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‘सुपर-३०’ बलिहारी गुरु अपने गोविंद दियो बताय

इदरीस खत्री
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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फिल्म ‘सुपर-३०’ के लेखक-निर्देशक विकास बहल हैं,तो पटकथा-फरहाद सामजी की है। इसमें अदाकार ऋतिक रोशन,मृनाल ठाकुर, पंकज त्रिपाठी,नन्दिश संधू,आदित्य श्रीवास्तव एवं वीरेंद्र सक्सेना हैं। संगीत-अतुल अजय और जिलियस पैकीयम ने दिया है।
फ़िल्म से पहले छोटी चर्चा-दोस्तों, स्कूल के समय में गणित एक ऐसा विषय था,जिसका नाम आते ही जिस्म के अनेक हिस्सों से पसीना आने लगता था। यह फ़िल्म बिहार के पटना के एक गणित के शिक्षक आनंद कुमार पर आधारित है या थी,जिसे बदल कर प्रेरित घोषणा की गई। शिक्षा की बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में हो,और बेबिगटन मैकाले का जिक्र न हो तो अधूरा लगेगा,क्योंकि हमारी गुलामी की सही व्याख्या और फायदा इसी ब्रिटिश साम्राज्य का नौकर बताता है। इसे भारतीय शिक्षा पद्धति बनाने के लिए भेजा गया था तो उसका उद्देश्य भारत में अंग्रेजों के गुलाम और क्लर्क तैयार करना था। इसी उद्देश्य को लेकर मैकाले ने शिक्षा नीति बनाई और सन १८५० में लागू की थी। तब देश में ७.३० लाख गुरुकुल थे,जिनमें १८ विषयों पर अध्ययन होता था,जिस शिक्षा नीति पर राजीव गांधी सरकार ने रद्दोबदल की कोशिश की थी।
वर्तमान में भी आनन्द कुमार एक शिक्षक है,जो आईआईटी के लिए उन छात्रों को तैयार करते हैं,जो निर्धन,और साधनविहीन होते हैं। वह ३० छात्रों को प्रतिवर्ष चुनते हैं,और आई आईटी में चयन के लिए तैयार करते हैं। यह जज्बा निसन्देह,पूरे देश पर एहसान महसूस होने लगा है कि देश के संसाधनों,नौकरियों पर जितना हक पूंजीपतियों का है,उतना ही हक गरीब मिस्कीन का भी है। आनन्द कुमार का यही जज्बा दिल को छू गया। जहां सफलता,वहां विवाद भी होते ही हैं,पर हम आनन्द कुमार के जीवन के विवादों को दरकिनार करके उपलब्धियों पर चर्चा करते हैं।
देश में बॉयोग्राफी फिल्मों की बाढ़ आ रही है-भाग मिल्खा भाग,सचिन,धोनी,केसरी, पेडमैन,अज़हर,संजू,राजी…और लम्बी फेहरिस्त हो सकती है,पर आनन्द कुमार शिक्षक के सामान्य वर्ग से होकर सामान्य छात्रों को असामान्य बनाने की कवायद ही विषय को खास बनाती है।


अब फ़िल्म पर चर्चा-
“गुरू गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु अपने गोविंद दियो बताय।”
गुरू का दर्जा इस देश में भगवान से भी बुलन्द माना गया है,और यह कहानी गुरू पर ही आधारित है। कहानी बिल्कुल आसान है कि एक साधनविहीन आनन्द कुमार,जो गणित के शिक्षक हैं,उनकी यात्रा कैसी-कैसी बाधाओं से गुजरी,और कैसे आनन्द ने निर्धन छात्रों को उनके मुकाम तक पहुचाया है।
फिल्म का संगीत अच्छा बना है। सभी गाने लगभग परिस्तिथितिजन्य रखे गए हैं,जो भारतीय सिनेमा में लंबे समय बाद देखने को मिले हैं। गाना-जोग्राफिया,पैसा ये पैसा, बसन्ती नो डांस अच्छे बन पड़े हैं। बसन्ती नो डांस में तो अमिताभ भट्टाचार्य ने अंग्रेजी और भोजपुरी का गजब का तालमेल डाल दिया है। सुनने में कर्णप्रिय लगे,लेकिन कुछ जगह पर जूलियस पैकीयम का बेक ग्राउंड डरावने दृश्यों का अनुभव देता है।
यह फ़िल्म पूरी शिक्षा पद्धति पर प्रहार करती है। शिक्षा मंत्री बोलते दिखे कि-“शिक्षा के नाम पर सरकार से जमीन लेंगे,बिल्डिंग के निचले हिस्से शिक्षा व्यवस्था,उसके ऊपर बार,उसके ऊपर शहर का सबसे बड़ा बैंक्वेट(शादी) हॉल बनेगा।” यह संवाद बदहाल शिक्षा व्यवस्था की गाथा सुना गया है। निर्देशक विकास बहल पहले-क्वीन, चिल्लर पार्टी बना चुके हैं,लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने हर आयाम को सफलता से निभाया है। फ़िल्म को चटपटा बनाने के लफड़े में उन्होंने सिनेमाई आज़ादी का ज्यादा फायदा उठा लिया,जिससे फ़िल्म देखते वक्त मन में सवाल बनने लगते हैं तो हमारे देश में फिल्मों में यह चलन बेहद आम भी है। उदाहरण-दंगल,पेडमैन,केसरी,एयरलिफ्ट,पद्मावत लगभग सभी में इसी आज़ादी का भरपूर फायदा लिया गया भी था,लेकिन इस फ़िल्म में आपका ध्यान उधर नहीं जा पाएगा।
फ़िल्म इतनी कसी हुई है कि १५४ मिनट कब पार हो गए,पता ही नहीं पड़ा।
अदाकारी-ऋतिक ने सात्विक अभिनय (मैथड एक्टिंग) को शानदार अँगीकृत किया है,वैसे भी ‘कृष’ की असल ज़रूरत देश के छात्रों को पढ़ाई में ही है,तो ग्रीक गॉड की छवि को तोड़ते हुए ऋतिक ने बड़ी लगन, ईमानदारी,शिद्दत से आनन्द कुमार की आम ज़िन्दगी को पेश किया है। यह क़ाबिले तारीफ है,बस कहीं-कहीं वह भोजपुरी भाषा परोसने पर पकड़ नहीं बना पाए,लेकिन यह गलती नज़रअंदाज़ की जा सकती है। ऋतिक ने भावनात्मक दृश्यों में जान फूँक दी है,जो आपको ऋतिक की अभिनय क्षमताओं से रूबरू कराता है। पंकज त्रिपाठी जिस फैक्टरी से अभिनय के गुर लेकर आए हैं,वह उनके हर किरदार की प्रस्तुतिकरण में झलकता है। आदित्य श्रीवास्तव मंजे हुए सहज अभिनेता हैं। वीरेंद्र सक्सेना कम काम पर भी शानदार लगे हैं। मृणाल ठाकुर पिछली फिल्म ‘लव सोनिया’ में दिखी थी, स्वभाविक लगी है। मुकेश छाबड़ा की कास्टिंग ऐसी लगी,मानो किसी माला में मोती पिरो दिए हैं।
मर्मस्पर्शी पल-ऋतिक उनके पापा,भाई तीनों एक सायकल पर जाते हैं,यह दृश्य दिल में घर जाता है। आनन्द कुमार चोरी-छिपे एक वाचनालय में पढ़ रहे होते है,तो उन्हें धक्के मारकर बाहर निकालना,फिर उसी पुस्तक में आनन्द का शोध छपना,फिर आनन्द का उस वाचनालय के चपरासी के पैर छूना… और अंतिम दृश्य में छात्रों की सफलता पर भावनात्मक दृश्य में ऋतिक ने जान डाल दी है। एक और दृश्य जिसमें सभी सुपर ३० छात्र ऋतिक से मिलते हैं,उस पर बेकग्राउंड में विद्या-विद्या सरस्वती का गूंजना भी दिल को छू जाता है। आनन्द कुमार का एक छात्र अमेरिका में सफलता के झंडे गाड़ कर आनन्द कुमार की कहानी बयां करता है।
पटकथा लाजवाब है,कई संवाद आपको सालों तक याद रहेंगे,जिसे फरहाद ने बड़ी ईमानदारी से लिखा है। एक संवाद “ये अमीर लोग खुद के लिए चिकनी सड़कें बनाए,और हमरे लिए राहों में बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए,पर हमें छलांग लगाना सिखा दिए। एक दिन सबसे बड़ी छलांग हम ही लगाएंगे”,ये संवाद नकारात्मकता में भी सकारात्मकता खोज लेने वाली बात है, जो लाजवाब है। फ़िल्म हमारी परम्परागत गुरुकुल व्यवस्था की याद ताजा कर गई है।
हमारा नज़रिया-चूंकि सिनेमा समाज का आईना होता है,तो इस विषय यानी हमारी शिक्षा पद्धति पर सवाल उठाती और भी फिल्मों की दरकार और रहेगी। बजट और कमाई-फ़िल्म की लागत ४५ करोड़ है। १५ करोड़ विज्ञापन,वितरण, प्रदर्शन खर्च जोड़कर ६० करोड़ है। फ़िल्म के सेटेलाइट अधिकार ६० करोड़ में बेच दिए गए हैं। थियेटर अधिकार ४५ करोड़ में,संगीत अधिकार १० करोड़ में बिक चुके हैं तो फ़िल्म अपनी लागत से दुगना प्रदर्शन के पूर्व ही निकाल चुकी है। फिर भी पहले दिन की शुरूआत ८ से १२ करोड़ की हो सकती है।अब जबकि,भारत की वर्ल्ड कप से वापसी हो गई तो रविवार को २५ से ३५ करोड़ का सप्ताहांत मिल सकता है।
निष्कर्ष-फ़िल्म अभिप्रेरणा से भरपूर है। देश के हर छात्र के साध अध्यापक को भी फ़िल्म देखकर प्रेरणा लेनी चाहिए। सरकार को नैतिक जवाबदारी मानते हुए फ़िल्म को ‘कर मुक्त’ कर देना चाहिए। फ़िल्म आपकी परवाज़ को पंख लग देगी। शायद फ़िल्म हमारे देश की सरकार के कान तक पहुंचने में भी कामयाब हो,जो शिक्षा पद्धति पर भी अपना ध्यान दे पाएगी। फ़िल्म को साढ़े ३ अंक देना बेहतर है।

परिचय : इंदौर शहर के अभिनय जगत में १९९३ से सतत रंगकर्म में इदरीस खत्री सक्रिय हैं,इसलिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग १३० नाटक और १००० से ज्यादा शो में काम किया है। देअविवि के नाट्य दल को बतौर निर्देशक ११ बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में देने के साथ ही लगभग ३५ कार्यशालाएं,१० लघु फिल्म और ३ हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। आप इसी शहर में ही रहकर अभिनय अकादमी संचालित करते हैं,जहाँ प्रशिक्षण देते हैं। करीब दस साल से एक नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं। फिलहाल श्री खत्री मुम्बई के एक प्रोडक्शन हाउस में अभिनय प्रशिक्षक हैंl आप टीवी धारावाहिकों तथा फ़िल्म लेखन में सक्रिय हैंl १९ लघु फिल्मों में अभिनय कर चुके श्री खत्री का निवास इसी शहर में हैl आप वर्तमान में एक दैनिक समाचार-पत्र एवं पोर्टल में फ़िल्म सम्पादक के रूप में कार्यरत हैंl