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पढ़ने वालों के स्पर्श चाहिए

संजीव एस. आहिरे
नाशिक (महाराष्ट्र)
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क्या सबसे अच्छी दोस्त…? (‘विश्व पुस्तक दिवस’ विशेष)…

ऐसे ही एक दिन मुम्बई के किसी प्रसिद्ध वाचनालय में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। इतना विशाल ग्रंथालय देख मैं तो भौंचक्का रह गया। विभिन्न विधाओं की किताबों के बड़े-बड़े दालान, विशाल बहुमंजिला ईमारत में जाने कितनी किस्म की किताबें भिन्न-भिन्न ढंग से सजायी हुई थीं। किताबों का रख-रखाव बहुत अत्याधुनिक तरीके से किया हुआ था। वाचनालय में हर संभव सुविधा मौजूद थी और ढेर सारे कर्मचारी केवल किताबों की धूल झटकने का काम कर रहे थे।
धूल झटकते कर्मचारियों को देख मेरे मन में विचार आया- आखिर किताबों की धूल झटकने की नौबत क्यों आन पड़ी ? मैंने इस बारे में वहाँ के ग्रंथपाल से बात करके जानना चाहा, तब ग्रंथपाल ने जो बताया सुनकर अवाक रह गया। उन्होंने कहा-“भाई साहब, हमारे ग्रंथालय का सालाना रख-रखाव और साफ-सफाई का बजट किताबों की खरीदी से कई गुना ज्यादा है! इन किताबों को दिन-ब-दिन संभालना मुश्किल होता जा रहा है। हजारों किताबें केवल दिखावे मात्र के लिए रखी हुई है, कोई वाचक उन्हें पढ़ता नहीं। ऐसे में केवल धूल झाड़ने के लिए ही हमने कई कर्मचारी रखे हुए हैं।”
मैं तो उनकी बात सुनकर अवाक रह गया। कितना समृध्दशाली वाचनालय था वह! दुनिया की ऐसी कौन-सी विधा थी, जिसकी किताबें वहाँ उपलब्ध नहीं थी। वेदों से लेकर अर्वाचीन साहित्य तक, भारतीय साहित्य से लेकर पाश्चात्य साहित्य तक कितनी भिन्न-भिन्न किस्म की किताबें के पास अनायास ही वाचनालय के गलियारों से मैं घूमने लगा। प्राचीन से प्राचीनतम किताबों को देखता रहा, पलटता रहा। पुरानी किताबों की सौंधी-सौंधी गंध जैसे ही मेरे भीतर गुजरी, मैंने देखा कि पुराने ग्रंथों के अक्षर-अक्षर अल्मारियों से चीख रहे थे। जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, अरे हमें धूल झाड़ने वालों के स्पर्श नहीं, पढ़ने वालों के स्पर्श चाहिए। हमें उन निगाहों की तलाश है, जो हमारे अक्षर-अक्षर पर घूमे उन अक्षरों में छिपे ज्ञान के अमृतकणों का प्राशन करे। अरे! कोई तो खोलो हमें, देखो हम तुम्हारी झोली भर-भर लुटाने वाले हैं। तुम अपनी अन्जुरी तो फैलाओ। देखो, कितना ज्ञान का भंडार हमारे भीतर मौजूद है, तुम पन्ने तो पलटो।
यह कैसा समय आ गया, जो किताबों को कोई पढ़ता ही नहीं! एक जमाना था, लोग हमें प्राप्त करने के लिए दिनों-दिन इंतजार करते थे। हम सभ्यताओं के निर्माता हैं। दुनिया की सारी सभ्यताएं हमारी कोख से जन्मी है। दुनिया के सारे संविधान हमने ही पनपाए हैं। आज का आधुनिक विज्ञान, संगणक विज्ञान, रोबोट शास्त्र के मूल बीज हमने ही पनपाए हैं। दुनिया के सारे दर्शनों के हम ही मूल उदगाता हैं। देखो आदमियों, हमसे जितनी तुम्हारी दूरी बढ़ेगी, उतना ही तुम खोखला बनते जाओगे। सतही बनते जाओगे, तुम्हारा गहरापन खो जाएगा। तुम्हारी शांति छिन्न-विच्छिन हो जाएगी। तुम अशांति से घिरकर अपने ही आस्तित्व को गवां बैठोगे। इसलिए आओ! हम तुम्हें बचाना चाहते हैं, तुमसे बातें करना चाहते हैं। अल्मारियों में हमारा दम घुटता जा रहा है। एक-एक साँस बोझिल होता जा रहा है। इसलिए तुम हमें खोलो और अपने व्यक्तित्व को समृद्ध बनाओ।

आवाजों का शोर इतना ज्यादा हो चला था, कि मैंने अपने कानों पर हाथ रख लिए। मैंने महसूस किया कि बहुत सारी किताबें अल्मारियों से उतरकर अपने-आप मेरे सामने खुलकर मुझे पढ़ने का आग्रह कर रही थी। वाचकों के अभाव में अक्षर-अक्षर प्यासा था। किताबें, बड़े-बड़े ग्रंथ व्याकुल थे।याचक बनी किताबों को असहाय नजरों से देखता हुआ मैं शून्य में डूबता जा रहा था। उस शून्य के अंदर मुझे विवेकहीन और दिशाहीन समाज नजर आ रहा था। किताबों से नजर मिलाने की मुझमें हिम्मत कहाँ बची थी…?

परिचय-संजीव शंकरराव आहिरे का जन्म १५ फरवरी (१९६७) को मांजरे तहसील (मालेगांव, जिला-नाशिक) में हुआ है। महाराष्ट्र राज्य के नाशिक के गोपाल नगर में आपका वर्तमान और स्थाई बसेरा है। हिंदी, मराठी, अंग्रेजी व अहिराणी भाषा जानते हुए एम.एस-सी. (रसायनशास्त्र) एवं एम.बी.ए. (मानव संसाधन) तक शिक्षित हैं। कार्यक्षेत्र में जनसंपर्क अधिकारी (नाशिक) होकर सामाजिक गतिविधि में सिद्धी विनायक मानव कल्याण मिशन में मार्गदर्शक, संस्कार भारती में सदस्य, कुटुंब प्रबोधन गतिविधि में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ विविध विषयों पर सामाजिक व्याख्यान भी देते हैं। इनकी लेखन विधा-हिंदी और मराठी में कविता, गीत व लेख है। विभिन्न रचनाओं का समाचार पत्रों में प्रकाशन होने के साथ ही ‘वनिताओं की फरियादें’ (हिंदी पर्यावरण काव्य संग्रह), ‘सांजवात’ (मराठी काव्य संग्रह), पंचवटी के राम’ (गद्य-पद्य पुस्तक), ‘हृदयांजली ही गोदेसाठी’ (काव्य संग्रह) तथा ‘पल्लवित हुए अरमान’ (काव्य संग्रह) भी आपके नाम हैं। संजीव आहिरे को प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में अभा निबंध स्पर्धा में प्रथम और द्वितीय पुरस्कार, ‘सांजवात’ हेतु राज्य स्तरीय पुरुषोत्तम पुरस्कार, राष्ट्रीय मेदिनी पुरस्कार (पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार), राष्ट्रीय छत्रपति संभाजी साहित्य गौरव पुरस्कार (मराठी साहित्य परिषद), राष्ट्रीय शब्द सम्मान पुरस्कार (केंद्रीय सचिवालय हिंदी साहित्य परिषद), केमिकल रत्न पुरस्कार (औद्योगिक क्षेत्र) व श्रेष्ठ रचनाकार पुरस्कार (राजश्री साहित्य अकादमी) मिले हैं। आपकी विशेष उपलब्धि राष्ट्रीय मेदिनी पुरस्कार, केंद्र सरकार द्वारा विशेष सम्मान, ‘राम दर्शन’ (हिंदी महाकाव्य प्रस्तुति) के लिए महाराष्ट्र सरकार (पर्यटन मंत्रालय) द्वारा विशेष सम्मान तथा रेडियो (तरंग सांगली) पर ‘रामदर्शन’ प्रसारित होना है। प्रकृति के प्रति समाज व नयी पीढ़ी का आत्मीय भाव जगाना, पर्यावरण के प्रति जागरूक करना, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु लेखन-व्याख्यानों से जागृति लाना, भारतीय नदियों से जनमानस का भाव पुनर्स्थापित करना, राष्ट्रीयता की मुख्य धारा बनाना और ‘रामदर्शन’ से परिवार एवं समाज को रिश्तों के प्रति जागरूक बनाना इनकी लेखनी का उद्देश्य है। पसंदीदा हिंदी लेखक प्रेमचंद जी, धर्मवीर भारती हैं तो प्रेरणापुंज स्वप्रेरणा है। श्री आहिरे का जीवन लक्ष्य हिंदी साहित्यकार के रूप में स्थापित होना, ‘रामदर्शन’ का जीवनपर्यंत लेखन तथा शिवाजी महाराज पर हिंदी महाकाव्य का निर्माण करना है।