डॉ. अमरनाथ
*****************************************************************
डॉ. राम मनोहर लोहिया (१९१०-१९६७) आजाद भारत के अकेले राजनेता हैं,जिन्होंने अपनी भाषा के मुद्दे पर राष्ट्रीय संदर्भ में विचार किया और आंदोलन भी चलाए, क्योंकि वे मानते थे कि बिना भाषा के लोकतंत्र गूंगा-बहरा है। डॉ. लोहिया के भाषा संबंधी चिंतन में वर्णमाला से लेकर उसकी शिक्षा और शोध तथा भारतीय भाषाओं से उसका संबंध और उस पर अंग्रेजी का कहर आदि सब-कुछ शामिल है। वे भाषा को देश की बहुत सारी समस्याओं के निदान की तरह देखते हैं। मस्तराम कपूर द्वारा सम्पादित
‘लोहिया रचनावली’ के एक खंड में उनके भाषा संबंधी चिंतन पर लगभग पाँच सौ पृष्ठ शामिल हैं।
डॉ. लोहिया ने भाषा संबंधी जिन मुद्दों पर विचार किया है,उनमें सामंती भाषा बनाम लोक भाषा,देशी भाषाएं बनाम अंग्रेजी,हिन्दी क्या है ?,उर्दू जबान,अंग्रेजी हटाना-हिन्दी लादना नहीं तथा हिन्दी के सरलीकरण की नीति प्रमुख हैं।
लोहिया जानते थे कि विधायिका,
कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंग्रेजी का प्रयोग आम जनता की प्रजातंत्र में भागीदारी के रास्ते का रोड़ा है। उन्होंने इसे सामंती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग के खतरों से बारम्बार आगाह किया और बताया कि यह मजदूरों,किसानों और शारीरिक श्रम से जुड़े आम लोगों की भाषा नहीं है।
अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे पश्चिम से कोई सिद्धांत उधार लेकर व्याख्या करने को कतई राजी नहीं थे। सन् १९३२ में जर्मनी से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने वाले राम मनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंग्रेजी हटाने का आह्वान किया। ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ की गणना अब तक के कुछ इने-गिने आंदोलनों में की जा सकती है।उनके लिए स्वभाषा,राजनीति का मुद्दा नहीं,बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों-करोड़ों लोगों को हीन-ग्रंथि से उबारकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था-“मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके माँ-बाप अगर शरीर से नहीं तो,आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।”
‘अखिल भारतीय अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन’
का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन नासिक (महाराष्ट्र)में २८-२९ अक्टूबर १९५९ ई. को हुआ। इस सम्मेलन का सारा काम ऐसे लोगों को सुपुर्द किया गया,जिनका सक्रिय राजनीति से विशेष संबंध नहीं था। नासिक के इस अधिवेशन में एक सचिव मंडल सहित ४५ व्यक्तियों की एक कार्यकारिणी नियुक्त की गई। सचिव मंडल में वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य (असम),वंदेमातरम रामचंद्रराव (आं.प्र.),प्रभुनारायण सिंह (उ.प्र.),गजानन त्र्यंबक माडखोलकर (महाराष्ट्र),लक्ष्मीकान्त वर्मा (इलाहाबाद),धनिकलाल मंडल(बिहार), श्रीपाद केलकर(महाराष्ट्र),बीरभद्र राव(आं.प्र. ),ओमप्रकाश रावल (म. प्र.),दोरायबाबू( तमिलनाडु)आदि शामिल थे।
सम्मेलन ने कुल छ: प्रस्ताव पारित किए जिसमें से पहला प्रस्ताव है,-“सहभाषा के रूप में अंग्रेजी को अनिश्चित अवधि तक कायम रखने के केन्द्रीय सरकार के निर्णय का अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन का यह प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन पूर्णतया विरोध करता है। भारतीय संविधान में उद्घोषित विचार के न केवल खिलाफ यह निर्णय है,बल्कि हिन्दी और देश की सभी भाषाओं को अपना सुयोग्य स्थान प्राप्त करने के रास्ते में यह एक बड़ा रोड़ा है…अंग्रेजी के रहते प्रजातंत्र झूठा है(‘भाषा बोली’ शीर्षक अंग्रेजी हटाओ भारतीय भाषा बचाओ सम्मेलन की स्मारिका,!२३ मार्च २०१८ से, पृष्ठ-२६)।”
सम्मेलन में अपने दूसरे प्रस्ताव के जरिए अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम से हटाने पर जोर दिया गया। अंग्रेजी को हटाए बिना देश में ज्ञान-जैसे विज्ञान,इतिहास,रसायन, फिजिक्स इत्यादि की वृद्धि नहीं हो सकती और अंग्रेजी के निर्जीव भाषा ज्ञान में ही लोग उलझे रहेंगे।
इसके बाद पूरे देश में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन समितियों का गठन किया गया। सभाएं की गईं और जुलूस निकाले गए। राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह आरंभ हुए,जगह-जगह अंग्रेजी के नामपट्ट आदि हटाए गए।
अखिल भारतीय अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन का दूसरा अधिवेशन उज्जैन में ७-१० जनवरी १९६१ को,तीसरा अधिवेशन १२-१४ अक्टूबर १९६२ को हैदराबाद में,चौथा २०-२२ दिसम्बर १९६८ को वाराणसी में,पांचवां २८ फरवरी से १ मार्च १९७० को अहमदाबाद में,छठां २५-२७ मार्च १९७९ को नागपुर में और सातवाँ इटारसी के पास एक गाँव सुपरनी (जिला होशंगाबाद) में हुआ। भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई में इन सम्मेलनों का ऐतिहासिक महत्व है। इन सम्मेलनों ने अंग्रेजी के वर्चस्व को कम करने और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हालांकि,श्री लोहिया भी विदेश(जर्मनी)
से पढा़ई कर के आए थे,लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में ‘रामायण मेला’ उन्हीं की संकल्पना थी,जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी जब चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे-नंगे निर्धन भारतवासियों की भीड़ स्वयमेव जुटती है,तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी।
डॉ. लोहिया के अनुसार भाषा से देश के सभी मसलों का सम्बन्ध है। किस जबान में सरकार का काम चलता है, इससे जनता के सारे सवाल नाभिनालबद्ध हैं। यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाए जाएं जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें तो होगा केवल एक प्रकार का जादू-टोना। जिस किसी देश में जादू,टोना,टोटका चलता है वहाँ क्या होता है ? जिन लोगों के बारे में मशहूर हो जाता है कि वे जादू वगैरह से बीमारियों का अच्छी तरह इलाज कर सकते हैं,उनकी बन आती है। लाखों-करोड़ों उनके फंदे में फंसे रहते हैं। ठीक ऐसे ही जबान का मसला है। जिस जबान को करोड़ों लोग समझ नहीं पाते,उनके बारे में यही समझते हैं कि यह कोई गुप्त विद्या है जिसे थोड़े लोग ही जान सकते हैं। ऐसी जबान में जितना चाहे झूठ बोलिए,धोखा कीजिए,सब चलता रहेगा,क्योंकि लोग समझेंगे ही नहीं। सब काम केवल थोड़े से अंग्रेजी पढ़े लोगों के हाथ में है। अपने देश में पहले से ही अमीरी-गरीबी,जात-पांत,पढ़े-बेपढ़े के बीच एक जबरदस्त खाई है। यह विदेशी भाषा उस खाई को और चौड़ा कर रही है। अंग्रेजी तो इस देश का सौ में से एक आदमी ही समझ सकता है,
किन्तु अपनी भाषा तो सभी समझ सकते हैं,जो पढ़े-लिखे नहीं है वे भी। लोहिया इस तथ्य को बखूबी समझते थे।
‘सामंती भाषा बनाम लोकभाषा’ शीर्षक निबंध में उन्होंने विस्तार से और सूत्रात्मक ढंग से (कुल २४ सूत्रों में ) अपने भाषा संबंधी विचार व्यक्त किए हैं। इनमें प्रमुख सूत्र निम्न हैं-
Θअंग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुंचा रही है कि,वह विदेशी है,बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामंती है। आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत छोटा-सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जन- समुदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है अंग्रेजी (लेहिया के विचार,पं. ओंकार शरद, पृष्ठ-१३५)।
Θअंग्रेजी विश्व भाषा नहीं है। फ्रेंच और स्पेनी भाषाएं पहले से ही हैं और रूसी ऊपर उठ रही है। दुनिया की ३ अरब से ज्यादा आबादी में ३० या ३५ करोड़ यानी १० में १ के करीब,इस भाषा को सामान्य रूप में भी नहीं जानते(वही, पृष्ठ-१३५)।
Θजब हम ‘अंग्रेजी हटाओ’ कहते हैं तो हम यह बिलकुल नहीं चाहते कि उसे इंग्लिस्तान या अमरीका से हटाया जाए और न ही हिन्दुस्तानी कालेजों से, बशर्ते कि वह ऐच्छिक विषय हो। पुस्तकालयों से उसे हटाने का सवाल तो उठता ही नहीं (वही पृष्ठ-१३५)।
Θदुनिया में सिर्फ हिन्दुस्तान ही एक ऐसा सभ्य देश है,जिसके जीवन का पुराना ढर्रा कभी खत्म ही नहीं होना चाहता। जो अपनी विधायिकाएं, अदालतें,प्रयोगशालाएं,कारखाने,तार, रेलवे और लगभग सभी सरकारी और दूसरे सार्वजनिक काम उस भाषा में करता है,जिसको ९९ प्रतिशत लोग समझते तक नहीं(वही पृष्ठ-१३५)।
Θकोई एक हजार वर्ष पहले हिन्दुस्तान में मौलिक चिन्तन समाप्त हो गया, अब तक उसे पुन: जीवित नहीं किया जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण है अंग्रेजी की जकड़न। गर कुछ अच्छे वैज्ञानिक,वह भी बहुत कम और सचमुच बहुत बड़े नहीं,हाल के दशकों में पैदा हुए हैं तो इसलिए कि वैज्ञानिकों का भाषा से उतना वास्ता नहीं पड़ता जितना कि संख्या या प्रतीक से पड़ता है(वही,पृष्ठ-१३६)।
Θउद्योगीकण करने के लिए हिन्दुस्तान को १० लाख इंजीनियरों और वैज्ञानिकों एवं १ करोड़ मिस्त्रियों और कारीगरों की फौज की जरूरत है। जो यह सोचता है कि यह फौज अंग्रेजी के माध्यम से बनाई जा सकती है,वह या तो धूर्त है या मूर्ख(वही,पृष्ठ-136)।
Θहिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं की सामर्थ्य का सवाल बिल्कुल नहीं उठना चाहिए। अगर वे असमर्थ हैं,तो इस्तेमाल के जरिए ही उन्हें समर्थ बनाया जा सकता है। पारिभाषिक शब्दावली निश्चित करने वालों या कोश और पाठ्य पुस्तकें बनाने वाली कमेटियों के जरिए कोई भाषा समर्थ नहीं बनती। प्रयोगशालाओं,अदालतों, स्कूलों जैसी जगहों में इस्तेमाल के द्वारा ही भाषा सक्षम बनती है(वही,पृष्ठ- १३७)।
Θहिन्दुस्तानी के दुश्मन वास्तव में बंगला,तमिल या मराठी के भी दुश्मन हैं। ‘अंग्रेजी हटाओ’ का मतलब ‘हिन्दी लाओ’ नहीं होता। अंग्रेजी हटाने का मतलब होता है तमिल या बंगला और इसी तरह अपनी-अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा( वही पृष्ठ-१३७)।
Θअक्सर यह उपदेश सुनने को मिलता है कि लोगों को अंग्रेजी के प्रति उनके प्रेम से विमुख करना चाहिए। सरकार के रुख को बदलने के बजाए जनता की मनोवृत्ति बदलने की हमें सलाह दी जाती है। यह सलाह उपहासास्पद है। जब तक अंग्रेजी के साथ प्रतिष्ठा, सत्ता और पैसा जुड़ा हुआ है,तब तक किसी संपन्न व्यक्ति से यह अपेक्षा करना कि वह अपने बच्चे को अंग्रेजी की शिक्षा न दे,बेवकूफी होगी(वही पृष्ठ- १३९)।
Θहिन्दी प्रचारकों और अधिकाँश हिन्दी लेखकों का तो किस्सा ही अलग है। वे सरकारी नीति से इतने गुँथे हुए हैं कि वे उसके वकील बन जाते हैं। इनमें से अधिकाँश को सरकार से या अर्ध-सरकारी संस्थाओं से पैसा मिलता है। इनमें से ज्यादा सचेत व्यक्ति चुप रह जाते हैं। इन हिन्दी प्रचारकों और लेखकों में से बहुत बड़ी संख्या उनकी है,जो हिन्दी की वंचक जबानी सेवा करके उसे जबरदस्त तिहरा नुकसान पहुंचाते हैं(वही,पृष्ठ-१४१)।
Θकभी हिन्दी और कभी हिन्दुस्तानी का मैं इस्तेमाल करता हूँ और उर्दू के बारे में भी मैं वही कहना चाहूँगा। ये एक ही भाषा की तीन विभिन्न शैलियाँ हैं…मुझे विश्वास है कि आगे के बीस-तीस वर्षों में ये एक हो जाएंगी। विशुद्धतावादियों और मेलवादियों को आपस में झगड़ने दो,लेकिन इन दोनों को अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन के अंग बनना चाहिए,पर हमें सावधान रहना चाहिए कि अंग्रेजी कायम रखने की बहुत बड़ी साजिश चल रही है और सभी तरह के झगड़े वही खड़े करती है (वही पृष्ठ-१४२)।
Θहिन्दुस्तानी में ६ से ७ लाख शब्द हैं, जबकि अंग्रेजी में सिर्फ इससे आधे हैं। अंग्रेजी में समास बनने की क्षमता खत्म हो गई है, जिसका मतलब होता है नए शब्दों को गढ़ना, जबकि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा सम्भाव्य सम्पन्नता है(वही पृष्ठ-१४३)।
Θसबसे बुरा तो यह है कि अंग्रेजी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है। वह अंग्रेजी नहीं समझती इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है (वही ,पृष्ठ-१४३)।
Θलोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ लोग यह गलत सोचते हैं कि उनके बच्चों को मौका मिलने पर वे अंग्रेजी में उच्च वर्ग जैसी ही योग्यता हासिल कर सकते हैं। सौ में एक की बात अलग है,पर यह असंभव है। उच्च वर्ग अपने घरों में अंग्रेजी का वातावरण बना सकते हैं और पीढ़ियों से बनाते आ रहे हैं। विदेशी भाषाओं के अध्ययन में जनता इन पुश्तैनी गुलामों का मुकाबला नहीं कर सकती(वही,पृष्ठ-१४४)।
डॉ. लोहिया भ्रष्टाचार का आधार भी विदेशी भाषा में बढ़ते काम-काज को ही मानते हैं। जो अंग्रेजी नहीं जानते उनका गुजारा नहीं हो पाता। इन्हीं अंग्रेजीदाँ अफसरों की बातें हिन्दुस्तान के करोड़ों लोग नहीं समझ पाते और जो दलाल वगैरह होते हैं उन्हें पैसा बनाने का मौका मिल जाता है। कानून वगैरह सब अंग्रेजी में बनाते हैं,जिससे जनता को उनका मतलब समझने में दिक्कत होती है और अफसरों को अपना काम निकालने में आसानी रहती है। कहने का मतलब यह है कि जब तक अंग्रेजी की बीमारी बनी रहेगी,तब तक ईमानदारी कायम हो ही नहीं सकती। इसका यह मतलब नहीं कि अंग्रेजी के खत्म होते ही ईमानदारी आ जाएगी। हाँ,इतना उनका विश्वास है कि जब अंग्रेजी खत्म हो जाएगी,तभी ईमानदारी कायम हो सकती है।
डॉ. लोहिया जितना हिन्दी के पक्ष में हैं उतना ही दूसरी भारतीय भाषाओं के भी। वे साफ कहते हैं कि यह आंदोलन हिन्दी की स्थापना के लिए नहीं,लोक भाषाओं की स्थापना के लिए है। वे बार-बार एक ही बात कहते हैं कि अंग्रेजी हटे कैसे ? प्रांतीय भाषाएं कैसे आगे बढ़ें ? बंगाली,मराठी,तमिल को अंग्रेजी के सामने कैसे प्रतिष्ठित किया जाए ? और इसीलिए हिन्दी की बात लोहिया जब भी कहते हैं दूसरी भाषाओं के साथ बराबरी के स्तर पर। वे कहते हैं कि हिन्दी की हिमायत वही कर सकता है,जो उसकी बराबरी में अंग्रेजी को न लाए,बल्कि हिन्दुस्तान की दूसरी भाषाओं को और जो हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राष्ट्र की उन्नति का साधन और अंग्रेजी को गुलामी का साधन समझे। डॉ. लोहिया के अनुसार अंग्रेजी की साम्राज्यशाही नीति खत्म करने का इरादा सरकार का नहीं है। पं. नेहरू की भाषा नीति की आलोचना करते हुए वे लिखते हैं,-“लेकिन यह नेहरू साहब चतुर आदमी हैं। यह कभी अपने को साफ नहीं करते,छुपा कर रखते हैं, क्योंकि वे तो नेता आदमी हैं। उनको करोड़ों को साथ रखना है,इसलिए वे चालाकी के शब्द बोलते हैं। वे यह नहीं कहते कि अंग्रेजी को लाओ। वे कहते हैं कि नहीं अंग्रेजी को हटाओ,लेकिन धीरे-धीरे। नेहरू साहब ऐसे राजगोपालाचारी हैं,जो दोस्त के कपड़े पहन कर आए हैं लेकिन हैं दुश्मन। जो दुश्मन है वह दुश्मन के कपड़े पहन कर आता है तो उसको पहचान लेते हो,उससे बच सकते हो,लेकिन जो दुश्मन,दोस्त के कपड़े पहन कर आए,वह बहुत ही खतरनाक है(लोहिया के विचार,ओंकार शरद्,पृष्ठ-१५९)।”
डॉ. लोहिया के अनुसार,सरकार ने हिन्दी को भी अंग्रेजी की साम्राज्यशाही का एक छोटा हिस्सा दिलाने की कोशिश की। अंग्रेजी का कुछ हिस्सा हिन्दी को भी मिल जाए,यही सरकारी नीति रही। डॉ. लोहिया कहते हैं कि अब यह साफ बात है कि हिन्दी की साम्राज्यशाही नहीं चल सकती। गैर हिन्दी इलाके इसको कभी स्वीकार नहीं करेंगे। सरकार की इस साजिश ने हिन्दी को बहुत नुकसान पहुंचाया। गैर हिन्दी लोगों को अपनी नौकरियों वगैरह का डर लगा। सरकारी नीति के कारण ही कई बड़े इलाकों के लोग हिन्दी की कट्टर मुखालफत करने लगे। महात्मा गाँधी के बाद लोहिया पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने तमिलनाड़ु में लगातार २५ सभाओं को हिन्दी में संबोधित किया। लोगों ने उन्हें क्यों सुना ? तमिलनाड़ु में हिन्दी का घोर विरोध है। उन्हें पता था कि उन्हें लोगों ने इसलिए सुना कि वे हिन्दी और तमिल को बराबर महत्व देते हैं।
डॉ. लोहिया मानते हैं कि जिस तरह बच्चा पानी में डुबकी लगाए बिना छपछपाने,डूबने-उठने बिना तैरना सीख नहीं सकता,उसी तरह असमृद्ध होते हुए भी इस्तेमाल के बिना भाषा समृद्ध नहीं हो सकती। इसीलिए वे चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल सब जगह हो और फौरन हो। वे सवाल करते हैं कि,-“बच्चा किसके साथ अच्छी तरह से खेल सकता है,अपनी माँ के साथ या परायी माँ के साथ ? अगर कोई आदमी किसी जबान के साथ खेलना चाहे तो जबान का मजा तो तभी आता है,जब उसको बोलने वाला या लिखने वाला उसके साथ खेले,तो कौन हिन्दुस्तानी है जो अंग्रेजी के साथ खेल सकता है(लोहिया के विचार,ओंकार शरद्,पृष्ठ-!१४८)?”
डॉ. लोहिया लोकभाषा के बगैर लोकतंत्र की कल्पना भ्रामक मानते हैं, वे लिखते हैं,-“”जब हिन्दुस्तान का काम लोकभाषा में नहीं चले, तो लोकशाही कैसी होगी ? यह जनतंत्र नहीं, यह तो परतंत्र है। लोकशाही के लिए तो जरूरी है कि वह लोकभाषा के माध्यम से चले। मैं यह कहूँगा कि अगर वहाँ तुम हिन्दुस्तानी में बहस नहीं कर सकते हो,तेलुगू में भाषण दो,बंगाली में दो,तमिल में दो,लेकिन अंग्रेजी में मत दो (उपर्युक्त,पृष्ठ-१६२)। ”
उर्दू के बारे में उनकी मान्यता है,-“यों तो हिन्दी और उर्दू एक ही है,इस तरह जैसे सती और पार्वती। फिर भी,जब तक हिन्दी और उर्दू एक नहीं हो जाती, तब तक अरबी हरुफ में (लिपि)लिखी हुई उर्दू को सरकारी तौर पर इलाकाई जबान का स्थान मिलना चाहिए (उपर्युक्त,पृष्ठ-१७३)।” वे मानते हैं कि,-“उर्दू जबान हिन्दुस्तान की जबान है और इसका वही रुतबा होना चाहिए जो हिन्दुस्तान की किसी जबान का(उपर्युक्त,पृष्ठ १७३)।”
वे मानते हैं कि भाषा का मसला विशुद्ध संकल्प का है और सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनीतिक हुआ करते हैं। यह केवल इच्छा का प्रश्न है। अगर अंग्रेजी हटाने और हिन्दी अथवा तमिल चलाने की इच्छा बलवती हो जाए तो मूक वाचाल हो जाए।
डॉ. लोहिया ने छठें और सातवें दशक में अपनी भाषाओं को लेकर जो आंदोलन चलाए,शायद उसी का नतीजा था कि
१९६७ ई. के आसपास आने वाले शिक्षा आयोग की सिफारिश में अपनी भाषाओं में पढ़ने की बात पुरजोर तरीके से की गई। शायद उसी आंदोलन के ताप का असर था कि १९७९ ई. में कोठारी आयोग की सिफारिशें संघ लोक सेवा आयोग ने स्वीकार की,जिसके कारण सिविल सर्विस तथा अन्य केन्द्रीय सेवाओं की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में अवसर उपलब्ध हुए।
भाषा के सवाल को जिस तरह छोड़कर राम मनोहर लोहिया गए थे,सवाल आज और भी गंभीर हो गए हैं। उनके जन्मदिन(२३ मार्च) पर हम उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प ले सकते हैं।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)
कुल पृष्ठ दर्शन : 352