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सूची,अनुसूची और साहित्य अकादमी के पुरस्कार!

मुद्दा-अष्टम अनुसूची में स्थान………..

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ (महाराष्ट्र)
साहित्य अकादमी के पुरस्कार पाने की होड़ एक और संविधान की अष्टम अनुसूची में स्थान पाने की होड़ का रूप ले रही है तो दूसरी ओर कुछ बोलियाँ साहित्य अकादमी की मान्यता के आधार पर अष्टम अनुसूची में स्थान पाना चाहती हैं। इस प्रकार संघ की राजभाषा हिंदी सहित भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं को विघटन की ओर ले जाती दिखती हैं।
अनेक बोलियों के साहित्यकारों का कहना है कि अष्टम अनुसूची में न होने से उन बोलियों में लिखे जाने वाले श्रेष्ठ साहित्य की कोई पूछ नहीं,उन्हें कोई सम्मान नहीं मिलता। एकदम सही बात है,इसका विश्लेषण जरूरी है। यदि हम २०११ के जनगणना के आँकड़ों को भी लें तो हम पाते हैं कि हिंदी क्षेत्र की कई बोलियों को बोलने वालों की संख्या करोड़ों में है,उनमें कुछ उन्नत साहित्य भी रचा जा रहा है लेकिन उसे पूछने वाला कोई नहीं है।जो अष्टम अनुसूची में होगा,कैसा भी साहित्य हो,उसे पुरस्कार मिलेगा। भले ही उसके बोलने वालों की संख्या कितनी ही कम क्यों न हो। जो अष्टम अनुसूची में नहीं होगा,उसे पुरस्कार नहीं मिलेगा,भले ही उसके बोलने वालों की संख्या बहुत ज्यादा क्यों न हो,श्रेष्ठ साहित्य ही क्यों न हो। २०११ की जनगणना के अनुसार बोडो ०.१२फीसदी,मणिपुरी ०.१५, कोकणी ०.१९ एवं कश्मीरी ०.५६ फीसदी आदि है। ये सब १ प्रतिशत से काफी कम है,जबकि हिंदी और इसकी बोलियों सहित हिंदी भाषी ४३.६ प्रतिशत उसके लिए भी एक ही पुरस्कार,बोली साहित्य की कोई पूछ नहीं। यानी अष्टम अनुसूची में आने पर पुरस्कार का रास्ता खुल जाता है। ऐसे में असंतोष तो होगा ही। अष्टम अनुसूची में आने की लड़ाई तो होगी ही,स्वभाविक है।
एक बहुत बड़े झगड़े की जड़ हैं साहित्य अकादमी के पुरस्कार। जो श्रेष्ठ साहित्य से अधिक महत्व संविधान की अष्टम अनुसूची और अपने द्वारा बनाई गई बोली-भाषाओं की सूची को देती है। आश्चर्य की बात यह कि अनेक बोलियों,उप-बोलियों में निहित श्रेष्ठ साहित्य को प्रतियोगिता से बाहर रखा जाता है और चुपके से अंग्रेजी को गोद में बैठा लिया जाता है। अकादमी को इन तमाम बिंदुओं पर गहन विचार मंथन करना चाहिए ताकि सूचियों और अनसूचियों के जाल में श्रेष्ठ साहित्य की उपेक्षा या सतही साहित्य को पुरस्कृत न किया जाए। इसके लिए अकादमी जैसे पुरस्कारों को अष्टम अनुसूची या अन्य किसी सूची से पूरी तरह अलग कर दिया जाना चाहिए। अकादमी जितने भी पुरस्कार देना चाहती है वह दे,किसी अनुसूची को ध्यान में रखकर नहीं,बल्कि श्रेष्ठ साहित्य को ध्यान में रखकर। फिर वह श्रेष्ठ साहित्य देश की किसी भी भाषा,बोली, या उप बोली में ही क्यों न हो। यही न्याय संगत है,यही होना चाहिए। संस्कृति मंत्रालय को भी इस पर विचार करना चाहिए।

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी(दिल्ली)
बहुत बढ़िया सुझाव।

प्रो. अमरनाथ(पश्चिम बंगाल)
बहुत ही संतुलित विश्लेषण। सभी हिन्दी प्रेमियों को आत्मालोचन करने और अपने कार्य क्षेत्र तय करने का समय है यह। वैश्विक हिन्दी सम्मेलन इस दिशा में ऐतिहासिक भूमिका निभा रहा है। हम सम्मेलन की उक्त अपील का स्वागत करते हैं।

डॉ. शीतला प्रसाद दुबे(महाराष्ट्र )
साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को ऐसी किसी भी अनुसूची आदि से मुक्त रखना चाहिए,जो भाषाएँ अनुसूची में शामिल नहीं हैं,उनमें रचित साहित्य किसी भी तरह कमतर नहीं है। किसी भाषा एवं साहित्य को उसके कथ्य,शिल्प एवं सरोकार से मूल्यांकित किया जाना ही श्रेयस्कर है। बिना पढ़े केवल अनुसूची के आधार पर विचार-योग्य न मानना कतई उचित नहीं है।

डॉ. वरुण कुमार
पुरस्कारों से लेखक और कृति का ही नहीं उस भाषा की रचनात्मकता का भी सम्मान होता है। उसे पाने की तड़प बोलियों में भी स्वाभाविक है-खासकर जब साहित्य अकादमी जैसा अखिल भारतीय प्रतिष्ठित पुरस्कार हो। अकादमी ने रचनात्मकता का आधार सिर्फ आठवीं अनुसूची को ही बनाकर भारत की अनेक बड़ी और साहित्य-समृद्ध बोलियों की उपेक्षा की है। यह आधार उसे बदलना ही चाहिए-न सिर्फ बोलियों के टकराव को रोकने के लिए,बल्कि न्याय करने के लिए भी। आश्चर्य नहीं कि अकादमी पुरस्कार की वर्तमान भाषा नीति बोलियों के बड़े झगड़े को जन्म दे रही है। वे अन्य भाषाओं के बीच जगह न पाकर हिंदी को ही तोड़कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व दर्ज कराने के लिए आतुर हो गई हैं।

प्रेम अग्रवाल(पंजाब)
बहुत ही बढ़िया सुझाव है। मैंने तो इसको आधार बनाकर बुद्धिजीवियों को आवाहन किया है। इसके आधार पर प्रधानमंत्री, शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय और भारतीय साहित्य अकादमी को लिखने पर विचार कर रहा हूँ,लेकिन यह विचार या तो सभी व्यक्ति और संस्थाएं अपने स्तर पर करें या फिर केन्द्रीय स्तर पर एक संस्था द्वारा किया जाए और सभी व्यक्ति और संस्थाएं हस्ताक्षर कर अपनी सहमति दें।

*हरि सिंह पाल-
बधाई,साथ ही हमें रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता को हटाने की मुहिम चलाना शुरू करना होगा। अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त किए बिना न तो हिंदी और न कोई भी भारतीय बोली भाषा सफल हो सकती है।

प्रो. मंगला रानी (बिहार)
बिल्कुल उचित विचार है। पुरस्कार का आधार सिर्फ श्रेष्ठता हो न कि अनुसूची। न्याय होना चाहिये प्रतिभा के साथ,न कि भाषा या बोली देखते रहें..।

डॉ. राजेश्वर उनियाल
दरअसल जो हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं,वे क्षेत्रीय भाषाई साहित्यकारों को हिंदी साहित्य के क्षेत्र में न तो कोई विशेष महत्व देते हैं और न ही उन्हें मंच उपलब्ध कराते हैं। इससे क्षेत्रीय बोली-भाषाओं के साहित्यकार अपने को गौण समझकर, अपनी बोली-भाषा को भी हिंदी के समकक्ष महत्त्व दिलाने का प्रयास करते हैं । इस हेतु वह अपनी बोली-भाषा को भी अष्टम अनुसूची में सम्मिलित कर अपनी क्षेत्रीय भाषा और स्वयं को हिंदी सहित सभी अभिजात वर्ग की भाषा के समकक्ष खड़ा होने हेतु देखना चाहते हैं ।

अनिता सागर
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल २२ भाषाओं में से हिन्दी की अनेक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। भारत में कुल १८ बोलियाँ हैं, जिनमें अवधी,ब्रजभाषा,कन्नौजी,बुंदेली,बघेली, मगही आदि प्रमुख हैं। ऐसी बोलियों में ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख हैं। यह बोलियाँ हिन्दी की विविधता हैं और उसकी शक्ति भी। वे हिन्दी की जड़ों को गहरा बनाती हैं। हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो न केवल अपने में एक बड़ी परंपरा,इतिहास,सभ्यता को समेटे हुए हैं,वरन स्वतंत्रता संग्राम,जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है। बोलियों में कई साहित्यकार ने श्रेष्ठ साहित्य की रचनाएं की है,परन्तु श्रेष्ठ सहित्य के पुरस्कार से वंचित हैं। सही में इसका विश्लेषण करना जरूरी है।

इन्होंने भी जताई प्रतिक्रिया-अश्भन सिंह तोमर,शचि मिश्रा,गंगा शर्मा,संजय वर्मा, राजेन्द्र प्रताप सिंह,इंदिरा शर्मा,डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया, राजेश्वर वशिष्ठ,डॉ. नटवर नागर,मधुदीप गुप्ता,राहुल मिश्र,अखिलेश्वर मिश्र आदि।

(सौजन्य:वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

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