कुल पृष्ठ दर्शन : 336

You are currently viewing मातृभूमि,संस्कृति और मातृभाषा का आदर करना चाहिए

मातृभूमि,संस्कृति और मातृभाषा का आदर करना चाहिए

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
*******************************************

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस स्पर्धा विशेष….

‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (हिन्दी)’ को मनाने का उद्देश्य है भाषाओं और भाषाई विविधता को बढ़ावा देना,लेकिन आज हम भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग का संकल्प कर सकते हैं। वैसे,हिन्दी के लिए मातृभाषा का प्रश्न नहीं उठा था! मातृभाषा का प्रश्न बंगला (ढाका) के लिए उठा था, जिसे यूनेस्को ने १९९९ में मान्यता दे दी। यूनेस्को ने प्रति वर्ष २१ फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी।
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या-
ये धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं।धरती माता हमारे जीवन के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है,हमारा पोषण करती है। इसलिए वेद आगे कहते हैं-‘उप सर्प मातरं भूमिम्’…हे मनुष्यों मातृभूमि की सेवा करो। अपने राष्ट्र से प्रेम करो,राष्ट्र के साथ द्रोह करना धर्म के साथ द्रोह करना ही है। देश के प्रति इस तरह निष्ठा रखना, अपनी मातृभूमि के प्रति ऐसी श्रद्धा व प्रेमभाव रखना-जैसे भाव केवल और केवल ‘सनातन वैदिक धर्म’ ही प्रकट करता है। अन्य किसी भी धर्म के ग्रंथ में राष्ट्रभक्ति के लिए दो शब्द भी नहीं बोले गए हैं- ‘वयं राष्ट्रे जागृयांम पुरोहिता:’
सिर्फ ‘मातृ’ शब्द की वजह से मातृभाषा का सही अर्थ और भाव समझने में हमेशा से दिक्कत हुई है। मातृभाषा बहुत पुराना शब्द नहीं है,मगर इसकी व्याख्या करते हुए लोग अक्सर इसे बहुत प्राचीन मान लेते हैं। हिन्दी का मातृभाषा शब्द दरअसल अंग्रेजी के ‘मदरटंग’ मुहावरे का शाब्दिक अनुवाद है।
बच्चे का शैशव जहां बीतता है,उस माहौल में ही जननी भाव है। जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है,जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है,वही महत्वपूर्ण है।
हिन्दी के संदर्भ में यह शब्द सामने नहीं आया, बल्कि इसका संदर्भ बांग्लाभाषा और बांग्ला परिवेश था। अंग्रेजी राज में जिस कालखंड को पुनर्जागरणकाल कहा जाता है,उसका उत्स बंगाल भूमि से ही है। राजा राममोहनराय,ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे उदार राष्ट्रवादियों का सहयोग अंग्रेजों ने शिक्षा प्रसार हेतु लिया। पूरी दुनिया में बह रही नवजागरण की बयार को भारतीय जन भी महसूस करें,इसके लिए भारतीयों को पारंपरिक अरबी-फारसी की शिक्षा की बजाय अंग्रेजी सीखने की ज़रूरत मैकाले ने महसूस की। हर काल में शासक वर्ग की भाषा ही शिक्षा और राजकाज का माध्यम रही है। मुस्लिम दौर में अरबी-फारसी शिक्षा का माध्यम थी। यह अलग बात है कि अरबी-फारसी में शिक्षा ग्रहण करना आम भारतीय के लिए राजकाज और प्रशासनिक परिवेश को जानने में तो मदद करता था,मगर इन दोनों भाषाओं में ज्ञानार्जन करने से आम हिन्दुस्तानी के वैश्विक दृष्टिकोण में,संकुचित सोच में कोई बदलाव नहीं आया,क्योंकि अरबी-फारसी का दायरा सीमित था। अरबी-फारसी के जरिए पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी प्राचीन भारत,फारस और अरब आदि की ज्ञान-परम्परा से तो जुड़ रहे थे मगर सुदूर पश्चिम में जो वैचारिक क्रांति हो रही थी,उसे हिन्दुस्तान में लाने में अरबी-फारसी भाषाएं सहायक नहीं हो रही थी।
भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए,यह सोच महत्वपूर्ण थी। इसी मुकाम पर यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने,मगर आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी अपनी ज़बान में मिले। उसी वक्त मदर टंग जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा सामने आया। यह बांग्ला शब्द है और इसका अभिप्राय भी बांग्ला से ही था। तत्कालीन समाज सुधारक चाहते थे कि आम आदमी के लिए मातृभाषा में (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाए।
मातृकुल नहीं,परिवेश महत्वपूर्ण-
मातृभाषा शब्द की पुरातनता स्थापित करनेवाले ऋग्वेदकालीन एक सुभाषित का अक्सर हवाला दिया जाता है-‘मातृभाषा,मातृ संस्कृति और मातृभूमि ये तीनों सुखकारिणी देवियाँ स्थिर होकर हमारे हृदयासन पर विराजें।’ इसके मूल वैदिकी स्वरूप को टटोला तो यह सूक्त हाथ लगा-‘इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः।’ इसका हिन्दी अनुवाद कुछ यूँ है-‘किसी को अपनी मातृभूमि, संस्कृति और मातृभाषा का आदर करना चाहिए, क्योंकि ये सब खुशियाँ देने वाली हैं।’
यहां दिलचस्प तथ्य यह है कि वैदिक सूक्त में कहीं भी मातृभाषा शब्द का उल्लेख नहीं है। इला और महि शब्दों का अनुवाद जहां संस्कृति,मातृभूमि किया है,वहीं सरस्वती का अनुवाद मातृभाषा किया गया है। मातृभाषा का जो वैश्विक भाव है उसके तहत तो यह सही है,मगर मातृभाषा का रिश्ता जन्मदायिनी माता के स्थूल रूप से जो़ड़ने के आग्रही यह साबित नहीं कर पाएंगे कि सरस्वती का अर्थ मातृभाषा कैसे हो सकता है ? यहां सरस्वती शब्द से अभिप्राय सिर्फ वाक् शक्ति से है,भाषा से है। वैदिकी भाषा,जिसमें वेद लिखे गए,अपने समय की प्रमख भाषा थी। सुविधा के लिए उसे संस्कृत कह सकते हैं,मगर वह संस्कृत नहीं थी। वैदिकी अथवा छांदस सामान्य सम्पर्क भाषा कभी नहीं रही। विद्वानों का मानना है कि वेदकालीन भारत में निश्चित ही कई तरह की प्राकृतें प्रचलित थीं जो अलग-अलग ‘जन'(जनपदीय व्यवस्था) में प्रचलित थीं। आज की बांग्ला,मराठी,मैथिली,अवधी जैसी बोलियां इन्हीं प्राकृतों से विकसित हुई। तात्पर्य यही कि ये विभिन्न प्राकृतें ही अपने अपने परिवेश में मातृभाषा का दर्जा रखती होंगी और विभिन्न जनसमूहों में बोली जाने वाली इन्ही भाषाओं के बारे में उक्त सूक्त में सरस्वती शब्द का उल्लेख आया है। मेरा स्पष्ट मत है कि मातृभाषा में मातृशब्द से अभिप्राय उस परिवेश,स्थान,समूह में बोली जाने वाली भाषा से है,जिसमें रहकर कोई भी व्यक्ति अपने बाल्यकाल में दुनिया के सम्पर्क में आता है। मातृभाषा शब्द मदरटंग का अनुवाद है और मदरटंग के बारे में विकीपीडिया पर जो आलेख है,वह ज़रा देखें-
‘मातृभाषा शब्द से यह नहीं समझना चाहिए कि यह माँ की भाषा है। जहाँ माता-पिता अलग-अलग समूहों,क्षेत्रों से आते हैं,वहाँ माता-पिता की बोली अलग-अलग होती है और ऐसी स्थिति में बच्चे स्थानीय बोली-भाषा बोलने लगते हैं। यहाँ माता शब्द उद्गम के रूप में व्यवहृत किया गया है,जैसे कि मातृभूमि या मातृभाषा से है।’
जाहिर है कि मातृभाषा से तात्पर्य उस भाषा से कतई नहीं है,जिसे जन्मदायिनी माँ बोलती रही है। सिर्फ माँ की भाषा को मातृभाषा से जोड़ना एक किस्म की ज्यादती है,सामाजिक व्यवस्था के साथ भी। बच्चे की भाषा के लिए अगर सिर्फ माँ ही उत्तरदायी मान ली जाए,तब अलग-अलग भाषिक पृष्ठभूमि वाले दम्पतियों में बच्चे की भाषा मातृ परिवार की होगी और बच्चे को वह भाषा सीखने के लिए माता का परिवेश ही मिलना भी चाहिए। मातृसत्ताक व्यवस्थाओं में यह संभव है,मगर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह कैसे संभव होगा ? यह मानना कि प्रत्‍येक को अपनी मातृभाषा सिर्फ माँ से ही मिलती है,मातृभाषा शब्द का आसान मगर कमजोर निष्कर्ष है और वैश्विक संदर्भ इसे अमान्य करते हैं। एक बच्चा माँ की कोख से जन्म जरूर लेता है,मगर मातृकुल के भाषायी परिवेश में नहीं, बल्कि माँ ने जिस समूह में उसे जन्म दिया है,उसी परिवेश की भाषा से उसका रिश्ता होता है। माँ के स्थूल अर्थ या रूप से इसकी रिश्तेदारी खोजना फिजूल होगा।
मातृ शब्द से ही एक अनन्य प्रेम का भाव जगता है। जैसा लगाव बच्चे का माँ के साथ है,जो अद्वितीय है, वही संबंध मातृभाषा का प्रत्येक के साथ है, इसीलिए मातृभाषा दिवस को अखिल विश्व मेंं मनाने की परिपाटी बन गई है। हम भी इसमें शामिल हों और इसे घर-घर में मनाएं।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

Leave a Reply