पुस्तक समीक्षा ……………….
वरिष्ठ कवि सुरेशचंद्र ‘सर्वहारा’ (राजस्थान) यथार्थवाद के अप्रतिम कवि हैं। जीवन की विसंगतियों को जस के तस शब्दों और भावों से समन्वित करके पाठकों के सम्मुख तादृश कर देना इनकी सुपरिचित शैली की विशेषता है।
‘सर्वहारा’ की पुस्तक की प्रथम ३ कविताएँ ‘धूप’, ‘धुन्ध’ और ‘ढलती हुई शाम’ काव्य संग्रह के शीर्षक की सार्थकता को प्रमाणित करती हैं। ११९ पृष्ठों की यह पुस्तक साहित्यागार(जयपुर,राजस्थान) ने प्रकाशित की है।
आँगन में उतरी हुई धूप से शिथिल शिराओं में होनेवाला ऊष्मा का संचार… सांझ की धुन्ध में डूबते हुए सूरज के कारण अपनी ही परछाइयों के खोने और खामोश हो जाने का एहसास…समूचे काव्य संग्रह में होता रहता है। और यह सिलसिला ‘ढलती हुई शाम’,जाने के बाद तुम्हारी याद’,’समय’, ‘बीता हुआ पल’,’जीवन’ आदि कविताओं में चलता रहता है। ‘जीवन परिणति’ में वह वास्तविकता के रूबरू होता हुआ,सारे परिवर्तनों को स्वीकारता हुआ,खालीपन और अकेलेपन से गुज़रता हुआ ‘यादों के घेरे में’, काल के अंधेरे में’ स्वयं को खोजता हुआ-सा जान पड़ता है।
और फिर… ‘आशा का दीप’ जगमगाता- सा दिखाई देता है। इसी मिट्टी के दीप के झिलमिल प्रकाश में ‘सपनों की नाव’ चल पड़ती है ‘अच्छे दिनों की आस’ में..। और इस तरह जीवन के प्रति विश्वास जगने लगता है।
इनकी कविता ‘फूलों का मौन’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की इस कविता से साम्य रखती है-
‘चिंताओं से भरा हुआ,यह जीवन किस काम का,
विरम सकें दो घड़ी नहीं यदि,हम फूलों के सामने..।’
‘पेड़ और पिता’ एक अत्यंत सामंजस्यपूर्ण और अत्यंत संवेदनशील भावाभिव्यक्ति है। किसी अन्य कवि की पंक्तियाँ हैं कि-
‘मुझे छाँव में रखा,खुद जलता रहा धूप में
मैंने देखा है एक फरिश्ता,मेरे पिता के रूप में।’
यह सही है कि कड़ी धूप,बारिश,आँधी-तूफान का असर पुराने पेड़ों पर नहीं पड़ता,पर अकेलेपन का एहसास तो उन्हें भी कसक दे जाता है। इसीलिए वे कहते हैं-‘खालीपन ने भी/ढूंढ ली है/एक निरापद जगह/और वह है/आदमी का मन’। इस संदर्भ में रहीम की यह उक्ति कितनी समीचीन है-
‘रहिमन निज मन की व्यथा,मन ही राखो गोय।
सुनि इठिलैहैं लोग सब,बांटि न लैहैं कोय॥’
इस काव्य संग्रह की बहुधा कविताएँ हमारे आसपास के परिवेश से रिश्ता बनाती हुई चलती हैं।
‘घटिया किस्म के आम’ में कवि के बचपन की ऐसी स्मृतियाँ खनकती हैं जो किसी भी कीमत पर भूली नहीं जा सकतीं। ‘ट्यूबलाइट पर घोंसला’ में कवि ‘सर्वहारा’ चिड़िया के करुण क्रंदन से व्यथित अपनी आह को इस तरह शब्दों के घोंसले में सहेजते हैं-‘गूँज रहा है/ उनका क्रंदन/अब भी मेरे मन गहरे/ व्यर्थ मगर उनसे कहना /जो औरौं की पीड़ा सुन/बन जाते बहरे।’ तभी ‘गौरैया का विश्वास’ में उनके आशावादी स्वर मुखर हो जाते हैं। ‘काली चिड़िया’ में एक पुकार है..’ओ काली चिड़िया../ खोजता हूँ/ मै तुम्हें/ यहाँ-वहाँ/पता नहीं किस आस में..’
और इसी आस की ज्योति से प्रकाशित उनकी अंतरात्मा कह उठती है-
‘दीपक है
मिट्टी से निर्मित
मानव भी माटी का पुतला,
दोनों ही क्षणभंगुर है
है दोनों का ही जीवन उथला।
बस यत्न यही है दोनों का,
क्षमता भर जग को रौशन कर दें
अपनी कमियों को स्वीकारें,
कर्मठता प्राणों में भर दें।
बाहर भीतर का अंधियारा,
तब कहीं दिख न पाएगा
जो दीप जला अंतर्मन का,
तो जग ज्योतित हो जाएगा।’
आशावादिता से भरपूर इन मार्मिक काव्य कणिकाओं की रचना के लिए कवि सुरेशचंद्र ‘सर्वहारा’ साधुवाद के पात्र हैं।
समीक्षक-डॉ. तारूणी कारिया