डॉ. रचना पांडे,
भिलाई(छत्तीसगढ़)
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जिंदगी हूॅं,जीना सिखा रही हूॅं
इन दिनों जिंदगी से रुबरु होने का मौका मिला
वो मेरे जीने के ढंग पर मुस्कुरा रही थी,
थकान और चोटों को सहला कर मुझे सुला रही थी।
पता नहीं,क्यों अलग हुए हम दोनों,
मैं उसे और वो मुझे समझा रही थी,
आखिरकार मैने अपना मौन तोड़ा
उससे निडर होकर पूछ ही लिया,क्यों इतना दर्द दे रही हो ?
हँसते हुए बोली,मैं तुम्हारे भीतर समाई हुई जिंदगी हूॅंl अपने अस्तित्व के स्वार्थ में आगे की तपिश से बचाने, तुझे जीना सिखा रही हूँ जिंदगी हूॅं,जीना सिखा रही हूँll