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बदला-बदला बसंत

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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बसंन्त पंचमी: ज्ञान, कला और संस्कृति का उत्सव…

बसंत!
तुम्हारे बदले स्वरूप ने चौंका दियाहै,
नव कलियों के संगीत ने मौन साध लिया है
नभ के इस अनंत विस्तार में कहीं,
किसी पक्षी की गूंज नहीं।

अभी तो वृक्षों ने धारण किए थे हरित परिधान,
अब उनकी शाखाएं सूखी
उंगलियों-सी बेजान
आकाश को टटोलती हैं,
याचना भरे स्वर बोलती हैं।

वायु,
जो कभी गंधमयी बनकर
मलयाचल से आती,
आज विषैले धुएं के परिधानों में
कहाँ पहचान ढूंढ पाती।

पुष्पगंध,
जिसे मादक बनकर
आत्मा को था छू जाना,
अब कृत्रिम इत्रों में
अपना अस्तित्व है भुलाना।

हे बसंत!
तुम्हारा वह चंचल हास्य कहाँ गया?
जो खेतों में सरसों की सुनहरी
लहरों में गाता था,
पकते गेहूँ की बालियों में
और कोयल की कूक में बिखर
जाता था…।

अब तो खेतों में,
लोहे के बीज बोए जाते हैं
कोयल के सुर,
मशीनों की ध्वनि में खोए जाते हैं।

धरा पर उगते हैं,
सीमेंट और कंक्रीट के वन चहुँओर
जहां थककर मौन है पवन का शोर।

हे वसंत!
तुम्हारा परिवर्तित रूप
मन को झकझोर देता है।
दिल में वेदना का अजीब शोर देता है!

क्या तुम भी!
मनुष्य की स्वार्थी उंगलियों का
शिकार हो गए हो ?
इतने लाचार हो गए हो ?
क्या तुम्हारी सौम्यता,
सभ्यता की धूल में लुप्त हो चुकी है ?
बासंती बयार कहीं विलुप्त हो चुकी है।

अरे! यह तो
बदला हुआ बसंत है,
जो अब आल्हाद नहीं…
वो स्वछन्द नाद नहीं,
एक क्रंदन बनकर
हर आत्मा में गूंजता है।

यह वह बसंत है,
जो मन के आकाश में।
हमारे आस-पास में,
सदा के लिए पतझड़ रच गया॥