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स्वर्ण प्राशन:अत्यंत लाभकारी लुप्त विधा को पुनर्जीवित करने की जरूरत

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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आयुर्वेद में सोलह संस्कारों का विधान है,जिनमें से एक है-जात कर्म संस्कार,जिसके अंतर्गत स्वर्ण प्राशन करवाया जाता है। बच्चे के जन्म के समय किया जाने वाला यह संस्कार आयुर्वेद के ग्रंथों अनुसार वैद्य द्वारा मंत्रोच्चार के साथ स्वर्ण भस्म युक्त स्वर्ण प्राशन करवाया जाता था।
प्राचीन शास्त्र अनुसार स्वर्ण प्राशन में गाय के घी मधु यानी शहद (तथा स्वर्ण भस्म के साथ मेधा वर्धक औषधियों) का प्रयोग किया जाता था। इस संस्कार को समय के साथ भुला दिया गया,जिससे इसका लाभ आधुनिक पीढ़ी को नहीं मिल पाया।
२१वीं सदी में भी आयुर्वेद के कुछ वैद्य हैं,जो इस संस्कार को जीवित रखते हुए नई पीढ़ी को बेहतर भविष्य बेहतर स्वास्थ्य देने के उद्देश्य से इस संस्कार को पुनः समाज में समाज कल्याण के लिए प्रयास कर रहे हैं।
स्वर्ण प्राशन में मुख्यतः असमान मात्रा में शहद, गाय के घी तथा स्वर्ण भस्म को निश्चित अनुपात में मिलाकर ६ माह से १६ वर्ष तक के बच्चों तक को इसका सेवन पुष्य नक्षत्र में आयुर्वेद वैद्य द्वारा करवाया जाता है।
दरअसल,जातकर्म संस्कार राजवैद्य द्वारा राजघरानों में राजकुमारों को करवाया जाता था, ताकि आने वाली पीढ़ी स्वस्थ,सुंदर तथा तीव्र बुद्धि के साथ कुशल नेतृत्व वाली बने। स्वर्ण प्राशन का महत्व आज के समय के टीकाकरण से उस समय में जोड़ा जाता है। उस समय के ऋषि-मुनि तथा वैद्य ने एक स्वस्थ कुशल नेतृत्व वाले समाज की कल्पना की और प्राशन संस्कार को मनुष्य जीवन में जोड़ा,जो लगभग आज के समय में लुप्त हो गई है।
कई प्रयोगों में यह साबित हो चुका है कि आयुर्वेदिक औषधियां कई असाध्य रोगों को जड़ मूल से खत्म कर रही हैं। स्वर्ण प्राशन से बच्चों में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है,बौद्धिक विकास होता है,शारीरिक विकास होता है। यह पाचन शक्ति और बल को भी बढ़ाता है। स्वर्ण प्राशन का महत्व आज से हजारों साल पूर्व प्राचीन वेदों में बताया गया है कि,यह बच्चों में ओजस्विता निरोगी तथा बौद्धिक क्षमता को बढ़ाता है।
आज के दौड़ भाग के समय में बच्चों में पोषण की कमी,रसायन युक्त पदार्थों के सेवन तथा जीवन शैली के बदलाव के कारण बच्चों में भूलने की बीमारी,आँखों की रोशनी,कुपोषण तथा अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अज्ञानता से कई सुदूर क्षेत्रों में बच्चों के भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। ऐसे समय में स्वर्ण प्राशन के माध्यम से बच्चों के बौद्धिक विकास,मानसिक विकास तथा उनके भविष्य के लिए इस विधा को पुनर्जीवित करने में सहयोग की जरूरत है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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