शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान)
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समुद्र मंथन प्रसंग………….
तपता सूरज आग लगाये चन्द्र सुधा बरसाये,
बहुत जरूरी है दोनों ही मानव जीवन पाये।
मथा जलधि को देव दानवों ने घट विष का पाया,
कैसे सृष्टि बचेगी इससे समझ यही नहीं आया।
देवों की विनती सुन भोले जहर पी गये सारा,
इस सृष्टि को घोर कष्ट से शिव ने जहां उबारा।
घट निकला अमृत का तब दानव सारे ललचाये,
जैसे भी हो सारा अमृत
हाथ हमारे आये।
तब विष्णु ने माया से था मोहिनी रूप बनाया,
पल में वारुणि पल में अमृत दोनों को पिलवाया।
देवों की पंक्ति में राहु वेश बदल कर आया,
धोखा देकर देव बना थोड़ा अमृत पी पायाl
मस्तक छिन्न किया विष्णु ने चक्र सुदर्शन लाकर,
मस्तक गिरा कहीं राहु का,देह कहीं पर जाकर।
धड़ केतु और मस्तक राहु अलग हो गई काया,
धूर्त आदमी तब से ही राहु-केतू कहलाया।
अमृत में वो शक्ति है मृत को जीवन देता है,
जैसे दुश्मन को मृदुभाषी अपना कर लेता हैll
परिचय-शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है।