◾एक बार फिर तमिलनाडू में सत्तारूढ़ द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम सरकार द्वारा हिंदी विरोध के माध्यम से तमिलनाडु सहित कई राज्यों में हिंदी विरोध की आग लगाने का प्रयास किया जा रहा है।
इसमें चिंता की बात यह भी है कि बात-बात पर संविधान की बात करने और तमिलनाडु में गठबंधन के साथी व कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल और इंडी गठबंधन के अन्य दल भी इसे मौन समर्थन दे रहे हैं। हर बार ऐसा ही होता है कि जब दक्षिण में इनके नेता विरोध करते हैं तो हिंदी पट्टी के नेता इसका विरोध करने की बजाए चुप्पी साध लेते हैं। लालू, मुलायम आदि के कथित समाजवादी दल जो लोहिया जी को आदर्श मानते थे और हिंदी के पक्ष में खड़े होते थे, वे भी अब हिंदी विरोध को मौन समर्थन देने लगे हैं। कहीं दूर-दूर तक किसी का आवाज नहीं निकल रही। ऐसा लगता है कि देश-हित की किसी बात से इनका कोई सरोकार नहीं।
मुझे लगता है, कि भारतीय भाषा प्रेमियों और देश-प्रेमियों को इस गंभीर विषय पर अपने विचार रखने चाहिए और जनता को आगे बढ़कर इन्हें जवाब देना चाहिए।
🔹डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ (महाराष्ट्र)
◾क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग सराहनीय है। अंग्रेजी का प्रयोग सोचनीय है, परंतु हिन्दी का प्रयोग निन्दनीय क्यों ?
🔹अमित जी (दिल्ली)
◾तमिलनाडु में हिन्दी के विरोध का लंबा इतिहास है। सन १९३७ से दक्षिण भारत में विरोध के चलते ही हिन्दी संविधान सभा में राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। आज भी दक्षिण की राजनीति में हिन्दी का विरोध शीर्ष पर है। हिन्दी का विरोध युवा तमिल बच्चों के साथ अन्याय है। इन्हें तमिलनाडु से निकलकर शेष भारत में भाषाई असहजता का सामना करना पड़ेगा। तमिलनाडु का एक बड़ा वर्ग आज हिन्दी सीख रहा है, यह भी यथार्थ है। इस समय अनेक प्रांतों ने अपनी प्रांतीय भाषा में शिक्षा को अनिवार्य कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है, किन्तु इनकी प्रतिद्वंद्विता हिंदी से नहीं होनी चाहिए। सारी भारतीय भाषाओं का समन्वय ही देश को मजबूत करेगा, देश की राजनीति को यह समझना होगा।
🔹राकेश पांडेय
◾तमिलनाडु में फिर जगी, वही पुरानी खाज।
बैरी लगते क्यों उन्हें, हिन्दी हिन्द समाज।
🔹डॉ. रामवृक्ष सिंह
◾शिक्षा-नीति का उद्देश्य है छात्रों का हित, न कि राजनीति!, लेकिन शिक्षा को लेकर तमिलनाडु में जो राजनीति की जा रही है, वह तमिलनाडु के छात्रों के हित में बिलकुल नहीं है और, राष्ट्रहित में तो नहीं ही है।
🔹प्रो. निरंजन कुमार (दिल्ली)
◾दुखद कि तमिलनाडु में दिल्ली की पूर्व स्थिति के समान ही मौजूदा माहौल है। शासक बनी द्रमुक पार्टी नास्तिक ही नहीं, अल्पसंख्यकों की तरफदारी में पूरी तरह जुटी है। शासन की बागडोर संभालते ही बड़े गर्व से इनकी घोषणा थी कि मात्र २०० दिनों में हमने २०० मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है। हर मशहूर मंदिर में दर्शन के टिकट बेचकर खूब पैसे ऐंठ रहे हैं और इन पैसों को चर्च और मस्जिदों के रखरखाव में खर्च किया जाता है। अनेक पुरातन मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हैं जबकि एचआर और सीई इन्हीं के हाथों में है। संस्कृत, सनातन धर्म, हिंदी और ब्राह्मणों के प्रति इनका घोर विरोध है, जिन्हें वे समूल नष्ट कर देना चाहते हैं। हर शाला या महाविद्यालय के पास सरकार संचालित शराब की दुकानें हैं और नशे की सामग्रियों की बिक्री बड़े जोर-शोर से हो रही है। यहाँ भाजपा का प्रभाव अत्यंत कमजोर है, अतः उनका अगले चुनाव में जीतना फिलहाल बहुत कठिन प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं।
🔹डॉ. जमुना कृष्णराज
◾तमिल राजनेताओं ने स्वयं के राजनीतिक लाभ के लिए सदा से ही ऐसी हरकतें की है, नुकसान वहाँ की आम जनता को हुआ है।यह देश के विकास में ही अवरोध पैदा करने का कृत्य है। अब तमिलनाडू की जनता को ही ऐसे अवरोधों का विरोध करना चाहिए।
🔹उदय कुमार सिंह
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)