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मृगतृष्णा

बोधन राम निषाद ‘राज’ 
कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
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मानव मन लालच भरे,मृगतृष्णा बन आय।
रुके नहीं यह साथियों,दिन-दिन बढ़ता जाय॥

मृगतृष्णा इक भूख है,होय अनैतिक काम।
होता इससे है जहां,मानव फिर बदनाम॥

कहीं लूट और जंग भी,होते हैं व्यभिचार।
मृगतृष्णा की प्यास में,भटक रहे संसार॥

भाई से भाई लड़े,कलह द्वेष घर द्वार।
छिन जाते हैं सुख सभी,दु:ख पाते परिवार॥

मृगतृष्णा करना नहीं,जीवन है अनमोल।
सदा नेक राहें चलें,इक-इक पग को तोल॥

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