संध्या बक्शी
जयपुर(राजस्थान)
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काव्य संग्रह हम और तुम से
आज फिर मुझको
अक्स दिखा तुम्हारा
फ़लक पर।
कि जैसे,श्रृंगार पटल पर,
तुमने,चिपका दी हो बिंदिया
और,कंगन के स्टैण्ड पर,
गैर इरादतन,भूल गईं
वो सच्चे मोतियों की माला।
सुरमई आँखों से,
कोई जादू बिखेरा तुमने
और,मंत्रमुग्ध-सी रात,
सितारों वाली ओढ़नी से
चेहरा ढक कर,
उतर आई शीशे में।
मन जोगी-सा पगलाया,
माला जपते-जपते
अब तो उम्मीद भी,
समाधिस्थ होने को थी
कि,नूर तुम्हारा,
ज्यों कंकर जल में
पुनः तरंगित हुआ,पल में
शब्दों और विचारों में ठन गई।
तुम स्वरूप खो कर,अपना…
मेरी कविता बन गईं॥