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लत से बाहर आना होगा, वरना…

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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मुफ्तखोरी और राष्ट्र का विकास…

सुबह की चाय का पहला घूंट अभी हलक से उतरा ही था, कि अखबार की मोटी-मोटी हेडलाइन गले में अटकने की जगह बना गई।

“फलां पार्टी अपने घोषणा-पत्र में लाई है नई रेवड़ियाँ।”
अखबार के कुछ और पन्ने पलटे, तो ऐसा लगा जैसे चुनावी वादों का मेला सजा हुआ है। एक और पन्ना पलटा, तो कोने में छपा था “इस साल का बजट घाटे में। किसानों की सब्सिडी कटौती पर विचार।”
कटौती ? अरे! किसान की मेहनत पर कटौती और मुफ्तखोरी की रेवड़ियों पर बिछी बिछाई चादर ? यह कैसा न्याय है ? मन किया कि अखबार को खिड़की से बाहर फेंक दूँ, लेकिन बाहर का नजारा उससे भी बुरा था। गली में भीड़ जमा थी। गली के बाहर नारे लग रहे थे-“वोट हमें दो, और मुफ्त गैस सिलेंडर लो!” हम आएंगे, तो हर घर को पेंशन देंगे!”
नारे नहीं, ऐसा लग रहा था जैसे जनता की आकांक्षाओं के ताबूत में कीलें ठोंकी जा रही हों। चुनावी रैली का शोर, पोस्टरों पर मुस्कुराते चेहरे, और हर किसी की जुबान पर बस एक सवाल-“इस बार क्या मिलेगा ?” हर घर को मुफ्त बिजली! २०० यूनिट फ्री कर दी न… बिल नहीं आएगा!, लेकिन बिजली भी तो नहीं आ रही… सरकार ने वादा किया था कि बिल नहीं आएगा, पर यह थोड़े ही कहा था कि बिजली भी देंगे!”
मुफ्त पानी!
“हाँ, पानी मुफ्त है न, नलों में नहीं तो क्या, टैंकर भेजे जा रहे हैं। अब तुम्हारी ‘योग्यता’ यही है कि बिना सिर फुटव्वल किए टैंकर के सामने लगी भीड़ में अपने घड़े भर सको। बिना झगड़े के मुफ्त का पानी घर तक ले आना तो इस कुरुक्षेत्र का सबसे बड़ा कर्मयोग है!”
बेरोजगारों को भत्ता!
“जी हाँ, नौकरी के लिए रोने की जरूरत ही क्या है! बेरोजगार होने में फायदा है-घर बैठे भत्ता मिल रहा है।
हर पार्टी इस चुनावी मेले में अपनी-अपनी दुकान सजा रही है।
रेवड़ियों के ढेर, आकर्षक रैपर में बंधी रेवड़ियाँ, जो ज्यादातर झुनझुनों जैसी हैं। जनता झुनझुना पकड़ती है, बजाती है, और खुश हो जाती है। रेवड़ियाँ मुफ्त में है जी। ‘तेरा तुझको अर्पण वाली..’ बात, न नेता की अंटी ढीली हुई, न जनता की जेब…। अरे, जनता की तो वैसे भी जेब खाली है…! “क्या कहा ? वोट है न !”
“.. अरे यार, इसकी भी कोई कीमत है ? ले जाओ, वैसे भी वोट के अलावा हमारे पास देने को है ही क्या।”
रेवड़ियाँ ? किस खेत की मूली हैं ये रेवड़ियाँ ? मन में सवाल कुलबुलाने लगे। इसी कुलबुलाहट में चिंतामग्न होकर अखबार की बासी खबरों के साथ चाय की चुस्की ले ही रहा था कि…रेवड़ी खुद आ गई। रेवड़ी…? हाँ वही…!राजनीति रूपी भैंस से नेता लोग दूध दुहते हैं। मत रूपी फसल खाकर यह चुनावी भैंस अब रेवड़ियाँ देने लगी है। रेवड़ी आज की ‘स्टार प्रचारक’ बन गई है।अलग-अलग रंग, रूप और लुभावने नारों में रेवड़ियों का नंगा प्रदर्शन हर ओर छाया हुआ है।
“क्या कहा ? रेवड़ी ?”
अरे गणित के सवाल की तरह मान लो, रेवड़ी आ गई। सिसकती हुई, चेहरे पर शिकन, माथे पर चिंता की गहरी रेखाएं।
“मजाक चल रहा है क्या ?”
“नहीं यार…मजाक तो देश के साथ चल रहा है भाई…।”
रेवड़ी देवी, जिसकी चर्चा हर चौराहे पर, हर चाय की टपरी पर हो रही थी, किसने-कितनी बाँटी ? किसने और बाँटने का वादा किया ? किसकी रेवड़ी ज्यादा वजनदार..! बस यही चर्चा…!”
वह सिसकती हुई, परेशान नजर आई, लेकिन वह आज इस हालत में क्यों है ?
मैंने पूछा,-“रेवड़ी जी, क्या हुआ ? इतनी परेशान क्यों दिख रही हैं?”
वह मुस्कुराई नहीं, बस थकी-हारी- सी बोली,-“क्या बताऊं, बेटा! मेरी हालत खराब कर दी है इन लोगों ने। मेरे नाम पर जो खेल हो रहा है, वह न मेरी समझ में आ रहा है, न तुम्हारी समझ में आएगा।”
वह आगे बोलीं,-“देखो इन कर्ज में दबी सरकारों को। खाने को नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने!
खजाना खाली है, फिर भी दम भरते हैं सब कुछ लुटाने का। अरे, क्या खाक लुटाएंगे ये लोग ? बस एक बार सत्ता में आ जाएं, फिर मेरी कहानी…, ऐसे भूल जाते हैं, जैसे कोई वास्ता ही नहीं। देश की जनता अब ‘मुफ्त’ के नाम पर जीने की आदी हो चुकी है। किसी ने कहा है, “मुफ्त की रोटी में स्वाद और मेहनत की रोटी में इज्जत होती है,” पर अब स्वाद के नाम पर इज्जत को ताक पर रख दिया गया है।”
मैंने कहा,-“क्यों नाहक परेशान होती हो रेवड़ी जी ? आप तो जनकल्याण का प्रतीक रही हैं, ऐसा कहते हैं पार्टी वाले। गरीबों की सहारा, जनता की मसीहा बोलते हैं तुमको, कहते हैं अमीरों को लूटकर गरीबों में बाँट देंगे, तो सब बराबर हो जाएगा। अमीर- गरीब का भेद मिट जाएगा। तुम तो घोषणा-पत्र की हेडलाइन हो गई, रेवड़ी जी। क्या-क्या नहीं मिलता तुम्हारे नाम पर! जिला, आयोग, बोर्ड के लंगर लगते हैं। टोकरियों में भरकर, माथे पर रखकर जनता को बाँटी जाती हो। देख रहा हूँ उज्ज्वल भविष्य। अगर तुम्हारे घर में १०० मत हैं, तो हो सकता है कि कल कोई दल आकर तुम्हारे घर को जिला बनाने का ऑफर दे दे।
बस तैयार हो जाइए कमर-पेटी बाँधकर, इस हवाई किले की सैर के लिए। ‘दिल बहलाने के लिए ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है।’
देखो न, हर तरफ तुम्हारा ही शोर है-फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन। कोई फ्री गैस दे रहा है, तो कोई फ्री इंटरनेट। एक पार्टी ने एक महीने का राशन दे दिया तुम्हें, तुम्हारे पिद्दी से मत के बदले। और क्या चाहिए ? नमक, मिर्च, १ किलो तेल, ५ किलो आटा, आधा किलो चावल-सभी राशन की सामग्री पर पार्टी के अलंकार का चमचमाता फोटो। ‘स्पॉन्सरशिप’ का जमाना है, भाई। आपकी रोटी, दाल, चावल सभी ‘स्पॉन्सर्ड बाय फलाना पार्टी।’ “
लोगों को अब मेहनत नहीं करनी पड़ती, सोचना नहीं पड़ता। तुमने सबको अकर्मण्य बना दिया। बस और क्या चाहिए लोगों को ?
लोगों की शिकायत है कि रेवड़ियाँ ज्यादा नहीं चलतीं! महीने-२ महीने में ही खत्म हो जाती हैं।
सरकार कहती है, “बस इतना ही पैसा है खजाने में।”
अब खजाना भरेंगे। पहले खुद के घर भर जाएँ, फिर जो ओवर फ्लो होगा, तब थोड़ा-बहुत सरकार के खजाने में भरा जाएगा। तब तक ५ साल निकल जाएँगे, फिर बाँटेंगे। तो सरकार को चाहिए कि चुनाव ५ साल की जगह हर ३ महीने में कराए, ताकि रेवड़ियों की आपूर्ति सतत बनी रहे।
बस तुम तो अपना विस्तार करो।अब लोगों को मुफ्त में साँसें भी चाहिए, मुफ्त में सपने चाहिए,
मुफ्त की नींद चाहिए। वो भी उपलब्ध कराओ, तो बात बने।मुफ्त की दारू से पेट नहीं भरता, जी। साथ में मुफ्त का नशा-चरस, गांजा भी चाहिए। फिर भी यह उदासी क्यों ?”
रेवड़ी तिलमिला उठीं-“मुझे गलत मत समझो। मैं जरूरतमंदों की सेवा के लिए थी, लेकिन अब तो मुझे हर किसी को, हर जगह बाँटा जा रहा है। जो पात्र हैं, वे भी लेते हैं। जो अपात्र हैं, वे भी। कर्ज के साए में डुबो दिया राज्यों को। कौन-सा राज्य बचा है, जो इन कर्जों के नीचे दबा नहीं है ?
क्या इस देश में सिर्फ कुछ ही लोगों को काम करने का अधिकार है ? उनके कर के पैसे को विकास के नाम पर लूटते हैं ये सरकार और नेता। इन्हें रेवड़ियाँ बनाने में लगा देते हैं। अब मैं खुद को ही पहचान नहीं पा रही। हर योजना को रेवड़ी बना दिया। मुफ्तखोरी का ऐसा जाल बुना, कि मेहनत करने वालों की पीठ टूट गई। और जो मेहनत से कमा रहे हैं, उनसे कर लेकर अपात्रों को रेवड़ी बाँट रहे हैं। यह कौन-सा विकास है…?”
उसकी आँखों में पानी था।
“मुझे वनवास चाहिए। अब मैं इस माहौल में नहीं रह सकती, जहां मुफ्तखोरी को महिमा मंडित किया जाता है और मेहनत को हाशिए पर डाल दिया जाता है। मेरे नाम पर कुछ बाँटना है, तो रोजगार बांटिए। मेरे नाम पर वादे करना है, तो शिक्षा और स्वास्थ्य के वादे कीजिए, लेकिन नहीं, यह सब तो भाषणों तक सीमित है। असली खेल तो मुफ्त रेवड़ियों का है।”
मैंने उन्हें जाते देखा। धीरे-धीरे वह भीड़ में गुम हो गई, लेकिन उनकी बातें, उनका दर्द, मेरे मन में बस गया।
बाहर चुनावी रैली का शोर था।
“फ्री! फ्री! फ्री! अबकी बार मुफ्त वाई-फाई!” भीड़ ताली बजा रही थी, पर मेरी आँखों के धुंधले परदे पर अब भी रेवड़ी सिसक रही थी।
चाय ठंडी हो चुकी थी, लेकिन भीतर कुछ और उबलने लगा था। यह सवाल कि ‘मुफ्तखोरी’ ने आखिर हमारे देश की आत्मा को कब निगल लिया ? कब मेहनत का स्वाद खो गया और मुफ्त की आदत गहरी हो गई ?
आत्मा काँप गई। मेहनत का मंत्र पढ़ने वाला समाज कब मुफ्त की बैसाखियों का दीवाना बन गया ?
मैंने चाय का आखिरी घूंट लिया।
बाहर का शोर और तेज हो गया था, पर भीतर एक सवाल गूंज रहा था-इस मुफ्तखोरी की आदत ने हमारी आने वाली पीढ़ियों को क्या सिखाया ? क्या उन्हें मेहनत का सम्मान करना कभी सिखा पाएंगे ? हमारे कर के पैसे से सरकार जो हमें मुफ्त में देती है, उसे उपहार मान लिया गया है, पर क्या ये मुफ्तखोरी वाकई में मुफ्त है ? नहीं। इसकी कीमत हम सब अपने भविष्य की संभावनाओं से चुकाते हैं। सरकारी खजाने का हाल उस जर्जर मकान जैसा है, जिसकी दीवारें बाहर से चमकती हुई दिखती हैं, पर भीतर से खोखली हो चुकी हैं। धरातल पर काम हुआ हो या नहीं, पर पोस्टर और विज्ञापन में देश के गली-कूचों को पाट दिया गया है। सड़कों की हालत ऐसी है कि गड्ढों में गाड़ियाँ नहीं, अब तो उम्मीदें गिरने लगी हैं। अस्पताल और विद्यालय जर्जर हो रहे हैं, लेकिन प्रचार में सरकार की ‘सफलता’ ऐसी गाई जा रही है, जैसे देश के हर कोने में खुशहाली छा गई हो।
आजकल जनता की सोच यह हो गई है कि “काम नहीं करोगे, तो खाना नहीं मिलेगा” का पाठ बच्चों को पढ़ाती है, पर खुद मुफ्त की हर चीज के पीछे भागती है। हमने बचपन में महाकवि कालिदास जी की कहानी पढ़ी थी, कि जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। तब हँसी आती थी, पर आज हम वही कर रहे हैं। मुफ्त के इस चक्रव्यूह में फंसकर हम अपनी ही जड़ों को काट रहे हैं। जो पैसा सड़कों, अस्पतालों और शालाओं पर खर्च होना चाहिए, वह मुफ्त की योजनाओं में बहाया जा रहा है।
‘कोरोना’ के समय ऑक्सीजन की कमी और अस्पतालों की बदहाली ने असली तस्वीर दिखाई थी। हजारों लोगों ने अपनों को खो दिया। हमने सरकार को कोसा, गुस्सा किया, लेकिन जैसे ही संकट टला, फिर से मुफ्तखोरी के मोह में लौट आए। हमें भूलने की बीमारी है। सड़कें टूटी हैं, स्मारक खंडहर बन रहे हैं, पर जनता खुश है कि उसे बिजली और पानी का बिल नहीं देना पड़ रहा।
देश के भविष्य की हालत क्या होगी ? जब बसें नहीं रहेंगी, तो बच्चों से कह देंगे, “पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।” जब विद्यालय बंद हो जाएंगे, तो कहेंगे, “घर पर पढ़ाई करने से आत्मनिर्भरता आती है।” जब अस्पताल खत्म हो जाएंगे, तो कहेंगे, “योग करो, बीमार ही मत पड़ो।”
“गुलामी वो नहीं, जो बाहरी लोग हम पर थोपें; गुलामी वो है, जो मुफ्त के लालच में हम खुद चुनें।”

देश की जनता को इस मुफ्तखोरी की लत से बाहर आना होगा, वरना यह लत हमारे आने वाले कल को चाट जाएगी। और फिर, न देश रहेगा, न समाज; सिर्फ मुफ्तखोरी के मलबे पर रोते हुए लोग रह जाएंगे।