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जरूरी है रिश्तों के बाग को सींचना

सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
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कहाँ खो गया रिश्तों से प्रेम…?

भारत और भारतीय रिश्तों के ताने-बाने में जन्म के साथ जुड़ जाते है और मृत्यु और मृत्यु के बाद तक भी आपसी रिश्तों में याद किए जाते हैं। परिवार भारतीय समाज की सबसे छोटी इकाई और इससे हमारी प्रथम पहचान समाज में बनती है। रिश्तों में घनिष्ठता हमारी संस्कृति की अपनत्व भरी पहचान हुआ करती थी, लेकिन आज रिश्ते- नातों में परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। जहां प्राचीनकाल से संबंध ‘जन्म-जन्मांतर के बंधन’ माने जाते थे, वहीं वर्तमान अब ‘पल-दो-पल के मेहमान’ बनकर रह गए हैं। यह केवल कहने को भावनात्मक पहलू नहीं है, बल्कि रिश्तों की मर्यादाओं को तोड़ते, आपसी रिश्तों में हिंसात्मक रवैया अपनाते और अब तो मौत की नींद सुलाते रिश्तों के ठोस आँकड़े इस चिंताजनक प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं। अब तो एक दिन ऐसा नहीं जा रहा कि मीडिया, सोशल मीडिया को खोलते ही रिश्तों में ही कोई न कोई जघन्य अपराध न पढ़ने को मिल रहा हो। यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि आपसी रिश्तों के बीच तरलता समाप्त हो रही है ‘प्रेम की नदियाँ सूख रही हैं’ और ‘विश्वास की जमीन बंजर होती जा रही है’। यह हमारी संस्कृति का एक दुखद और वीभत्स अध्याय है, हमारे यहाँ तो आपसी रिश्ते-नाते तो क्या ‘अतिथि देवो भव’ से लेकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावनाएं रग-रग में समाहित रहती थी, जो अब अधिकतर आपसी रिश्तों में ही ‘मेरी ज़िंदगी, मेरी मर्जी’ की दिशा को पकड़ चुकी है।
अब बदलते सामाजिक ताने-बाने और उसके आँकड़े संदेश देते हैं कि जहां भारत में पारंपरिक रूप से संयुक्त परिवार प्रणाली रिश्तों की रीढ़ थी। एक ही छत के नीचे तीन चार पीढ़ियां साथ रहती थीं। जहां घर के वृद्धों, बड़े-बुजुर्गों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा जीवन चलाने में सहयोगी हुआ करती थी। जो रिश्तों की प्रणाली परिवार को ‘बरगद की जड़ों’ की तरह मजबूत बनाती थी, वह एकल परिवार, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और निजी स्वार्थ की बढ़ती प्रवृत्ति बड़े-बड़े मेट्रो शहरों में ७० फीसदी से अधिक परिवार एकल हैं। जहां बच्चों की परवरिश अक्सर अकेले माता-पिता या नैनी, आया या सहयोगी द्वारा की जा रही है, जिससे बच्चों का जीवन दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियों और चाचा, बुआ, मामा, मौसी के दुलार से वंचित रह जाता है।
आधुनिक जीवन-शैली ने हमें ऐसी ‘भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी’ दी है, जहां व्यक्ति के पास अपनों के लिए ‘समय की कमी’ साफ दिखाई देती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आँकड़े संकेत हैं कि लोगों में मानसिक तनाव और अवसाद की वृद्धि हुई है, जिसका सीधा असर आपसी रिश्तों पर पड़ रहा है। आज लोग सोशल मीडिया पर तो सामाजिक हैं, हजारों मित्र हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में ‘नितांत अकेलेपन का सामना’ कर रहे हैं। डिजिटल दुनिया, वास्तविक रिश्तों में ‘बड़ी खाई’ पैदा कर रही हैं। अब साधारणतया ही एक ही कमरे में बैठे पारिवारिक सदस्य भी एक-दूसरे से संवाद की बजाय मोबाइल, लेपटाॅप आदि में व्यस्त रहते हैं। वहीं रिश्तों में आपसी समझ, धैर्य की कमी, कम होता विश्वास और अपेक्षाओं का ‘बढ़ता पहाड़’ भी अपराधिक प्रवृत्ति बढ़ने का महत्वपूर्ण कारण है। पति-पत्नी, माता-पिता-संतान, भाई-बहन हर संबंध में हम दूसरे से ‘अवास्तविक उम्मीदें’ पाल लेते हैं। जब ये उम्मीदें पूरी नहीं होती, तो मन में ‘कड़वाहट घुलने लगती है’। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आँकड़े संकेत हैं कि पारिवारिक विवाद और रिश्तों में अलगाव, घरेलू हिंसा (अब स्त्री- पुरुष दोनों के साथ) और यहाँ तक कि आत्महत्या का बड़ा कारण बन रहे हैं।
अब लोगों में अस्थिरता बढ़ रही है और ‘सब्र का बांध टूट जाना’ आम हो चुका है। उदाहरण के लिए-तलाक के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पिछले दशक में कई भारतीय शहरों में तलाक की दर लगभग तिगुनी हो चुकी है, जिसका बड़ा कारण अपेक्षाओं में टकराव और धैर्य की कमी है। छोटी-छोटी बातों पर लोगों के ‘क्रोध का पारा चढ़ जाना’ और बिना ‘सोचे-समझे निर्णय लेना’ रिश्तों का तिनका-तिनका बिखेर रहा है’।
वृद्धों की उपेक्षा भी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनकर उभर रही है। जहां एक ओर, भारत में वृद्धों की वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर उन्हें अपनों के बीच ‘अपने ही घर में पराया’ महसूस कराया जाता है। कई मामलों में उनके ही बच्चे उन्हें वृद्धाश्रमों में छोड़ देते हैं। यह समय दिखाता है कि ‘संबंधों की पवित्रता’ कहीं न कहीं धूमिल हो रही है, यह कहीं-कहीं इतना विकराल रूप धारण कर चुकी है कि हत्या ही समाधान समझा जा रहा है, जो गहन चिंता के साथ चिंतन का विषय है।
भारतीय चिंतन में हर चिंता का समाधान है और रिश्तों को सींचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर पाना तो हमारे रक्त में समाहित है। अभी भी इतनी देर नहीं हुई है कि हम शाम के भूले सुबह को घर लौट नहीं सकते। बस, इस गंभीर और बहुआयामी समस्या से निपटने के लिए हमें ‘बहुआयामी दृष्टिकोण’ अपनाने की आवश्यकता है। इसके लिए कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं–
◾अपेक्षाओं के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण-
सबसे पहले हमें ‘स्वयं में झांकना होगा’ और अपनी अपेक्षाओं को यथार्थवादी बनाना होगा। कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं होता, कोई न कोई कमी रहती है। ऐसे में रिश्तों में कभी पूर्णता नहीं आ पाती। सभी को आपसी ‘समझौते और सहिष्णुता’ से संबंधों की नींव मजबूत करना चाहिए।
◾आपसी संवाद निर्धारित करें-
सबसे पहले हमें ‘संवाद की डोर’ को मजबूत करनी होगी। मोबाइल और इंटरनेट से कुछ समय निकालकर अपनों के साथ आमने-सामने बैठकर बात करें, ‘उनकी सुनें और अपनी कहें’। अपनत्व का संचार करें। परिवार में ‘संवाद के लिए समर्पित समय’ निर्धारित करना चाहिए-जैसे भोजन के समय फोन उपयोग न करना, सोने जाने से ३ घंटे पहले फोन, इंटरनेट से दूर होकर हँसी-ठिठोली में समय लगाना।
◾पारस्परिक सम्मान और व्यक्तिगत स्थान-
रिश्तों में ‘एक-दूसरे का सम्मान’ करना बेहद जरूरी है। हर व्यक्ति एक-सा नहीं होता, सबकी अपनी अलग पसंद-नापसंद होती है, और हमें उन्हें स्वीकार करना सीखना होगा। हर व्यक्ति को उसका ‘व्यक्तिगत स्थान’ देना भी जरूरी कदम है।
◾धैर्य और सहानुभूति-
रिश्तों में ‘धैर्य का दामन थामना होगा’। हर रिश्ते में उतार-चढ़ाव आते ही हैं, कभी ऐसा नहीं होता कि ‘जहां चार बर्तन हो और वह आपस में नहीं टकराए’ और इसलिए हमें स्वयं में सहन करने की शक्ति विकसित करनी होगी। दूसरों की भावनाओं को समझना और सहानुभूति दिखाना रिश्तों में ‘मधुरता व प्रगाढ़ता’ लाता है।
संस्कारों का पुनरोत्थान-
हमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटना होगा एवं बच्चों को ‘संबंधों का महत्व’ सिखाना होगा। परिवार में ‘संयुक्त गतिविधियों’ को बढ़ावा (साथ में भोजन करना, त्योहार मनाना, या यात्रा करना, घरेलू और बाहरी कार्यो में सहयोग करना) देना चाहिए।
◾रिश्तों में समानता-
रिश्तों में समानता किसी भी संबंध की मज़बूत बुनियाद है, फिर चाहे वह मित्रता हो, प्यार हो या परिवार। सबको सबकी अहमियत अनुरूप बराबर का सम्मान और समानता देना आवश्यक है। छोटा- बड़ा, ऊँच-नीच भी रिश्तों की गरिमा को ठेस पहुंचाती है। सबके विचारों, फैसले को बराबर का भागीदारी बनाना महत्वपूर्ण कदम होगा। रिश्तों में समानता होती है, तो दोनों महत्वपूर्ण महसूस करते हैं, जिससे विश्वास गहरा होता है और खुलापन बढ़ता है। रिश्ता एकतरफा नहीं चल सकते है। एक का हमेशा देना और दूसरे का हमेशा लेना असंतुलन पैदा करता है, जिससे नाराजगी और दूरियाँ बढ़ती हैं। यह हर रिश्ते में अनिवार्य तत्व है, जो उसे फलने-फूलने का मौका देता है।
हमें यह भी समझना होगा कि रिश्ते कोई ‘बाजार का सौदा’ नहीं हैं, जिन्हें खरीदा या बेचा जा सके। वे तो ‘बाग का पौधा’ हैं, जिन्हें स्नेह के पानी, विश्वास के खाद और समर्पण की देखभाल से सींचना पड़ता है। तभी वे फलीभूत होते हैं और उससे उत्पन्न फल-फूल जीवन को सुगंधित करके उत्तम स्वास्थ देते हैं। इससे ही सुख, सौभाग्य, समृद्धिपूर्ण जीवन बनता है। यदि हम समय रहते इनकी अनदेखी करेंगे तो वह दिन दूर नहीं, जब रिश्तों के ‘सुंदर बगीचे’ पूरी तरह से उजड़ जाएंगे।
आइए, हम सब मिलकर इस समाज की ‘बदलती धारा को मोड़ें’ और एक बार फिर ‘प्रेम के सेतु’ का ऐसा निर्माण करें, जहां हर रिश्ता एक-दूसरे को ‘अपनत्व के गर्व से गले लगाए’, ‘मिलकर खुशियों का दीप’ जलाए और भारतीय संस्कृति की ‘अखंडता’ को बनाए रखे।