योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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भीड़ भरी बस में ठूस-ठाँस के चढ़ता हूँ,
खाली सीट नहीं,मन ही मन कुढ़ता हूँ
अपने को बेसहारा पाकर भी चिढ़ता हूँ-
पुरानी बातें पाने को अब तो तरसता हूँ;
ऐसे में कोई जवान खड़ा होकर-
मुझको अपनी सीट पर बैठाता है,
मैं मन से खुश नहीं हो पाता-
क्योंकि,खुद को बेचारा पाता हूँ!!
महिला-सीट पर कभी जा बैठता-
दाबी जताने पर,बगलें झांकता;
तब बगल में बैठी दया दिखाती है,
अपनी दरियादिली पर इतराती है;
कहती छोड़ो भी,बैठे रहने दो,
अपना बड़प्पन भी जताती है!
मैं फिर भी खुश नहीं हो जाता हूँ-
क्योंकि,खुद को बेचारा पाता हूँ!!
खाने-पीने का मुझे शौक नहीं-
पर,सबका साथ निभाता हूँ;
पर,खाने में साथ न दे पाता,
हर कोर में पिछड़ता जाता हूँ;
औरों का साथ छोड़ नहीं पाता-
सब साथ ही हाथ धो लेता हूँ;
यूँ मैं बस भूखा ही रह जाता हूँ,
और,खुद को बेचारा पाता हूँ!!
जीवन मेरा है नदी प्रवाह-तरह-
राह रोके को बहा हटाता हूँ;
नित नई राह भी बनाता रहता-
जन-जन की प्यास बुझाता हूँ;
‘स्व’ भूल परमार्थ में जीता हूँ-
हर दौड़ में मैं साथ हो लेता हूँ;
मन मार कभी दम नहीं हारता-
मन बूढ़ा कहाँ,बूढ़ा कहाता हूँ!
जाने कितने आस लिए बैठे हैं-
उम्र-बल पर वे अकड़े ऐंठे हैं;
आस लगाए हैं,बस जाने की-
स्वार्थ में आँख मूंदकर लेटे हैं;
जब तक साँस है,आस भी है-
कुछ करते रहने की चाह भी है;
न जाने कौन बूढ़ा क्या दे जाए-
सूर,तुलसी सम कहला जाए;
सहारा खोजने कहाँ पर जाता हूँ-
क्योंकि,खुद को बेचारा पाता हूँ!!
सौ वर्ष जीने की चाह किसे नहीं,
सुनने,बोलने की ‘राह’ हो सही;
आँखों से देखता रहूँ अग-जग-
दीनता डर की हो परवाह नहीं;
सौ शरद पार करें,पार जाएं-
कर्म करते रहने का मैं मारा हूँ;
मन पूछता तब मुझसे ही है-
क्या मैं बूढ़ा हूँ,क्या मैं बेचारा हूँ ?
जीवन हित ही उद्यम का नारा है-
पर कहे न कोई,यह बूढ़ा बेचारा है!
कर्म करना है जो करता रहता हूँ
सौ बरस जीने की आस धरता हूँ;
इसके सिवाय न उपाय समझता हूँ-
पर कर्म करने को भी न मरता हूँ,
जीवन जीने को कार्यरत रहना
आर्ष वाक्य यह शाश्वतरा सारा है,
पर कभी न झेंपो,न ही सुनो कि-
यह तो अब बूढ़ा है,बेचारा है!!
परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”