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हिन्दी:जनता और प्रशासक राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारें

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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मागधी अर्द्ध मागधी प्राकृत संस्कृत से निर्मित ग्यारह सौ वर्षों के वृहद काल में नवांकुरित नवपल्लवित, पुष्पित और सुरभित फलित हिन्दी भाषा और साहित्य आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल और अर्वाचीन काल में प्रसूत पालित पोषित सम्वर्द्धित होती हुई राजभाषा हिंदी आज विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली तृतीय भाषा के रूप में विद्यमान है। संस्कृत भाषा साहित्य के काव्य शास्त्रों, व्याकरण और तत्सम शब्दों से निमज्जित हिन्दी वास्तव में संस्कृत तनया के रूप में चरितार्थ होती रही है। तत्सम, तद्भव, देशज-विदेशज के बेहतरीन शब्दों, लालित्यपूर्ण सम्पुटों में आबद्ध हिन्दी अपनी अहर्निश नवोत्थान कीर्तिलता को लहराती आ रही है। अपने शैशव आदिकाल में महाकवि चन्दबरदायी, अमीर खुसरो, जयदेव विद्यापति और जायसी के ममतांचल और वात्सल्य सुधा रस से लालित-पालित हिन्दी ने भक्तिकाल में महान् गुरु संत रमानंद और संत वल्लभाचार्य के सगुणोपासक शिष्य महाकवि सूरदास, संत तुलसीदास, मीराबाई, निर्गुणोपासक शिष्य कबीर दास और रहीम खानखाना जैसे महान क्रांतिकारी साधक महाकवियों की कालजयी महाकाव्यों की भक्तिपरक कार्य शक्तियों से संबलित पूर्ण स्वर्णिम यौवन को प्राप्त किया। संत कबीर की यथार्थ सत्यपरक अक्खड़ क्षेत्रीय बोलियों में लिखा दोहा काव्य बीजक महाकाव्य, रहीम के सार्थक जीवन दर्शन से आप्लावित दोहे, विद्यापति की पदावली, जायसी के सूफी महाकाव्य ‘पद्मावत’ और सगुण भक्ति व प्रेम रस से परिपूर्ण सप्तसिन्धु सम सूरदास के सुरसागर, सुरसरिता और लोकमंगल जनमानस के महाकवि संत तुलसीदास के रामचरितमानस, विनय पत्रिका और श्रीकृष्ण को समर्पित प्रेम दिवानी मीराबाई की पदावली हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम कीर्तिपताका के गौरवान्वित कालजयी जाज्वल्यमान हीरक हैं। वस्तुतः यह काल सामाजिक और सांस्कृतिक जन- जागृति और नवचेतना का क्रान्तिकारी काल था, जो तत्कालीन सामाजिक अत्याचारों, धर्मान्धताओं, कुरीतियों, छुआछूतों और आततायी मुस्लिम आक्रान्ताओं के विरुद्ध आक्रोशजन्य काव्यों का प्रकटीकरण था। महाकवि बिहारी लाल, गिरिधर, केशवदास, छत्रसाल जैसे सैकड़ों सरस्वतीकंठाभरण महाकवियों की अरुणिम आभा से आभान्वित वीर, श्रंगार रस से ओत-प्रोत काव्य और महाकाव्य रचनाओं से हिन्दी साहित्य चमत्कृत, पुष्पित और पल्लवित होती रही। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतेंदु हरिश्चन्द्र से हिन्दी भाषा साहित्य का आधुनिक काल माना जाता है। विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों में अनवरत यायावर हिन्दी को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और ‘सरस्वती’ पत्रिका के संस्थापक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने व्याकरणिक नियमों से आबद्ध कर उसे साहित्यिक मानक वैज्ञानिक हिन्दी का विधिवत रूप दिया।
इस काल में साहित्य के गद्य-पद्य और रूपक आदि त्रिविध विधा में कालजयी रचनाओं का सर्जन हुआ। ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं पर आधारित महाकाव्यों, गीतिकाव्यों, नाटकों, उपन्यासों, कथाओं और समालोचना से समन्वित महान् क्रांतिकारी, सांस्कृतिक और नवजागरण से सज्जित रचनाएँ सृजित हुईं। छायावाद काल आधुनिक हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम काल माना जाता है। महावीर जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा जैसे छायावाद के स्तंभ चतुष्टय कालजयी महाकवियों ने पराधीन भारत के स्वाधीनता संग्राम की क्रान्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी ,सरोजिनी नायडू, सियाराम शरण गुप्त, दिनकर जैसे सारस्वत मणिकाञ्चन महाकवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। दूसरी ओर उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द की क्रान्तिकारी कहानियों और कालजयी उपन्यासों ने सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय कुरीतियों, शोषण, विधवा बाल विवाह, छूआछूत आदि के विरुद्ध विशाल आन्दोलन और सामाजिक जन-चेतनाओं में उबाल ला दिया था।
स्वतंत्रता के बाद आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद आदि काव्यधाराऍं प्रवाहित हुई और साहित्य के सभी विधाओं में उत्कृष्ट काव्य रचनाएँ अपने चिर यौवन के परवान को चढ़ती गईं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जैसे महान भाषाविदों के अनुशासन में आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, भीष्म साहनी, विष्णुप्रभाकर, जानकीवल्लभ, नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, गोपाल चन्द्र नेपाली, फणीश्वरनाथ नाथ रेणु, भीष्म साहनी, नागार्जुन जैसे सैकड़ों महाकवियों, कथाकारों, उपन्यासकारों ने नवभारत के निर्माण और राष्ट्र की एकता और अखंडता के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक जनजागृति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सन् १९८० के दशक तक हिन्दी अपनी गौरवमय स्वर्णिम सर्वतोन्मुखी उपलब्धियों से इतरा रही थी, क्योंकि सौ वर्षों का यह हिन्दी विकास और समृद्धि का कालखंड राष्ट्रीय भक्ति और परस्पर प्रेम, सहयोग, औदार्य और सामाजिक समरसता के मानवीय और नैतिक मूल्यों भावनाओ से लबालब था। अस्सी के दशक के बाद हिन्दी साहित्य की रचना सरिता जातिवाद, स्वार्थपरता, परस्पर घृणा, भाषायिक विद्वेष, एतदर्थ षड्यंत्र और सम्मान, पद और राजनीतिक गलियारों एवं दलदल में फॅंस साहित्य लेखन की विद्रूपता की धाराओं में बहने लगी। राजनीतिक षड्यंत्र के तहत जन-जन के मन को जोड़नेवाली भाषा हिन्दी राष्ट्रभाषा न बन सकी। अंग्रेजी गुलामी के सिपहसालार कुछ संविधान निर्माताओं ने हिंदी सँग राजकीय कार्यभाषा के रूप में अंग्रेजी को भी १० वर्षों के लिए मान्यता दे दी और १५ राजभाषाओं में हिन्दी भी सम्मिलित हुई। सम्पूर्ण राष्ट्र में हिन्दी पठन-पाठन, राजकीय कार्यालयीय भाषा से वंचित विश्व की तृतीय सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा आज अपनी गौरवमयी अस्मिता, जम़ीन, ज़मीर और अधि-कार को पाने हेतु तरस और कुहक रही है। आज आजादी के ७५ वर्ष बाद भी अंग्रेजी की गौरवगाथा और स्वी-कार्यता सर्वमान्य बनी हुई है। हिन्द देश हिन्दु-स्थान की बहुभाषिक हिन्दी अपने प्रसार प्रसार के लिए हिंदी दिवस मना रही ह। इससे अधिक भारतवासियों के लिए दु:ख और शर्म की क्या बात हो सकती है। हिन्दी भाषा-भाषियों को नीचा दिखाना, प्रशासकीय और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं, तकनीकी और चिकित्सकीय शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता, शैक्षणिक विद्यालयों, विश्व- विद्यालयों की शिक्षण पद्धति में अंग्रेजी की अनिवार्यता और हिन्दी के प्रति उदासीनता हमारी गुलामी मानसिकता को केवल दिग्दर्शित करती है। मानक हिन्दी से विमुख, काव्य शास्त्रीय विधानों से विरत और अपनी जननी संस्कृत भाषा से सुगठित शब्दों से परिपूर्ण होने पर भी उसके प्रति घृणा और मनगढ़न्त छन्दों को सृजित करने और आलोचकों के कारण हिन्दी अधोगति की ओर अपनी स्वर्णिम चमक खोती जा रही है। अत: आवश्यक है कि जनता और प्रशासक दोनों हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकारें। हिन्दी बोलने, लिखने और सुनने में परमानंद की प्राप्ति करें। बच्चों को हिन्दी बोलने ,पढ़ने, लिखने में प्रोत्साहित करें। हिन्दी को प्रतिस्पर्धी भाषा और रोज़गारमुखी बनाऍं। तुर्की के समान पूरे देशार्थ हिन्दी को अनिवार्य राज-काज और शिक्षण की भाषा बनाऍं, तभी हिन्दी अखिल राष्ट्र भारत और विश्वभाषा बन सकती है।

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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