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आ जा सावन झूम के…

विजय कान्त द्विवेदी
मुंबई(महाराष्ट्र)
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आ जा सावन झूम के,
प्रकृति-परी के
सुन्दर मुख को
मन-मानस में चूम के।
आ जा सावन झूम के…

हे सावन तुम,
अधिक सुहावन
रिमझिम बरसे पानी।
मैंक-मांक-ध्वनि,
दादुर बोले
करें पावस की अगवानी।

जब चढ़ा अषाढ़,
घन घीरे भयंकर
बरसे तुम,हरषे जीव।
किन्तु पपीहा,
अब तक प्यासा
सतत पुकारे पीव।

बने धरा फिर,
शस्य श्यामला
उगे खेतों में धान।
जन-जीवन अब,
और अधिक नहीं
हो ‘कोरोना’ से परेशान।

हरियाली फैली है,
हर ओर हरितिमा छाई।
अवनि से अम्बर तक,
बह रही अनिल सुखदायी।

मोर-मनोहर शोर,भोर में,
करें तरू-तल नाचे।
अगम अज्ञात ज्ञान की पोथी,
सांझा झिंगूर-दल वांचे।

हिय हर्षित हुए,
नदी-ताल के
कदम्ब कनेर हैं फूले।
लगे नहीं पर,
ग्रामांचल में
वे सावन के झूले।‌

अब विरहिणी,
नहीं देखती
प्रियतम पथ नयन झुकाकर।
वीडियो काल,
चैटिंग कर हर्षित
होती हिय ताप बुझाकर।

जब तुम आते,
रंग जमाते
ग्राम्य शहर सब घूम के।
रिम-झिम जल बून्दों,
को लेकर
आ जा सावन झूम के॥

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