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हृदय को जागृत करती है पुस्तक

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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विश्व पुस्तक दिवस स्पर्धा विशेष……

सामाजिक प्राणी में नैसर्गिक गुण विद्यमान रहता है- दूसरों के संपर्क में रहना चाहे सजीव हो या निर्जीव। गुणग्राही व्यक्ति सदैव गुणवान व्यक्तियों से संबंध बनाने की इच्छा से गृहित होते हैं और दुर्जन दुर्गुणों से। वास्तव में,मनुष्य की बुद्धि अति कोमल व लचीली होती है,जिस कारण मनुष्य के मस्तिष्क पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपने परिवेश व तत्वों के प्रति विशेष खिंचाव,प्रभाव और परिवर्तन आदि की स्थिति मंडराती रहती है। अत: यह आवश्यक है कि व्यक्ति को संगत सदैव सद्गुण युक्त वस्तुओं व व्यक्तियों से ही करनी चाहिए। इसलिए कहा गया है , “संगत कीजै साधु की,हरे और की व्याधि,संगत बुरी असाधु की,आठों पहर उपाधि।”
इस दिशा में ‘पुस्तक’ से बड़ा कोई सानी नहीं, रक्षक नहीं,साधक- साधना नहीं। श्रेष्ठ पुस्तकों की संगत से व्यक्ति के मन-हृदय में सात्विक विचारों व ज्ञान का संचार होता है। व्यावहारिक जीवन में कठिन-संघर्ष के पलों में ‘पुस्तक’ के अलावा कौन‘ आशा और अपेक्षा’ से रहित के दायरे में व्यापक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार उत्पन्न कर सकता है ? नि:संदेह दुख-सुख की अनुभूति के लक्षणों से संबद्ध भाव-विभोर मन को आकर्षित करने की शक्ति ही पुस्तक द्वारा नवीन पथ संरचना करती हैं। संतजनों व श्रेष्ठ पुस्तक की अद्भुत-शक्ति रत्नाकर डाकू को ऋषि वाल्मीकि बनाकर ‘रामायण’ जैसा सर्वमंगल कामना से भरपूर रचना का पदार्पण करवा सकती है। इसी संबंध में आधुनिक संत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा,-‘नौ रत्न से बढ़कर किताब अनमोल रत्न,जिसकी कोई कीमत नहीं है।’
कहा जाता है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास करता है।’ शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ मानसिक व्यायाम भी आवश्यक है। स्वस्थ मन अच्छा कर्म व सुख भोग सकता है और जीवन को नीरस होने बचा सकता है। मन के अस्वस्थ होने से शारीरिक व्याधि उत्पन्न होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में पुस्तक का सान्निध्य होने पर मानसिक प्रसन्नता में वृद्धि और चित्त को शांति मिलती है। शरीर हृष्ट-पुष्ट,मुख कांति युक्त,आलस्य से दूरी,स्थायी उचित व्यावहारिक विचारों का जन्म और हल्कापन अनुभव होता है। अध्यात्म के शब्दों में मन को आत्मानुभूति प्राप्त होती है। जीवन के प्रति सार्थक विचार-दृष्टि का उद्भव,दुराचारी प्रवृत्तियों जैसे बुरे व्यसनों-बीड़ी-सिगरेट पीना,जुआ खेलना,विद्यालय के समय फिल्में देखना, आवारागर्दी करना,छेड़छाड़ करना व फब्तियां कसना,अति कामुकता आदि पर लगाम लगाने, उच्च से उच्चतर ज्ञान दर्शन प्रदान करने का कार्य पुस्तकें ही कर सकती हैं। लोकमान्य तिलक का मन्तव्य है,-‘किताबों में वह शक्ति होती है जो किसी नर्क को स्वर्ग बना देती है।’
पुस्तक का जन्म अनन्त काल पूर्व प्रारंभ हुआ। प्राचीन समय में भोजपत्रों,खालों,शिलालेखों और रेशमी कपड़ों आदि पर लिपियों द्वारा लिखा गया। तदनन्तर,पुस्तक का पुनर्जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम चीन में ‘कागज’ पर हुआ। अनेक मुनियों व ऋषियों,आचार्यों और विचारकों की वाणियाँ कागज पर लिख कर सुरक्षित की गई,जिन्हें पढ़कर आज भी हम सब नित नई प्रेरणा लेते हैं। कागज के अविष्कार होने पर हस्तलिखित प्रथम पुस्तक का प्रचलन सन् १४४० में फ़्रांस में हुआ। कहते हैं कि सन् १४४५ में पहली पुस्तक ‘बाइबल’ मुद्रित हुई । अत: पुस्तक लेखन की यह यात्रा परिवेश के अनुरूप नए खोजों की मदद से मुद्रण-यंत्र में शीघ्र ही परिवर्तित हो गई।
पुस्तकें भारतीय मानस में सरस्वती की वरद पुत्री हैं। यह मन के अंधकार को नष्ट कर प्रकाशमान बनाती हैं। आधुनिक युग में मशीनीकरण अपनी चरम सीमा पर अग्रसर है। छापेखाने में बड़ी-बड़ी मशीनों के नीचे दब कर मुद्रित होकर कागज के पन्नों को एक धागे में बांध कर पुस्तक का रूप आकर्षक जिल्द के साथ दिया जाता है। इन्हें भी पीड़ा सहनी पड़ती है जब इन्हें एक सुंदर आकार देने के उद्देश्य से काटा जाता है और छपे पन्नों को संगठित करने के लिए सुइयों से छेदा जाता है। इतने बड़े कष्ट को पुस्तक शांति से सह लेती हैं और हमें यह शिक्षा मिलती हैं कि जीवन में कठिनाइयों का सामना धैर्य से करना चाहिए।
नई-नई खोजों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुविधाजनक और तीव्र गतिशील बना दिया है। दूसरे शब्दों में,संगणक में पुस्तकें मटर का दाना हो चुकी हैं। विभिन्न विषयों से संबंधित पुस्तकें ज्ञान वृद्धि व विकास का सुदृढ़ सक्षम आधार है। मनोरंजन की पुस्तकें मानसिक विकारों को नष्ट करके आनंद का सृजन भी करती हैं। दूसरी ओर, सुविधाओं की दुरुपयोग भी जमकर हो रहा है।अश्लीलता का खुला बाजार नैतिकता का पतन करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। ये समस्या बच्चों और अभिभावकों के बीच दूरी आदर-सम्मान में खाई को विस्तार दे रही है। शरारती व चंचल बच्चों विद्यार्थियों में अश्लील चित्र व कथाएं ज्ञान देने के साथ-साथ मानसिक स्तर पर टकराव उत्पन्न कर रहा है। वहीं,दृश्यात्मक पुस्तक पठन से व्यक्ति के नेत्र-दृष्टि व स्मरण-शक्ति कम होने का प्रभाव शोधकर्ता बता रहे हैं। साथ ही अति गरीब व निचले वर्ग के बच्चे और छात्र पुस्तक के कमी को अनुभव कर रहे हैं।
मनोरंजन के आज बहुत से साधन उपलब्ध हैं, उनमें से एक साधन ‘पुस्तक’ भी हैं। बाल साहित्य व हास्य साहित्य सृजन इसी उद्देश्य की पूर्ति भी करते हैं। पठन-पाठन संबंधी पुस्तकें जीवन के पथ को सुधारने हेतु स्थायी सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए बहुउपयोगी सिद्ध होती है। साथ ही,जीवन जीने की कला और अर्थ अर्जन के संसाधनों की ओर मार्ग तय करती हैं। भारतीय शास्त्रों में ब्रह्म मुहूर्त में पाठ्य पुस्तक वाचन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है,क्योंकि तन,मन रात्रि द्वारा अपनी थकान और अनगिनत विचारों को विश्राम दे चुका होता है। वातावरण में भी यही भाव संचालित होता है यानी कि प्रदूषण क्षण का लुप्त हो जाना,घास पर ओस की ठंडी बूँदों का चमकना और वायु का शीतलता के संसर्ग से विचरण करना आदि मन-चेतना को लुभावना लगता है। जिस प्रकार स्वस्थ शारीर के लिए निश्चित समय में निश्चित मात्रा में पौष्टिक आहार की आवश्यकता पड़ती है,उसी प्रकार मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए पुस्तक जैसे संसाधनों की ज़रूरत होती है। मस्तिष्क के ज्ञान भंडार के विस्तार के लिए नियमित रूप से पुस्तकें पढ़नी चाहिए। अतः जीवन को पुस्तकों के माध्यम से मधु-सुधारस का पान करते रहना चाहिए । विलियम फादर का मानना है,-‘एक किताब को खत्म करना एक अच्छे दोस्त को छोड़ने के समान है।’
चार्ल्स बौडेलेपर के अनुसार,-‘एक किताब एक उद्यान है,एक बग़ीचा,एक स्टोर हाउस,एक पार्टी है। बहरहाल एक साथी है,परामर्शदाता है और परामर्शदाता का झुंड है।’ यह उक्ति पुस्तक के महत्व को दर्शाती है। आधुनिक भौतिक जगत में प्रत्येक मनुष्य की जीवन-शैली संघर्षों से भरी है, मन व्याकुल और असंतुष्ट रहता है। एकल-परिवार व्यवस्था शैली ने बहुत-सी मानसिक विकृति शक्तियों को जन्म दिया है। व्यक्ति अंदर ही अंदर कुंठाग्रस्त हो घुला जा रहा है। ऐसी दशा में पुस्तक से बढ़कर और कौन सच्चा साथी बन सकता है ? एकमात्र पुस्तक ही वैयक्तिक तनाव को कम करने और स्व-स्वभाव को परिष्कृत करने में सहायक बन सकती है।
पुस्तकों के सानिध्य में रहने से स्मरण शक्ति का भी विकास होता है,क्योंकि मनपसंद पुस्तक हमें हमारे मनोभावों को अपने में हस्तांतरित करने में जब विजयी हो जाती हैं,तो हृदय उसी प्रवाह में हिचकोले लेने लगता है,कभी वृक्षों पर खिले रंग-बिरंगी फूलों व झुरमुट चलती मदमस्त बयार में मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस अवस्था को पुस्तक के संदर्भ द्वारा ग्रहण करता है,उसे इस आनंद को प्राप्त करने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता है,ना ही कोई धन खर्च करना पड़ता है और ना ही अपना अनमोल समय आने-जाने में व्यर्थ करने की आवश्यकता होती है। सच ही कहा है विद्वानों ने कि जीवन को मानसिक रोगों से मुक्त करने में पुस्तक रूपी अदृश्य मित्र ही उचित है। इस संदर्भ में बिल गेट्स ने पुस्तक को एक अच्छा साथी इसलिए माना कि ये बिना वाचालता के पूरी तरह से संवाद से भरपूर है।
भोग-विलास,आकर्षण और तुर-फुर प्रवृत्ति ने आज के लोगों के व्यावहारिक स्वभाव को अत्यंत प्रभावित किया है। पुस्तक पढ़ने की रुचि यानी स्वाध्याय करने की आदत दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। अनेक पुस्तकालय,प्रकाशन,समाज-सेवी संस्थाएं,समय-समय पर लोगों में नव-जोश भरने के उद्देश्य से आकर्षक उपहार,प्रतियोगिता वगैरह आयोजन करवाती रहती हैं,ताकि अच्छे लेखकों, विचारकों की प्रतिभा को नया आयाम प्राप्त हो सके और परिवार,समाज व राष्ट्र का हित हो सके। भूतकाल से चली पुस्तक की अथक यात्रा अपने में वर्तमान को समेटे हुए उज्जवल व ध्रुव तारे की भांति निरंतर प्रज्वलित रहे।
देखा जाए तो पुस्तक के कई रूप व नाम हैं,छोटे-बड़े आकार हैं,ग्रंथ,शास्त्र,पोथी,किताब,पुस्तक, किताब प्रचलित संज्ञा है,अनगिनत जातियां हैं- धर्मशास्त्र,तर्कशास्त्र,समाजशास्त्र आदि ऐसे कई और शास्त्र भी हैं। इन विभिन्न पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त कर जीवन भर अर्थ-अर्जन कर अपना जीवन संसार चलाते हैं। पुस्तक मूक जीवन संगिनी है, यश प्राप्ति के मंच पर प्रसिद्ध लेखकों को सम्मान व पद्म भूषण से सम्मानित करती हैं।
ईश्वर की बनाई जीव-जगत रचना में मनुष्य अपने मनोभावों को विभिन्न प्रकार की चीजों से गूँथता है, निर्माण करता है। मनुष्य द्वारा बनाई गई रचना में भी ‘हित का भाव’ निहित रहता है। पुस्तक इन्हीं लोकमंगल व लोकहित भावों का संगठित रूप है। युग-परिवेश से विचलित हुए समाज की मुखर ध्वनि पुस्तक होती है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में लेखक को ‘ब्रह्मा और शब्द को ‘ब्रह्म‘ माना गया है, जो कि सही है,वही युग का सच्चा पथ प्रदर्शक है। वह समाज को अद्य:पतन से बचाता है,बार-बार सजग करता है। पुस्तक अपने समकालीन परिवेश का वह दर्पण है,जिस पर चित्रित प्रतिबिंब का व्यक्ति अपनी सूझबूझ से अनुसरण करता है।
पुस्तक के मनुष्य जीवन में महत्व को देखते हुए १९९५ में यूनेस्को ने ‘विश्व पुस्तक तथा स्वामित्व दिवस’ का आयोजन प्रतिवर्ष २३ अप्रैल को करने का निश्चय किया।
पुस्तकें ज्ञान का उत्तम साधन हैं,नैतिकता की दिव्य-दृष्टि,विचारों की एकता का बहुमूल्य गठन और विचार-भावों के परिवर्तन करने का बेहद तेजधार हथियार हैं। पुस्तक अपने रचनात्मक प्रभाव से वैभव व यश के साथ रचना के स्वामित्व को उच्च स्थान दिलाती है। पुस्तकें जनजागरण में सूर्य-सी सकारात्मक ऊर्जा स्थापित करती है। पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है-मनुष्य को संस्कार देना। इस दृष्टि से पुस्तक का अस्तित्व अमर है,भले ही आकार-रूप अदृश्य लघु हो गया है,लेकिन पुस्तक को पढ़ने के लिए खोलने पर कृष्ण के मुख की तरह अंदर से अनन्त विराट स्वरूप संसार का छुपा है। विश्वव्यापी महामारी कोरोना विषाणु के दस्तक देने के कारण पुस्तकें सभी समुदायों व लोगों के लिए बेहतरीन समय गुजारने हेतु मील का पत्थर साबित हुईं। सकारात्मक सोच-विचार के विकास में पुस्तकें अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई हैं।
यदि प्रश्न हो-कौन-सा है ऐसा मित्र,जो विपत्तियों में बार-बार काम आए ? नि:संकोच कह सकते हैं- पुस्तक। पुस्तक एक ऐसा मित्र है जो बिना किसी दबाव के साथ निभा सकने में सक्षम है और एवज में कुछ नहीं चाहता। प्राचीन विरासत से मिली पुस्तकें आज भी हम सबका मार्गदर्शन करती हैं। युग कितनी बार परिवर्तित हो जाए,परन्तु ये अपनी मौलिकता से परिपूर्ण रहती हैं। पुस्तक चित्त को शुचि व प्रफुल्लित करती हैं,ज्ञानचक्षु खोलती हैं, गुरू-शिष्य परंपरा का निर्वाह करती हैं,वर्णमाला से मन के संताप हरती है। पुस्तक ही ज्ञान के आदान-प्रदान की लौ है,जो एक हृदय में उत्पन्न हो दूसरे के हृदय को जागृत करती है।
पुस्तकें मानवीय चेतना के विकास और नवीन तत्वों के समावेश का परिणाम हैं। इलियट के विचार में केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। जिसके निर्वाह से पुस्तकें भूतकाल से भविष्य की ओर प्रस्थान करने की प्रेरणा देती है। व्यक्ति और व्यक्तित्व के बीच उत्पन्न हुई दरारों को भरने का कार्य स्थाई रूप से पुस्तक द्वारा ही संपन्न होता है।
पुस्तक हमारे जीवन में कुंठित विचारों में परिवर्तन कर लोचशील व सहृदयी बनाती है। अत: पुस्तकें संजीवनी बूटी भी हैं। निष्कर्ष अगर जयशंकर प्रसाद की काव्य पंक्तियों से किया जाए तो पुस्तक की वंदना इस प्रकार से होगी-
‘तुम मांसहीन,तुम रक्तहीन,
हे अस्थि शेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण! हे चिर नवीन!

साधारण शब्दों में,पुस्तक को सच्चा व पवित्र मित्र कहने में संकोच कैसा…? जब से तुम्हें देखा,जब से तुम्हें चाहा,जब से तुम्हें जाना,मैं खो गया…!

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