ललित गर्ग
दिल्ली
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७ जुलाई २०२१ की मनहूस सुबह वो खबर आई, जिसमें देश एवं दुनिया के करोड़ों लोगों का दिल तोड़कर ९८ साल की उम्र में बॉलीवुड का स्तम्भ इस दुनिया को अलविदा कह कर चला गया,हिन्दी सिनेमा का सूरज अस्त हो गया। जीवंत-अनुशासित अदाकारी के शिखर,अभिनय के शहंशाह,भारतीय सिनेमा जगत के पुरोधा,करोड़ों कलाकारों के प्रेरणास्रोत दिलीप कुमार का निधन फिल्म जगत की अपूरणीय क्षति है,उनके जाने से हिंदी सिनेमा के एक युग का अंत हो गया है। वे ऐसी शख्सियत थे,जिन्होंने सिनेमा को आसमान की उंचाई तक पहुंचाया। उन्होंने अदाकारी के मायने बदल कर रख दिए। उनकी अदाकारी संजीदा थी,उनकी आँखें एकसाथ हजारों शब्द बोल उठती थीं। चाहे संवाद कितना भी लंबा हो,उसका हर शब्द,हर अक्षर,यहां तक कि हर विराम चिन्ह भी दिल तक पहुंचता था। अपने किरदार में वो जिस तरह से डूब जाते थे,उसे देखकर लगता ही नहीं था कि वो अभिनय कर रहे हैं। किरदार प्रेमी का हो,तेजतर्रार पुलिसवाले का हो या देशभक्ति में डूबा कोई शख्स-अपनी अदाकारी की जादूगरी से वो रुपहले पर्दे पर ऐसे छाते कि लोगों की उनसे नजरें ही नहीं हटती थीं।
दिलीपकुमार का फिल्मों से दूर-दूर तक नाता नहीं था,उनके फिल्मी सफर की शुरुआत तो यहीं पुणे में तब हुई,जब बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी की उन पर नजर पड़ी। उन्होंने दिलीपकुमार को अभिनेता बना दिया। देविका रानी के कहने पर ही उन्होंने अपना नाम बदल कर दिलीपकुमार कर दिया ताकि उन्हें हिन्दी फिल्मों में ज्यादा पहचान और सफलता मिले। देविका रानी ने १९४४ में यूसूफ खान को फिल्म ‘’ज्वार भाटा‘ में अवसर दिया,इसी फिल्म से उनको नाम मिला दिलीप कुमार। पहली फिल्म तो प्रदर्शित हो गई थी,लेकिन कामयाबी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। उसके बाद १९४८ में आई फिल्में ‘शहीद‘ और ‘मेला‘, जिससे उन्हें बॉलीवुड में पहचान मिली। राजकपूर के साथ आई फिल्म ‘अंदाज‘ ने दिलीप कुमार को सितारा बना दिया। उसके बाद-आन,तराना,दीदार, अमर,फुटपाथ जैसी फिल्मों ने ये साबित कर दिया कि दिलीप की अदाकारी का कोई जवाब नहीं हैं। उन्होंने अद्भुत,अनूठी एवं जीवंत अदाकारी से असंख्य लोगों के दिलों पर राज किया। फिल्म ‘देवदास‘ से तो उन्हें ‘दुखांत राजा’ (अवसाद) का ही खिताब दे दिया गया। अगले कुछ सालों में मधुमति, कोहिनूर जैसी सफल फिल्में आई। १९६० में प्रदर्शित हुई भारतीय सिनेमा की वो बेहतरीन फिल्म जो हमेशा के लिए अमर हो गई। नाम था ‘मुगल ए-आजम‘,इस फिल्म में सलीम के किरदार में थे दिलीपकुमार और मधुबाला थी अनारकली। पर्दे पर सलीम अनारकली की इस जादुई जोड़ी ने धमाल मचा दिया।
दिलीपकुमार को हम भारतीय सिनेमा का उज्ज्वल नक्षत्र कह सकते हैं,वे चित्रता में मित्रता के प्रतीक थे तो गहन मानवीय चेतना के चितेरे,जुझारु, साहसिक एवं अदाकार थे। वे एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व थे,जिन्होंने आमजन के बीच,हर जगह अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। लाखों-लाखों की भीड़ में कोई-कोई दिलीपकुमार जैसा विलक्षण एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति अभिनय-विकास की प्रयोगशाला मेें विभिन्न प्रशिक्षणों-परीक्षणों से गुजरकर महानता का वरन करता है,विकास के उच्च शिखरों पर आरूढ़ होता है।
बॉलीवुड के बड़े-बड़े कलाकारों के लिए वे एक अभिनय संस्थान की तरह रहे हैं,उनसे अभिनय सीख कर कई कलाकार बॉलीवुड में छा गए।
देश और देशवासियों के लिये कुछ खास करने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। देश की एकता एवं अखण्डता को खंडित करने की घटनाओं पर उनके भीतर एक ज्वार उफनने लगता और इसकी वे अभिव्यक्ति भी साहस से करते।
उन्हें भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। दिलीप कुमार को पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज से भी सम्मानित किया गया।
उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। एक दौर ऐसा भी आया जब दिलीप साहब की फिल्में असफल होने लगी थीं,तो वो करीब ५ साल तक फिल्मों से दूरी बना ली। १९८१ में फिर वेे पर्दे पर आए और इस बार- क्रांति,शक्ति,मशाल,कानून अपना-अपना और सौदागर जैसी फिल्मों में चरित्र भूमिका निभाई और फिर पर्दे पर छा गए।
दिलीपकुमार ने हिंदी सिनेमा जगत में ८ दशक की सबसे लम्बी पारी खेली है। दिलीपकुमार एक ऐसे फिल्मी जीवन की दास्तान है,जिन्होंने अपने जीवन को बिन्दु से सिन्धु बनाया है। उनके जीवन की दास्तान को पढ़ते हुए जीवन के बारे में एक नई सोच पैदा होती है। जीवन सभी जीते हैं पर सार्थक जीवन जीने की कला बहुत कम व्यक्ति जान पाते हैं।
वे जितने उच्च नैतिक-चारित्रिक व्यक्तित्व एवं नायक थे,उससे अधिक मानवीय एवं सामाजिक थे। उनका निधन एक जीवंत,यथार्थ सोच के सिनेमा का अंत है। उनकी सहजता और सरलता में गोता लगाने से ज्ञात होता है कि वे गहरे मानवीय सरोकार से ओतप्रोत एक अल्हड़ व्यक्तित्व थे। वे हमेशा भारतीय सिनेमा के आसमान में एक सितारे की तरह टिमटिमाते रहेंगे।