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`बेरोजगारी` के रहते आज़ादी दिवास्वप्न

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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१५ अगस्त यानि भारत की आजादी का पर्व,भारत में लोकतंत्र की स्थापना का पर्व,सैकड़ों वर्षों की राजनायिक और आर्थिक गुलामी की जंजीरें तोड़कर पराधीनता से स्वतंत्र होने का पर्व,हमारा स्वाधीनता दिवस। १९४७ में इसी दिन भारत लंबे संघर्ष के बाद स्वतंत्र हुआ,और स्वाधीन होने की ओर अग्रसर हुआ,लेकिन वर्तमान के हालात देखते हुए लगता है कि स्वतंत्रता बदल सी गई है,और हम स्वाधीन होने की बजाए विदेशी व्यवस्था के अधीन होते जा रहे हैं। तकनीकी क्षेत्र में विदेशी सहयोग से निःसंदेह विकास की नई गाथाएँ रची गई,और विश्व में हमारे भारत ने कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ग्रामीण हो या शहरी,महिला हो या पुरुष सभी का शिक्षा का स्तर बढ़ा है। आज हर कोई शिक्षा के क्षेत्र में आगे है,लेकिन जो पीढ़ी शिक्षित होकर आ रही है,उसके सामने रोजगार का अभाव सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा हैं। भारत में रोजगार के अवसर नहीं दिखाई दे रहे हैं। सरकारी नौकरी और अच्छी तनख्वाह के चक्कर में आज युवा भटक रहा है। और सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी नहीं होने के कारण कितने काम रुके पड़े हैं। सरकारी कार्यालयों में काम की गति पर जब प्रश्न उठाया जाता है,तो एक ही जवाब आता है-स्टॉफ नहीं होने से काम की गति मंद है। कार्यालयों में कर्मचारी का आभाव और जो युवा काम चाहता है उसे काम नहीं है,जो विचारणीय है।

देश में हर तरह का विकास हुआ,करोड़ों लोगों को काम भी मिला,लेकिन रोजगार के मामले में ७२ साल में भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। स्थिति ठीक वैसी है कि,एक अनार सौ बीमार के समान है। सरकारी नौकरी को दरकिनार भी करें तो निजी कम्पनियों और विदेशी कम्पनियों की भी बड़ी लम्बी सूची है। माल कमाने को ढ़ेरों विदेशी कम्पनियाँ भारत आ गई है,बड़े उद्योग खुल रहे हैं,लेकिन बेरोजगारी कम हो ही नहीं रही है। कारण जितनी भी विदेशी कम्पनियाँ भारत आयी,वे भारत को रोजगार का सुनहरा सपना तो दिखा रही हैं लेकिन उनका उद्देश्य तगड़ा मुनाफा बटोर कर बिना कर दिए अपने देश ले जाना है। भारत में वे सिर्फ पैसा कमाने आए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका कर के रूप में योगदान इतना अल्प है कि,उनको उपलब्ध करवाए गये संसाधन, जमीन और पानी भी उससे ज्यादा के हैं। याने भारत की अर्थव्यवस्था में एक रुपया देकर हजारों का लाभ उनके हिस्से में जा रहा है। ऐसी कईं विदेशी कम्पनियाँ हैं,जो दशकों से भारत को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। ये कम्पनियाँ भारत को रोजगार देने के नाम पर छलावे के अलावा कुछ नहीं कर रहीं हैं। भारत में विस्तार कर रही ज्यादातर विदेशी कम्पनियों का कहना है कि,भारत में विस्तार की मुख्य वजह यहाँ के तेजी से बढ़ते बाजार का लाभ उठाना है,न कि यहाँ रोजगार देना। २०२४ तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ५ ट्रिलियन (पचास खरब)डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का जो लक्ष्य रखा है,उसे वर्तमान हालातों को देखते हुए हासिल करना काफ़ी मुश्किल लगता है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर की समस्या यह है कि उसके साथ नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं। इसीलिए,भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को नौकरीविहीन वृद्धि कहा जाता है। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि,भारत विश्व मंच पर एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरे,लेकिन इसके लिए केवल आर्थिक वृद्धि दर ही काफ़ी नहीं हैl इसके लिए ग़रीबी कम करने के साथ रोज़गार के मौक़े भी बढ़ाने होंगे। भारत में बेरोज़गारी का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि,भारतीय रेलवे ने ६३ हज़ार नौकरियां निकालीं तो १.९० करोड़ लाख लोगों ने आवेदन किए। १ पद पीआर १०० उम्मीदवार,जो ऊँट के मुँह में जीरे जैसे हालात हैं रोजगार के मामले में हमारे यहाँ पर। इस समय भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है,लेकिन ग़रीबी और बेरोजगारी की चुनौती अब भी बरक़रार है। देश जब तक विदेशी निवेश पर निर्भर है,तब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं माना जा सकता है। मेहनत भारतीय कर रहे हैं,और लाभ विदेशी कम्पनियों की तिजोरियों में जा रहा है,तो आने वाली पीढ़ी फिर रोजगार के लिए भटकती फिरेगी। देश का पैसा देश में रहेगा तो ही सरकार आर्थिक आजादी ला पाएगी,तथा देशवासियों को रोजगार और सम्मानजनक स्थिति की जीवन सुविधा उपलब्ध हो सकेगी। जब तक देश का युवा बेरोजगार है,आर्थिक आजादी केवल दिवास्वप्न ही बनी रहेगी।