अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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चुनावों में राजनीतिक दल जनता से डरते हैं ओर परिणाम आने यानी सत्ता मिलने के बाद कांग्रेस, शिवसेना, भाजपा आदि सभी दल जन-डर छोड़ कर बस राजनीतिक हार और जीत की चिंता करते हैं। खास बात यह है कि इसे दलों ने सुविधाजनक नाम ‘सेवा’ दे दिया है, जबकि यह ‘मेवा’ है। सत्ता में आने के बाद विधायक तक के चारों तरफ कड़ी सुरक्षा रहती है और बाहरी लोगों से मिलना-जुलना कम ही होता है, पर उनके लिए मोबाइल से खाने-पीने, खेलने-कूदने और मौज-मजे तक का पूरा इंतजाम रहता हैं। उन पर लाखों रु. रोज़ खर्च होता है। इस सेवा ओर सत्ता प्राप्त करने की कोशिश में बड़ा सवाल यह है कि, आखिर जनता का क्या कसूर है ? आज लगभग सभी दल मूल भावना से हट गए हैं। कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि आज की राजनीति सेवा के लिए नहीं, बस मेवे के लिए है।
सेवा-मेवा बनाम महाराष्ट्र में कुर्सी बदलने के चक्कर में जो हुआ, वैसा ही कुछ खेल मध्यप्रदेश में सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के नायकत्व में हो चुका है। फलस्वरूप मप्र में कमल नाथ के हाथ से सत्ता छूट गई एवं भाजपा पुनः सत्ता में लौट आई।
महाराष्ट्र में हुए फेरबदल ने सभी दलों को अनेक सबक दिए हैं, अगर वो इसे दूर तक समझें तो, वरना तो वर्तमान राजनीति में न किसी सिद्धांत का महत्व है, न नीति का, न विचारधारा का। आजकल राजनीति में झूठ-सच, निंदा-स्तुति, अपार आमदनी तथा बेहिसाब खर्च, चापलूसी और कटु निंदा ही सब कुछ तथा जायज है।
ऐसा नहीं कि सारे ही नेता खराब हैं, राजनीति में कई सक्रिय और अच्छे लोग आज भी अपवाद हैं, लेकिन इसी वजह से वे सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंच सके हैं। आज वही सफल है, जो अपने तेज दिमाग और कुटिलता से ऊपर तक जाता है। इनका दावा जनसेवा का ही होता है, पर दल और निष्ठा बदलने से शर्म नहीं करते हैं। सेवा और मेवे के लिए यह भाजपा से कांग्रेस में या शिवसेना से भी कांग्रेस में आने-जाने मतलब पाला बदलने में कोई लिहाज नहीं करते हैं।
हाल ही इस राजनीतिक फेरबदल से शिवसेना सहित भाजपा और कांग्रेस को भी सबक मिला है एवं संकट के इस सबक को गैर सत्तासीन दलों को नजीर की तरह सामने अवश्य रखना चाहिए।
जिस प्रकार महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार का सूर्य अस्त हुआ और सेनापति-मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को शिवसैनिक एकनाथ शिंदे ने जमीन दिखाई है, वह गठबंधन की किसी भी सरकार के लिए बड़ा संकेत है कि चलने वाली हर चीज सरकार नहीं हो सकती है, क्योंकि दल में एकता के लिए सबकी सुननी भी होगी और करनी भी होगी। उद्देश्य से भटकने के खिलाफ हर दल में कोई ना कोई एकनाथ शिंदे अवश्य होता है, जो भटकने की नीति के बिल्कुल खिलाफ होगा, और समय आने पर विरोध में बोलेगा भी। ऐसा ही लगभग शिवसेना के नेतृत्व ने किया, यानी मूल उद्देश्य से हाथ खींचकर सत्ता की खातिर हिन्दुत्व के कट्टर विरोधी और प्रतिद्वंदी दल से हाथ मिला लिया। बागीपन के लिए यह बड़ी वजह बनी तो अन्य छोटे-छोटे कारण भी बढ़ते गए और नतीजा कि सरकार चली गई। शिवसेना में बरसों से निष्ठापूर्वक सक्रिय नेताओं को इस बात पर नाराजी रही कि शिवसेना ने हिंदुत्ववादी भाजपा का साथ छोड़ दिया और जिस कांग्रेस के खिलाफ बाल ठाकरे ने शिवसेना को जन्म दिया, उद्धव ठाकरे उसी से लाड़ दिखाकर गोद में बैठ गए। भाजपा के साथ हुई लड़ाई में यह बात भी साफ हो चुकी थी कि उद्धव ठाकरे ने किसी वैचारिक मतभेद के कारण नहीं, बल्कि व्यक्तिगत राग-द्वेष और आरोपों-प्रत्यारोपों के कारण भाजपा से वर्षों पुराना संबंध तोड़ा है।
यहाँ यह भी सबक है कि, दल को भले ही घर समझें, पर खुद को एकमात्र मुखिया नहीं। दल को राजनीतिक दल की भांति ही चलाएँ तो बेहतर होगा, अन्यथा सैनिक बनाम कार्यकर्ता विद्रोह करते ही हैं, फिर भले ही आप अनुशासन की ताल छेड़ते फिरें।
फिलहाल भाजपा के लिए ऐसा भी समझ सकते हैं कि, भाजपा ने एक हाथ से बाग़ी शिवसेना को साधा है। मतलब उसके मुँह में खीर रखी है, तो दूसरे तरीके से शिवसेना की जड़ों में मठ्ठा भी डाल दिया है। हालांकि, इसका परिणाम भविष्य ही तय करेगा। यानी कि सत्ता की खीर चाटकर शिवसेना बचती है या जड़ों में डाली गई छाछ से खत्म होती है।
यहाँ एक सबक विरासत का भी सामने आया है। बाला साहब की कुर्सी पर उद्धव जमे और बेटे आदित्य को भी वैसे ही जमाने के लिए सारे प्रयास सबको दिख रहे थे। जैसा कि कांग्रेस में लंबे समय से जारी है, और उसका नतीजा देखकर भी शिवसेना मुखिया नहीं समझे थे, मगर शिवसेना के कई नेताओं की इन चिंगारियों ने ज्वाला बनकर उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री से बहुत जल्दी ही पूर्व बना दिया है। अब सरकार के गिरने के बाद शिवसेना का नेतृत्व और कार्यकर्ता इस पर खूब विचार करें कि कांग्रेस से हाथ मिलाना कितना सही था या भाजपा से लड़ना कितना गलत, पर नुकसान तो हो गया ना।
इधर, भाजपा ने बहुत दूर से तमाशा देखा और शायद खेला भी, साथ ही एकनाथ को राज्य की कमान दी है, जो भविष्य की राजनीति का बड़ा संकेत है। उद्धव ठाकरे को सबक सिखाने के लिए भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री नही बनाया है, जिससे संभवतः शिवसेना के नाथ भी शिंदे बन सकें।
यह राजनीतिक घटनाक्रम देश के हर उस नेता को बड़ा सबक है जो पद और सत्ता के लिए अभिमान रखते हैं, संघर्ष और उद्देश्य को भूलकर मेवा खाने लगते हैं, एवं दल को अपना जेबखर्च मानकर अहंकार की रेल चलाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि दल तो उसके संविधान अनुसार ही चलता है, और मनमानी की जाती है तो सत्ता से दूरी, अनुशासनहीनता और आत्मा की सुनकर सिंधिया से अनेक एकनाथ शिंदे पैदा होते जाते हैं।