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हिन्दी का उज्ज्वल भविष्य

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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बूँद कई सीपी में गिरती, पर स्वाति नक्षत्र न होता,
मोती सभी बन जाएँ, यह भी संभव नहीं होता।

हिन्दी को मत तौलो तुम आलू के तराजू से,
यह मोती ज्ञान का है, तौलो इसे भाव के मन से।

हिन्द की भाषा भले ही बन न पाई हिन्दी,
सबके दिलों में आज भी राज कर रही हिन्दी।

भविष्य इसका उज्ज्वल है नहीं मन में संशय,
आज भी कई अच्छे कवि दे रहे हैं यह आशय।

बरगद के पेड़ जैसी अटल खड़ी है हिन्दी,
जड़ों को हर जगह फैला रही है यह हिन्दी।

आधुनिक कवियों में ऐसे नाम भी आते हैं,
जो हिन्दी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहते हैं।

मनोज मुन्तशिर का नाम नहीं आज अनजाना,
हिन्दी को संस्कृति से जोड़, देते ज्ञान का बाना।

सुदिप्ता जी भी देखो हिन्दी की सेवा कर रही,
‘चाय मसाला’ के नाम से पुस्तकों से मिलवा रही।

हर पटल पर देखो छाई हिन्दी की ही बहार,
हर विधा में लिखना सिखा रही वह बार-बार।

ग़ज़ल विधा को भी देकर हिन्दी का नया रूप,
हिन्दी ग़ज़ल की नई विधा बनी मन के अनुरूप।

सत्य जी की अगीत विधा देती हिन्दी को सम्मान,
मन का भाव भाषा बन गई सबने दिया इसे मान।

छंद गति लय जो था कविता का एक प्रमुख ज्ञान,
अतुकान्त कविता ने ले लिया उसी का ही स्थान।

अब भावों की मलिका बन, हिन्दी रानी इठलाती है,
शब्द सौष्ठव से वह आज कभी-कभी घबराती है।

पर आज भी हमको मिल सकते हिन्दी के ज्ञाता,
ढूँढ कर लाना होगा उनको, जो हिन्दी के हैं प्रणेता।

हर वर्ष जो किताबें छपती है, वे हमको ये कहती हैं,
भविष्य हिन्दी का उज्जवल है, न शंका पलती है।

हर वर्ष लगता है जो, पुस्तकों का वृहद मेला,
क्या अब भी लगता है तुमको बंद हिन्दी का रैला॥

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