पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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जूही होली की तैयारियों में व्यस्त थी। लगभग एक हफ्ते पहले से उसने तैयारियाँ शुरू कर दीं थीं, तभी फोन की घंटी बजी थी, प्यारी ननद सीमा थी,-“भाभी, आपने काँजी डाल ली ? “
“हाँ दीदी, अभी तो काम खतम करके ही किचन से बाहर आई हूँ।”
“आप बताइए, आपकी तो पहली होली है…। क्या तैयारियाँ चल रही हैं… अपने प्यारे साजन के संग धूमधाम से मनाइए।”
“भाभी, इनकी छुट्टी नहीं है। इसलिए अकेले क्या होली, क्या दीवाली…।”
सीमा दीदी के उदास स्वर से जूही का मन भीग उठा था। वह अपनी ससुराल की पहली होली की मधुर स्मृतियों में खो गई थी।
वह बचपन से ही होली के लिए बहुत उत्साहित रहती थी… आलू को बीच से काट कर चाकू से कभी ४२० का ठप्पा बनाना तो कभी गुब्बारों में रंग भरना…।
“अम्मा मेरी पुरानी फ्रॉक निकाल दो… ।” ताऊ जी बड़े ड्रम में टेसू के फूल भिगाकर रखते। उसमें बार- बार हाथ डाल कर देखना कि रंग गाढ़ा हुआ कि नहीं… पीतल की पिचकारी निकाल कर उसका वॉयशर बदलवाना, ये सब तो होली के पहले की तैयारी शुरू हो जाती थी…। होली के दिन बड़ी-सी पीतल की पिचकारी, जिसमें रंग भरना कठिन होता तो ताऊ जी भर कर दिया करते थे। मजाल नहीं थी कि कोई पकड़ कर चेहरे पर रंग मल दे…। दोनों हाथों में गुझिया लेकर खाना, शाम को नए कपड़े पहन कर लोगों के घर होली मिलने जाना…, ये सब तो बचपन की स्मृतियाँ हैं।
साल-दर-साल रंगों का त्यौहार मनाती आई थी। कॉलेज की होली में जब निब वाले पेन की स्याही और लाल-नीली स्याही फेंक कर होली का आनंद ले लेते थे।
रंग-गुलाल, गुझिया, काँजी, मित्र मंडली और मैं होली मनाने में उस्ताद थी। पूरे मोहल्ले में बाल्टी बजाते हुए सबके घरों से चाची, दीदी और भाभियों को इकट्ठा करते होली के गीत आज ‘बिरज में होली रे रसिया…’ की जो धूम मचती कि बस…।
शादी के बाद पहली होली पर मायके की बहुत याद आ रही थी, लेकिन सीमा दीदी तो डरी-सहमी कमरे में बंद हो गईं थी।
प्रियतम नए-नवेले पति ने सुबह- सुबह प्यार से मुझे अपनी बाँहों के घेरे में आलिंगनबद्ध करके चुम्बन अंकित करते हुए कहा, ‘हैप्पी होली।’
मित्र मंडली की आवाज सुनते ही सब घर से उड़न छू हो गए थे। मैं बेचारी अपने दिल में तमाम उमड़ते-घुमड़ते अरमानों को मन के अंदर संजोए हुए उदास मन से किचन में चली गई थी। आखिर अब वह बहू थी, तो किचन की जिम्मेदारियाँ उसे अपनी सासू माँ के साथ निभानी थीं और वह दही बड़े एवं कचौड़ियाँ तलने में लग गई थी, लेकिन मन तो रंग गुलाल और होली कैसे खेलती थी…, उसमें ही उलझा हुआ था।
पति के व्यवहार से वह आज बहुत ही क्षुब्ध और नाराज हो रही थी। वैसे आज की सुबह ने तो उसे आश्चर्य में डाल दिया था। सुबह के ५ ही बजे थे, तभी कॉल बेल बजी थी। पति तेजी से उठे और अम्मा जी ने पूजा की प्लेट लगा कर दी थी। उसके साथ में गन्ना, जिसमें होरहा (हरा चना) और गेंहूँ की बाली बँधी हुई थी, उसे कंचन (सेवक) ने पकड़ा हुआ था। पति चले गए थे। वह फिर लेट गई थी, लेकिन नींद नहीं आई तो उठ बैठी थी।
सासू जी ने मुझे बताया कि होलिका दहन अर्थात होली की पूजा करने के बाद सब छोटे-बड़े अपने से बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने के लिए आते हैं… इसलिए अब सब लोग आने वाले ही होंगे। वह कुछ समझ पाती, तभी सीढ़ियों पर आहट हुई थी। सब छोटे-बड़े, जिसमें जेठ, देवर और बच्चे शामिल थे, मुझसे रिश्ते में छोटे लोगों ने मेरा पैर छू कर आशीर्वाद लिया था। मैं शर्माई हुई समझ नहीं पा रही थी, क्योंकि देवर तो मुझसे काफी बड़े से थे।
मेरा ससुराल कोठी कहा जाता है, जिसमें ८-१० परिवार रहा करते हैं और हम सब आपस में सगे रिश्तेदार हैं, कोई चाचा तो कोई बाबा आदि…। मैं सुबह की यादों और पिछले वर्षों की यादों में खोई थी कि १०-१२ बच्चे रंगे-पुते हुए आ गए…। कोई भाभी कह रहा था तो कोई चाची, बस सब रंग में रंगे रंगाये आए थे…। मैं तो उत्साह से भर उठी थी और उन बच्चों के साथ सारी उदासी भूल गई थी एवं और होली की मस्ती में डूब गई थी। बच्चों के साथ रंग खेल कर उन्हें नाश्ता कराया और गीले कपड़े बदलने ही जा रही थी, कि अम्मा जी ने कहा, “बहू अभी तो तुम्हारे साथ सब लोग होली खेलने आ रहे होंगें…!”
मैं कुछ समझ पाती कि एकदम से आँगन से शोर सुनाई पड़ा, “होली है… होली है…।” आँगन में लगभग ५०-६० छोटे-बड़े देवर- जेठ लोगों को देखकर मेरा तो होली का नशा ही उतर गया और मेरी रूह ही काँप उठी थी…। डरती-डराती हुई मैं आँगन में धीरे- धीरे उतर गई थी…। वहाँ पर किसी को पहचानना संभव ही नहीं था और मैं तो उस भीड़ में सबको पहचानती भी नहीं थी, क्योंकि मैं तो इस परिवार के लिए नयी ही थी, लेकिन क्या होता है…। क्षण भर में मेरा भी वही हाल हो गया, फिर तो गाने और डांस के साथ बाल्टी के हैंडिल का वाद्य बजता रहा…। मोटे पाइप से पानी की बौछार…, ये सभी फुल मस्ती में नाच रहे थे… अद्भुत दृश्य था। तभी कोई बोला था, “अब ये शर्त है, अपने अपने रंगे-पुते पति को पहचानो…।”
मुझे तो किसी को पहचानना ही असंभव लग रहा था। मैं शांत खड़ी हुई थी, तभी एक रंगे-पुते सज्जन मेरी ओर बढ़े तो मैं चिल्ला पड़ी थी, “भाई साहब आप…” और फिर तो ठहाकों का जो कानफोड़ू शोर उठा, क्योंकि वह मेरे पति ही थे। एक बार फिर से हम दोनों का डांस हुआ, गाना बज रहा था ‘रंग बरसे, भीगे चुनर वाली।’ फिर नाश्ता और हँसते-गाते-बजाते सब विदा हुए, लेकिन अभी होली कहाँ समाप्त हुई थी, क्योंकि सीमा दीदी तो कमरे में ही बंद थीं…। मैंने उन्हें अपनी कसम देकर कमरे से बाहर निकाला तो उन्होंने सिसकते हुए बताया कि एक बार वह अपनी सहेली के यहाँ होली खेलने गईं थी तो वहाँ उसके भाई ने उसे कोने में घसीट कर गंदी हरकत करना चाहा। तभी सहेली की माँ आ गई थीं और उन्होंने भाई को थप्पड़ लगा कर उसे बचा लिया था। तबसे वह होली के रंगों से बहुत डरने लगी है। उसके बहुत समझाने के बाद सीमा दीदी बाहर निकली ही थी, तभी उनकी सहेलियाँ जो उसी कोठी की थीं, सब मिलकर ननद-भाभी के साथ होली खेलने आ गईं थीं, और फिर तो पूरा आँगन टेसू के फूलों से एक-दूसरे को मारने का जो दृश्य उपस्थित हुआ कि आज याद आता है कि काश! उस समय मोबाइल होता तो जो वीडियो बनता, बस दर्शनीय फिल्म होती।
अब हम लोगों ने होली मनाने के लिए सीमा दीदी के घर जाने की प्लानिंग करना शुरू कर दिया था। बस चुपके-चुपके उनके ससुराल वालों से संपर्क करके हम सब होली मनाने, पकवान, मिठाई, काँजी और तमाम सामान लेकर दीदी के घर चल दिए थे, लेकिन रास्ते में कुछ लोग नशा करके लड़ते-झगड़ते और गाली-गलौज करते भी दिखाई दिए थे। गाँव में महिलाओं को कीचड़-मिट्टी से होली खेलते देख डर भी लगा था, क्योंकि लोगों ने दुश्मनी भुलाने के पर्व को दुश्मनी निकालने का अवसर भी बना लिया है, जो गलत है और रंग रंगीले त्यौहार को प्रदूषित कर रहे हैं।
हम सबने साथ-साथ पहुँच कर दीदी की होली को यादगार बना दिया था। आज उनके चेहरे की मुस्कान को देख कर हम सब खुशी से झूम उठे थे।