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हर और दीवारें, राह बनाने के हो रहे उपाय

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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जनभाषा में न्याय!….

स्वाधीनता के पश्चात भी न्याय पाने का मार्ग हमेशा से अंग्रेजी के संकरे मार्ग से होकर गुजरता रहा है, जिसमें से कुछ संपन्न अंग्रेजी शिक्षा पढ़े लोग ही जा पाते हैं। इसलिए यह कहा जाता रहा है कि भारत में न्याय, विशेष कर उच्च स्तर पर सम्पन्न व प्रभावशाली वर्ग के लिए ही सुलभ है। आज़ादी के अमृत महोत्सव में भी जनता जनभाषा की माँग लेकर यहाँ से वहाँ भटक रही है।
अब ३० अप्रैल को मुख्यमंत्रियों और देश के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की सभा में स्वाधीनता के बाद पहली बार भारत के मुख्य न्यायाधीश और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जनभाषा में न्याय की पैरवी की तो जनता को आस बंधी।
उल्लेखनीय है कि देश के विभिन्न भागों में जनभाषा में न्याय के पक्षधर अनेक वकील, न्यायाधीश तथा जनतांत्रिक अधिकारों के पक्षधर और भारतीय भाषा सेनानी इस दिशा में प्रयास करते रहे हैं, लेकिन न्यायपालिका पर अपना शिकंजा जमाए अंग्रेजी के प्रबल पक्षधर नेतागण, नौकरशाह, न्यायाधीश, अधिवक्तागण आदि जो न्याय की पहुंच भी एक विशेष समृद्ध और अंग्रेजी शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रखना चाहते हैं, वे नहीं चाहते कि जनभाषा में न्याय हो। उन्होंने हर कदम जनभाषा में न्याय की राह में रोड़े अटका रखे हैं।
जनभाषा में न्याय की लड़ाई लड़ रहे, ‘वैश्विक हिंदी सेवा सम्मान’ से सम्मानित पटना उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्या. के अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद पिछले समय से जनभाषा के निर्भीक सिपाही के रूप में न्यायपालिका से जूझते रहे हैं। हर बार नई समस्याएँ खड़ी की जाती रही, पर चोटिल होने पर भी कभी हार न मानने वाले इंद्रदेव प्रसाद ने अब सर्वोच्च न्या. में हिंदी में याचिका लगाई है, जिसकी सुनवाई स्थगित हो गई है।
अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद बताते हैं कि यह मुकदमा हिंदी में दाखिल हुआ है। इसका अंग्रेजी अनुवाद उच्चतम न्या. के अनुवाद विभाग ने किया है, लेकिन अनुवाद का खर्चा भी आवेदक से लिया गया है। यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसे जानकर लोग अचंभित हैं। इसलिए भी अचंभित हैं, क्योंकि भारतीय भाषा अभियान द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष का भाषण हुआ है कि अगर कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय में हिंदी में मुकदमा दाखिल करता है और अंग्रेजी अनुवाद मांगा जाता है, तो यह गुलामी का प्रतीक है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं बिहार बार काउंसिल के तत्वावधान में राष्ट्रीय विचार गोष्ठी (२४ सितम्बर २०२२) में केंद्रीय विधि मंत्री का भाषण हुआ था। उसमें उन्होंने कहा कि जो न्यायमूर्ति हिंदी नहीं समझते हैं, उन्हें अनुवादक यंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए, जिसका समर्थन उच्चतम न्या. के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा भी लोगों के बीच किया गया।
अधिवक्ता श्री प्रसाद का कहना है कि, हिंदी आवेदन का अंग्रेजी अनुवाद भले ही बन गया , लेकिन अब उच्चतम न्या. के कुछ अभिलेख अधिवक्ता भी चाहते हैं कि, हिंदी आवेदन के समर्थन में हिंदी में बहस हो और अब कुछ अधिवक्ताओं का भी साथ मिलना शुरू हो गया है। पहली बार सर्वोच्च न्या. के अभिलेख अधिवक्ता ने अपना वकालतनामा दाखिल किया है। सर्वोच्च न्या. में हिंदी में बहस होगी।
बड़ा सवाल यह है कि न्यायाधीश को जनता की भाषा आनी चाहिए या पूरे देश की जनता न्यायाधीश की भाषा सीखे ? यह भी विचारणीय है कि, जब अंग्रेजी अनुवाद की आवश्यकता न्यायाधीश को है, अनुवाद न्या. का अनुवाद विभाग करता या करवाता है, तो उसके अनुवाद का खर्च अधिवक्ता यानी अंतत: न्याय पाने वाले से क्यों लिया जाए। यह न्याय है या अन्याय ? इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।
भारत के प्रधानमंत्री, विधि एवं न्याय मंत्री तथा पूर्व और वर्तमान मुख्य न्यायाधीशों द्वारा जनभाषा में न्याय के समर्थन के बावजूद भी जनभाषा में न्याय का कोई रोड़ा नहीं हट रहा। जनभाषा में न्याय का एक ही उपाय। संविधान के अनुच्छेद ३५० के उपबंध के आलोक में जनतंत्र के बुलडोजर से संविधान-संशोधन करते हुए न्यायतंत्र से अंग्रेजी के एकाधिकार को हटाया जाए और भारतीय भाषाओं का मार्ग बनाया जाए। सभी उच्च न्यायालयों में संघ व राज्य की भाषा में न्याय का मार्ग बनाया जाए।

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