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हिन्दी काव्य में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का ऊँचा स्थान

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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महाकवि गोस्वामी तुलसीदास (२४ जुलाई) जयंती स्पर्धा विशेष

संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी को श्रीराम का अनन्य भक्त माना जाता है। अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदासजी ने कालक्रमानुसार कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं। जैसा कि,नागरी प्रचारिणी सभा(काशी) ने उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है,उसके अनुसार- रामचरितमानस,रामललानहछू,वैराग्य-संदीपनी,कलिधर्माधर्म निरूपण, हनुमान चालीसा आदि उनके ग्रंथ हैं,पर मान्यताओं के अनुसार और एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम १२ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इसके अनुसार भी रामलला नहछू,वैराग्य संदीपनी,रामाज्ञाप्रश्न,जानकी-मंगल,रामचरित मानस,सतसई,पार्वती-मंगल,गीतावली,विनय-पत्रिका,कृष्ण-गीतावली,बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली ही मान्य ग्रंथ हैं।इनमें से रामचरितमानस,विनय-पत्रिका, कवितावली,गीतावली कृतियाँ बहुत प्रचलित हैं। गोस्वामी तुलसीदास (सं. १५५४ -सं.१६८० अर्थात् १४९७ ई.-१६२३ई.) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्ति-भाव से पढ़ा जाता है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया है। कुल १२ रचनाओं में श्रीरामचरितमानस विशेष रूप से राम भक्ति से ओत-प्रोत और सर्वश्रेष्ठ है। यह एक महाकाव्य माना गया है,यद्यपि इसमें ७ काण्ड ही हैं,जबकि महाकाव्य में ८ सर्ग-काण्ड होने चाहिए,लेकिन श्रीराम के जीवनचरित की सार्वभौमिकता के वर्णन के चलते इसे महाकाव्य माना गया है और इस नाते तुलसीदासजी महाकवि हैं। 'श्रीरामचरितमानस १६वीं शताब्दी में लिखा गया महाकाव्य है,जैसा कि स्वयं गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में लिखा है कि उन्होंने रामचरितमानस की रचना का आरम्भ अयोध्या में विक्रम संवत १६३१ (१५७४ ईस्वी) रामनवमी के दिन (मंगलवार) को किया था। रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को २ वर्ष ७ माह २६ दिन का समय लगा था और उन्होंने इसे संवत् १६३३ (१५७६ ईस्वी) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन पूर्ण किया था।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने प्रसिद्ध श्रीरामचरितमानस महाकाव्य, जो पाठकों के हृदय का हार बनता चला आया है,की रचना अवधी में की है। तुलसीदासजी शास्त्र पारंगत विद्वान् थे,अत: उनकी शब्द योजना साहित्यिक और संस्कृत-गर्भित है। उन्होंने दोहा,सोरठा,चौपाई,छंद आदि में रचना कर इसे जन-जन में लोकप्रिय बना दिया।
सारांशत: हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली में महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपना ऊँचा स्थान प्रतिष्ठित किया है।
रामचरितमानस को तुलसीदासजी ने ७ काण्डों(बालकाण्ड,अयोध्याकाण्ड,
अरण्यकाण्ड,किष्किन्धाकाण्ड,सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड)में विभक्त किया है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अवधी के अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है,विशेष कर अनुप्रास अलंकार का। रामचरितमानस में प्रत्येक हिंदू की अनन्य आस्था है और इसे हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ माना जाता है।
श्रीराम को विष्णु का अवतार निरूपित करने के कारण तज्जन्य विशिष्टता से भरा हुआ श्रीरामचरितमानस विश्व के समग्र राम-काव्यों में सर्वाधिक मनोहर है। यह अविस्मरणीय एवं अद्वितीय है। भारतीय एवं विश्व के बहुत भागों में जनमानस में यह प्राणवायु की भांति उर्जस्वित है।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की समग्र कृतियों में श्रीरामचरितमानस ऐसी गंगा है जिसमें दिग्भ्रमित को भी डुबकी लगाने पर गरिमामयी जीवनशैली की विश्वसनीय प्रेरणा मिलती है।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस में जिन तथ्यों की व्याख्या की है उनमें पुरुषार्थ को सभी दार्शनिकों एवं संतों ने स्वीकृति प्रदान की है। इसमें जीवन के हर पक्ष का सम्यक् चित्रण समाविष्ट है। तब, श्रीरामचरित मानस में और क्या है ? जैसा कि महाकवि तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस के उत्तरकाण्ड स्थित अंतिम श्लोक में कहा है-
‘पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवा:॥’
अर्थात्
यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप,पापों का हरण करने वाला,सदा कल्याणकारी
,विज्ञान और भक्ति को देनेवाला,माया,मोह और मल का नाश करनेवाला,परम निर्मल प्रेमरूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं,वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से भी नहीं जलते।
श्रीरामचरितमानस की रचना होने पर अपना वर्चस्व खोते देखकर काशी के पण्डितों ने इसका घोर विरोध किया और इसकी श्रेष्ठता परखने के उद्देश्य से तत्कालीन श्रेष्ठ विद्वान् मधुसूदन सरस्वतीजी से श्रीरामचरितमानस पर अपना विचार रखने का अनुरोध किया, तो उन्होंने जो इस ग्रंथ के बारे में लिखा वह यों है-
‘आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरु:।
कविता मञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥’
अर्थात् ,
इस काशीरूपी आनन्दवन में तुलसीदास चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कवितारूपी मञ्जरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्री रामरूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस को आरंभ करते हुए प्रथम सोपान के श्लोकान्तर्गत ही लिखा है कि-
‘नानापुराणनिमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदनयतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा-
भाषानिबंधमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥’
अर्थात्,
अनेक पुराण,वेद और (तन्त्र)शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्रीरघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्त:करण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है।
तब प्रश्न उठता है कि महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने इतनी वेद-शास्त्र-सम्मत बातें श्रीरामचरितमानस में लिख कैसे दीं,तो सहज उत्तर मिल जाता है कि तुलसीदासजी ने काशी में शेषसनातनजी के पास पन्द्रह वर्ष तक रहकर वेद-वेदाङ्गका गहन अध्ययन किया,तभी वे उत्कृष्ट ग्रंथ की रचना कर सके।
तुलसी और वाल्मीकि रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द्र के निर्मल एवं विशद चरित्र का वर्णन किया है। जहाँ वाल्मीकि ने रामायण में राम को केवल एक आदर्श पुरूष के रूप में दर्शाया है,वहीं तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम को आदर्श पुरूष के साथ भगवान विष्णु का अवतार भी माना है।

कम्ब रामायण से तुलना-

कम्ब रामायण तमिल में लिखा गया है।
कम्ब रामायण का कथानक भी वाल्मीकि रामायण से लिया गया है, परंतु कम्बन ने मूल रामायण का अनुवाद अथवा छायानुवाद न करके, अपनी दृष्टि और मान्यता के अनुसार घटनाओं में सैकड़ों परिवर्तन किए हैं। विविध परिस्थितियों के प्रस्तुतीकरण,घटनाओं के चित्रण,पात्रों के संवाद, प्राकृतिक दृश्यों के उपस्थापन तथा पात्रों की मनोभावनाओं की अभिव्यक्ति में पदे-पदे मौलिकता मिलती है। तमिल भाषा की अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता को सशक्त बनाने के लिए भी कवि ने अनेक नए प्रयोग किए हैं। छंदोविधान,
अलंकारप्रयोग तथा शब्दनियोजन के माध्यम से कम्बन ने अनुपम सौंदर्य की सृष्टि की है।

अध्यात्म रामायण-

अध्यात्म रामायण संस्कृत में लिखा गया है और इसे महामुनि-व्यास द्वारा रचित माना गया है। इसका कथानक भी वाल्मिकीय रामायण से मिलता जुलता है। महाकवि तुलसीदास ने जो श्रीरामचरितमानस के प्रारंभ में ‘क्वचिदनयतोऽपि’ बात लिखी है,वह ईशारा कम्ब रामायण और अध्यात्म रामायण की ओर किया गया भी हो सकता है।
गोस्वामी जी के साहित्य में जीवन की सभी परिस्थितियों का वर्णन है। उन्होंने प्रत्येक काव्य में मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति की है। महाकवि ने श्रीरामचरितमानस में मानव मूल्य और आत्मीय संबंधों की प्रासंगिकता से अपने काव्य को संपृक्त किया है,ऐसे उदाहरण सैकड़ों हैं,कुछ का अवगाहन करें-

नीतिगत प्रासंगिकता

‘नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नर मरकट की नाईं॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव विप्र श्रुति संत विरोधी॥( उत्तरकां./दो.९८ख/१.)

सामाजिक शीलगत प्रासंगिकता

‘सौरभ धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। (लंकाकांड दोहा ७९/३)
छमा कृपा समता रजु जोरे॥

मित्रगत प्रासंगिकता

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हिं विलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्र के दुख रज मेरू समाना॥(कि.कां. दो. ६/१.)
तुलसीकृत रामायण भोले-भाले प्रवासियों के संग मॉरिशस,ट्रिनिडाड, फिजी आदि अनेक देशों में गई है और हमारा सांस्कृतिक संदेश पहुंचा रही है। वैसे तो तुलसी कृत रामायण हमारे राजनयिक-कार्यालयों द्वारा विश्वभर में पहुँचाया गया है और इस तरह से भी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास को संसारभर के लोग आज ही नहीं,४४४ वर्षों से जान रहे हैं।

ऐसा कैसे हुआ ? सरल,सुबोध और जनभाषा में लिखने से!-

श्रीरामचरितमानस की रचना महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने आज से ४४४ वर्ष पहले की। उस समय छापाखाना नहीं था, फिर भी उसकी प्रतिलिपि हाथ से ही बनाई जाती थी और गाँव-गाँव तक पहुँच भी जाती थी। पं. सदल मिश्र ने सन् १८१० में तुलसीदास के रामचरितमानस का एक संस्करण संशोधित कर प्रकाशन कराया था। सन् १९०३ में गोस्वामी तुलसीदासकृत सचित्र रामचरितमानस इलाहाबाद से मुद्रित और प्रकाशित हुआ। इसका नाम रामचरितमानस दिया गया,जिसके संपादन में श्यामसुंदर दास ने कहा था कि “हिन्दी -साहित्य में गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस से बढ़कर दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ नहीं है।”
१९०४ ई. में ‘पुस्तक समीक्षा’ स्तंभ के अंतर्गत आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था-“तुलसीदास ने इसका नाम रामचरितमानस रखा था और यह बात उन्होंने इसमें लिख भी दी थी,परन्तु लोग इसे भूल गये थे।”
खुद तुलसीदास की हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी और उनकी याददाश्त भी बहुत पक्की थी। श्रीरामचरितमानस पुस्तक की चोरी हो जाने से बचने के लिए तुलसीदासजी ने मूल पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।
ऊपर वर्णित आख्यानों से यही निकल कर आता है कि हिन्दी काव्य रचना शैली में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का ऊँचा स्थान है। इसीलिए तो
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहा गया है-
‘सूर सूर,तुलसी शशि,उडुगन केशवदास!
अब के कवि खद्धोत सम,जहं तहं करत प्रकाश!!’
अर्थात्,
सूरदास सूर्य,तुलसीदास चन्द्रमा केशवदास तारे के समान हैं,और आजकल के कवि जुगनू की तरह यहाँ-वहाँ प्रकाश कर रहे हैं।
इत्यलम् !

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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