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जागो नशेड़ी, जागो

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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घर थे कल तक हँसते-खेलते,
आज बेचारे मकान हो गए
गाँव थे कल तक भाईचारे भरे,
आज बेचारे श्मशान हो गए।

एक अजीबोगरीब सन्नाटा है,
पत्थर-मिट्टी के मकान शेष हैं
आदमियों की तो भीड़ है पर,
मानों मृतकों के अवशेष हैं।

कोई बोलता नहीं है एक-दूसरे से,
अपनी ही मस्ती में चूर है
है अपनी ही पीड़ा की परवाह नहीं,
तो दूसरों की तो दूर है।

मुर्दों की इस बस्ती में ही,
हुआ एक मुर्दा अचानक जिन्दा है
इस घटना से परेशान श्मशान भी,
अपने पर ही शर्मिंदा है।

“वह बोल उठा फिर कैसे ?
वह तो मूक, बधिर और अंधा था
सामने सब घटता था पर,
शव की मानिंद उसका धंधा था।”

होता था अघात भी उस पर,
वह चूं तक कभी न करता था
दमघोटू माहौल में रहता था,
श्वास-उच्छावास न भरता था।

“जाग उठी है मानवता उसकी,
जमीर उसका जिन्दा हुआ
वह नहीं मरा था जमीर मारा था,
उसका चेतन शर्मिंदा हुआ।”

सुनकर मरघट सोच रहा है,
“कि अगर मैं इनको जला देता।
मिलता अवसर फिर जीने का ?
अगर मैं ‘चिट्टा’ खिला देता ?”

वह जिन्दा मुर्दा फिर चीख उठा,
“जागो नशेड़ी तुम भी जागो।
मैं तो भाग रहा हूँ राष्ट्र की खातिर,
इस बिष्टा से तुम भी भागो।

साजिश-साजिश ही रह गई,
इन्सान बेचारा सम्भल गया।
विदेशी ताकतें परास्त हुई,
उनकी कु-चाल का अमल गया॥