूमिका में वे यह नहीं कहते कि अब शिवाजी और औरंगजेब की दुश्मनी के दिन लद गए। यदि सावरकर संकीर्ण व्यक्ति होते तो लंदन में आसफ अली, सय्यद रजा हैदर,सिकन्दर हयात खाँ,मदाम भिकायजी कामा जैसे अ-हिन्दू लोग उनके अभिन्न मित्र नहीं होते। आसफ अली ने अपने संस्मरणों में सावरकर को जन्मजात नेता और शिवाजी का प्रतिरूप कहा है। सावरकर ने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में मुस्लिम लीग से टक्कर लेने की जो खुली घोषणा की थी,उसके कारण स्पष्ट थे। पहला,महात्मा गाँधी द्वारा चलाया गया खिलाफत आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता का अपूर्व प्रयास था, इसमें शक नहीं लेकिन उसके कारण ही मुस्लिम पृथकतावाद का बीज बोया गया। १९२४ में खुद तुर्की नेता कमाल पाशा ने खलीफा के पद को खत्म कर दिया तो भारत के मुसलमान भड़क उठे। केरल में मोपला विद्रोह हुआ। भारत के मुसलमानों ने अपने आचरण से यह गलत प्रभाव पैदा किया कि उनका शरीर भारत में है लेकिन आत्मा तुर्की में है। वे मुसलमान पहले हैं,भारतीय बाद में हैं। तुर्की के खलीफा के लिए वे अपनी जान न्यौछावर कर सकते हैं,पर भारत की आजादी की उन्हें ज़रा भी चिन्ता नहीं है। इसी प्रकार मुसलमानों के सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली द्वारा अफगान बादशाह को इस्लामी राज्य कायम करने के लिए भारत पर हमले का निमंत्रण देना भी ऐसी घटना थी,जिसने औसत हिन्दुओं को रुष्ट कर दिया और गाँधी जैसे नेता को भी विवश किया कि वे मोहम्मद अली से माफी मँगवाएँ। एक तरफ हिन्दुओं के दिल में यह बात बैठ गई कि मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं, और दूसरी तरफ मुस्लिम संस्थाओं ने यह मान लिया कि अगर अंग्रेज चले गए तो मुसलमानों को हिन्दुओं की गुलामी करनी पड़ेगी। इसीलिए,उन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगाने की बजाय उनसे अपने लिए रियायतें माँगना शुरू कर दिया। यदि जनसंख्या में उनका अनुपात २० से २५ प्रतिशत तक था तो वे राज-काज में ३३ से ५० प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व माँगने लगे। अपनी प्रकम्पकारी पुस्तक ‘पाकिस्तान पर कुछ विचार’ में डाॅ. आम्बेडकर ने इसे हिटलरी ब्लैकमेल की संज्ञा दी है। उन्होंने लोगों के बलात् धर्म-परिवर्तन, गुण्डागर्दी और गीदड़भभकियों की भी कड़ी निन्दा की है। सावरकर ने अपने प्रखर भाषणों और लेखों में इसी ब्लैकमेल के खिलाफ झण्डा गाड़ दिया। उन्होंने २९३७ के अपने हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में साफ़-साफ़ कहा कि काँग्रेस की घुटने टेकू नीति के बावजूद भारत में इस समय दो अलग-अलग राष्ट्र रह रहे हैं। यह भारत के लिए खतरे की घंटी है। यदि पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो वह भारत के लिए स्थायी सिरदर्द होगा। भारत की अखंडता भंग होने को है। उसे बचाने का दायित्व हिंदुओं पर है। इसीलिए ‘राजनीति का हिंदूकरण हो और हिंदुओं का सैनिकीकरण हो।’ अहिंसा जहाँ तक चल सके,वहाँ तक अच्छा,लेकिन उन्होंने गाँधी की परमपूर्ण अहिंसा को अपराध बताया। जुलाई १९४० में जब सुभाष बोस सावरकर से बंबई में मिले तो उन्होंने सुभाष बाबू को अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी।
अपने अनेक भाषणों और लेखों में सावरकर ने साफ़-साफ़ कहा कि हिन्दू लोग अपने लिए किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते। वे एक संयुक्त और अखंड राष्ट्र बनाकर रह सकते हैं,बशर्ते कि कोई भी समुदाय अपने लिए विशेषाधिकारों की माँग न करे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा-” भारतीय राज्य को पूर्ण भारतीय बनाओ। मताधिकार,सार्वजनिक नौकरियों,दफ्तरों, कराधान आदि में धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। किसी आदमी के हिन्दू या मुसलमान,ईसाई या यहूदी होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। ….जाति,पंथ,वंश और धर्म का अन्तर किए बिना ‘एक व्यक्ति,एक वोट’ का नियम राज्य का सामान्य आधार होना चाहिए।” क्या यह घोषणा साम्प्रदायिक है ? लगभग १० हजार पृष्ठ के समग्र सावरकर वाडमय (प्रभात प्रकाशन) में ढूँढने पर भी कहीं ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं,जिनमें मुसलमानों को सताने,तंग करने या दंडित करने की बात कही गई हो। ‘हिन्दुत्व’ नामक अत्यंत चर्चित ग्रंथ में तत्कालीन मुसलमानों की ‘राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए सावरकर लिखते हैं कि उन्होंने हिंदुत्व का नारा क्यों दिया था।
“अपने अहिन्दू बंधुओं अथवा विश्व के अन्य किसी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाने हेतु नहीं,अपितु इसलिए कि आज विश्व में जो विभिन्न संघ और वाद प्रभावी हो रहे हैं,उनमें से किसी को भी हम पर आक्रांता बनकर चढ़ दौड़ने का दुस्साहस न हो सके।” उन्होंने यह भी कहा कि-“कम से कम उस समय तक ‘हिन्दुओं को अपनी कमर कसनी होगी’ जब तक हिन्दुस्थान के अन्य सम्प्रदाय हिन्दुस्थान के हितों को ही अपना सर्वश्रेष्ठ हित और कर्तव्य मानने को तैयार नहीं हैं…।” वास्तव में भारत की आज़ादी के साथ वह समय भी आ गया। यदि १९४७ का भारत सावरकर के सपनों का हिन्दू राष्ट्र नहीं था तो क्या था ? स्वयं सावरकर ने अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले १९६५ में ‘आर्गेनाइज़र’ में प्रकाशित भेंट-वार्ता में इस तथ्य को स्वीकार किया है। सावरकर ने मुसलमानों का नहीं,बल्कि उनकी तत्कालीन ब्रिटिश भक्ति,पर-निष्ठा और ब्लैकमेल का विरोध किया था। क्या स्वतंत्र भारत में यह विरोध प्रासंगिक रह गया है ?
इस विरोध का आधार संकीर्ण साम्प्रदायिकता नहीं,शुद्ध बुद्धिवाद था। यदि वैसा नहीं होता तो क्या हिंदुत्व का कोई प्रवक्ता आपात् परिस्थितियों में गो वध और गोमांस भक्षण का समर्थन कर सकता था ? स्वयं सावरकर का अन्तिम संस्कार और उनके बेटे का विवाह जिस पद्धति से हुआ, क्या वह किसी भी पारम्परिक हिन्दू संगठन को स्वीकार हो सकती थी ? सावरकर ने वेद-प्रामाण्य,फलित ज्योतिष,व्रत-उपवास, कर्मकांडी पाखंड,जन्मना वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता,स्त्री-पुरूष समानता आदि प्रश्नों पर इतने निर्मम विचार व्यक्त किए हैं कि उनके सामने विवेकानंद,गाँधी और कहीं-कहीं आम्बेडकर भी फीके पड़ जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उनसे सहमत होना तो असंभव ही था। सावरकर के विचारों पर अगर मुल्ला-मौलवी छुरा ताने रहते थे तो पंडित-पुरोहित उन पर गदा-प्रहार के लिए कटिबद्ध रहते थे। जैसे कबीर और दयानंद की स्वीकृति कहीं भी सहज नहीं है,वैसे ही सावरकर की भी नहीे हैं।
(लेख डॉ. वैदिक के ग्रंथ ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान’ में प्रकाशित। )

परिचय-डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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